चेतना पर्व है अक्षय तृतीया
May 3, 2022 2022-05-03 6:13चेतना पर्व है अक्षय तृतीया

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आजादी का अमृत महोत्सव
चेतना पर्व है अक्षय तृतीया
‘अक्षय’ संस्कृत भाषा का एक शब्द है। नास्ति क्षयोऽस्य अर्थात जिसका कभी क्षय-ह्रास न होता हो, वह अक्षय है। महाभारत में भीष्मप्रोक्त भगवान् विष्णु के सहस्र नामों में एक नाम अक्षय है। कभी नष्ट न होने वाली वह अक्षय शक्ति जब वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि से जुड़ती है तो यह स्वत:सिद्ध तिथि अक्षय तृतीया हो जाती है। लोकभाषा में अक्षय तृतीया का नाम है आखा तीज।
धर्मशास्त्र के विद्वानों का कथन है कि आश्विन शुक्ल में विजयादशमी वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में एक है। अन्य दो हैं, चैत्र शुक्ल प्रतिप्रदा अर्थात् संवत्सरारम्भ का दिन एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा (बलि प्रतिपदा)। कुछ लोगों के मत से वर्ष भर के सर्वोत्तम साढ़े तीन दिनों में नागपंचमी आधा शुभ दिन है किन्तु कुछ लोग यह महत्त्व अक्षयतृतीया को देते हैं। विद्वानों ने अक्षय तृतीया का संबंध अनाज से जोड़ा है। राजस्थान के अनाज को आखा यानी अक्षय कहने की परंपरा है। इस नाते अनाज के खेत से घर आ जाने का पर्व भी है – आखा तीज।
अक्षय तृतीया शब्द में तृतीया का संबंध शिवप्रिया माता पार्वती से है। ज्योतिषियों के मत से तृतीया तिथि की स्वामिनी माता गौरी है। वे स्वयं तो नित्य सौभाग्यवती हैं ही, नारियों को भी अक्षय सौभाग्य का दुर्लभ वर देती हैं। इसीलिए पौरोहित्य शास्त्र में अक्षय तृतीया का दिन विवाह करने के लिए सर्वाधिक प्रशस्त हो गया। इतना प्रशस्त कि न किसी ज्योतिषी से मुहूर्त निकलवाने की आवश्यकता है और न ही शकुन विचार करने की जरूरत। परंपरा में यह तिथि ‘अबूझ’ है। इतनी अबूझ कि सारे मांगलिक कामों के लिए यह वर्ष भर के सबसे शुभ दिन के रूप में स्वीकृत हो गई है।
भारतरत्न डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में लिखते हैं — ‘वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया एक महत्वपूर्ण तिथि है, इसे ‘अक्षय-तृतीया’ कहते हैं। विष्णुधर्मसूत्र में इसका अतिप्राचीन उल्लेख है। मत्स्य पुराण (65/1-7), नारदीय पुराण (1/112/10) में यह उल्लिखित है। वहां आया है कि इस दिन उपवास करना चाहिए, वासुदेव की पूजा अक्षत चावल से की जानी चाहिए, अक्षत चावल से अग्नि में होम करना चाहिए तथा अक्षत चावल का दान करना चाहिए। इस प्रकार के कृत्य से व्यक्ति सभी पापों से छुटकारा पाता है, जो कुछ उस दिन दान दिया जाता है या जिसका यज्ञ किया जाता है या जो कुछ जप किया जाता है, वह फल रूप में अक्षय होता है। इस तिथि का उपवास भी अक्षय फल को देने वाला है, यदि इस तृतीया में कृतिका नक्षत्र हो तो यह विशिष्ट फल देने योग्य ठहरती है।’
भविष्यपुराण (30/1-19) ने कहा है – अक्षय तृतीया युगादि तिथियों में परिगणित होती है। कृतयुग (सत्ययुग) का आरम्भ इसी से हुआ था, इस दिन जो कुछ भी किया जाता है, यथा – स्नान, दान, जप, अग्नि-होम, वेदाध्ययन एवं पितरों को जल-अर्पण – सभी अक्षय होते हैं। कन्नौज के राजा गोविन्दचन्द्र के ‘लार’ नामक दान-पत्रों से पता चलता है कि संवत् 1202 में मंगल की अक्षय-तृतीया (1146 ईस्वी) के दिन राजा ने गंगा में स्नान करके किसी श्रीधर ठक्कुर नाम के ब्राह्मण को एक ग्राम दान दिया था।
वैशाख में शुक्ल पक्ष की तृतीया को परशुराम जयन्ती मनाई जाती है। पौराणिक उल्लेख है कि भगवान् विष्णु ने इस तिथि पर ही नर—नारायण और हयग्रीव स्वरूप को धारण किया है। प्राय: यह परशुराम जयन्ती के रूप में ही ख्यात है। महाभारत में परशुराम की गाथा (21 बार क्षत्रियों का नाश करना, महर्षि कश्यप को पृथिवी का दान, मिथिला से अयोध्या लोटते हुए श्रीराम के मिलने पर वीरता का ह्रास, महेन्द्र पर्वत पर निवास और पश्चिमी सागर को पीछे हटा देना आदि) पाई जाती है। स्कन्दपुराण एवं भविष्यपुराण में आया है कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को रेणुका के गर्भ से भगवान् विष्णु उत्पन्न हुए। उस समय नक्षत्र पुनर्वसु था। प्रहर प्रथम था। छह ग्रह उच्च के थे और राहु मिथुन राशि में था। इस दिन परशुराम की प्रतिमा की पूजा की जाती है।
जमदग्निसुत वीर क्षत्रियान्तकर प्रभो। गृहाणार्घ्यं मया दत्तं कृपया परमेश्वर।।
मन्त्र के साथ उन्हें अर्घ्य प्रदान किया है। यदि तृतीया शुद्धा हो तो उस दिन उपवास करना चाहिए। भारत में परशुराम के कुछ मन्दिर भी हैं, विशेषत: कोंकण में, यथा – चिप्लून में, जहां परशुराम जयन्ती बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। भारत के बहुत से भागों में यह जयन्ती प्राय: नहीं मनाई जाती किन्तु दक्षिण में इसका सम्पादन होता है। अनेक विद्वानों ने अति-उत्साह में परशुराम, राजा हर्षवर्धन और शंकराचार्य आदि के जन्म-पत्रों का भी उल्लेख किया है किन्तु वे ठीक नहीं हैं।
मध्य एवं वर्तमान काल में विष्णु के दस अवतार कहे जाते रहे हैं। वराहपुराण (4/2) में लिखा है – मत्स्य: कूर्मो वराहश्च नरसिंहोSथ वामन:। रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्ध: कल्की च ते दश।। – मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, दाशरथी श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध एवं कल्कि। मध्यप्रदेश के सीरपुर के एक तीर्थ पर लगभग आठवीं शती का एक मन्दिर है, जिसमें राम एवं बुद्ध की प्रतिमाएं अगल-बगल में ध्यान मुद्रा में बैठाई गई हैं। परम्परा में ‘राम’ शब्द गणित के तीन अंक का प्रतीक हो गया है। ज्योतिष के ग्रन्थों में ‘तीन’ की संख्या बताने के लिए बहुधा ‘राम’ शब्द लिखा गया है। ये तीन राम — परशुराम, श्रीराम और बलराम हैं।
महाभारत (आदिपर्व 218/12) में कृष्ण को ‘सात्वत’ कहा गया है। महाभारत में उनका एक नाम ‘हंस’ आया है। हरिवंशपुराण (1/41/11) में ऐसा कथित है कि प्राचीन काल में सहस्रों अवतार हुए हैं और भविष्य में भी सहस्रों होंगे। यही बात महाभारत (शान्तिपर्व 339/106) में भी है। हरिवंशपुराण (1/41/27) में विष्णु के ये अवतार हैं – वराह, नरसिंह, वामन, दत्तात्रेय, जामदग्न्य (परशुराम), श्रीराम, कृष्ण एवं वेदव्यास।
महाकवि कालिदास (चौथी शती) के रघुवंश (4/53 एवं 58) ने सह्य पर्वत के पास, पश्चिमी समुद्र से, राम (भार्गव परशुराम) द्वारा पृथ्वी की पुन: प्राप्ति का उल्लेख किया है। मेघदूत में विष्णु का वामनावतार के रूप में वाम पाद को बलि के ऊपर रखने का उल्लेख है। संस्कृत के महान् कवि माघ ने शिशुपालवध (15/58) में बोधिसत्त्व (बुद्ध) को श्रीहरि का अवतार माना है (वहां कामदेव की सेना से बुद्ध को मोहित करने के प्रयास की ओर निर्देश है)। माघ लगभग 725-775 ईस्वी के आसपास हुए थे। वामन एवं कृष्ण नाम के अवतारों की जानकारी पतंजलि के महाभाष्य से प्राचीन है, क्योंकि इसमें बलि-बन्धन एवं कंस-वध के नाटकीय प्रतिरूपों का उल्लेख पाया जाता है। एलोरा की दशावतार गुफा में वराह, नरसिंह, वामन एवं कृष्ण की प्रतिमाएं हैं। ये गुफाएं आठवीं शती की हैं। कुछ अवतार, यथा वामन, परशुराम एवं कृष्ण, ईसा से कई शतियों पूर्व से ज्ञात थे और सभी दस अवतार कुछ लेखकों एवं अन्य लोगों द्वारा सातवीं शती तक मान लिए गए थे।
वराहपुराण (48/20-22) में आया है कि नरसिंह की पूजा से पापों के भय से मुक्ति मिलती है। वामन की पूजा से मोह का नाश होता है। परशुराम की पूजा से धन की प्राप्ति होती है। क्रूर शत्रुओं के नाश के लिए श्रीराम की पूजा करनी चाहिए। पुत्र की प्राप्ति के लिए बलराम और कृष्ण की पूजा करनी चाहिए। सुन्दर शरीर के लिए बुद्ध की तथा शत्रुघात के लिए कल्कि की पूजा करनी चाहिए।
परशुराम द्वारा क्षत्रिय—ध्वंस की अनेक कथाएं पुराणों में हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार परशुराम ने क्षत्रियों कुल के हैहय वंश का विनाश किया था। जिस वंश के राजा सहस्रार्जुन ने अपने बल और अभिमान के कारण ब्राह्मणों और ऋषियों पर अत्याचार किए थे। महाभारत (शान्तिपर्व 49/84) में ऐसा आया है कि भगवान् परशुराम की क्रोधाग्नि से बचने के लिए कुछ क्षत्रिय लुहार और सुनार हो गए। गोस्वामी तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस’ में परशुराम से अपने परिचय में यह बात कहलाई है —
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रिय कुल द्रोही।।
विक्रम संवत् के समान ही बहुत-से अन्य संवत् भी प्रचलित रहे थे, यथा – वर्धमान, बुद्ध-निर्वाण, गुप्त, चेदि, हर्ष, लक्ष्मणसेन (बंगाल में), कोल्लम या परशुराम (मलावार में)। ये संवत् किसी समय (कम-से-कम लौकिक जीवन में) बहुत प्रचलित रहे थे।
आदित्य पुराण के अनुसार स्वर्ग में विचरती माता गंगा अक्षय तृतीया को ही स्वर्ग से महादेव की भारी जटाओं में उतरी थी। इस अक्षय परंपरा का सीधा संबंध नारी से भी है। अक्षय तृतीया का संबंध ज्योतिर्मयी स्त्री से है। अक्षय तृतीया चेतना व अतुल्य शक्ति से भरी उन नारियों को भी याद करने का दिन है जिन्होंने समाज को बदलने का साहसिक प्रयत्न किया। नारी वह चेतना है जिसने हमें जीवन दिया। परंपराएं दी, साथ ही वात्सल्य की सुहानी छाया भी। वैदिक काल की ब्रह्मवादिनी गार्गी, मैत्रेयी, अपाला से लेकर पन्ना धाय और लक्ष्मी बाई जैसी अनेक अमर नारियों ने भारत के इतिहास को स्वर्ण आभा से प्रकाशित किया है। अक्षय तृतीया नारी को पूजने और उसके सम्मान को मानने का पर्व है।


@Kosalendradas
- शास्त्री कोसलेन्द्रदास
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Comments (4)
Saroj Kaushal
अक्षय तृतीया के अवसर पर डॉ कौशलेन्द्र जी का यह आलेख सारगर्भित है। अनेक आयामों पर इन्होंने विशद निरूपण किया है। पुराणों के सन्दर्भ संग्रहणीय हैं।
हार्दिक अभिनन्दन
किशन शर्मा
पहली बार अक्षय तृतीया और परशुराम जयन्ती पर इतनी अच्छी जानकारी प्राप्त हुई। अकादमी से आग्रह है कि ऐसे लेख हर त्योहार पर प्रेषित करते रहें, जिससे गांव में बैठे हम लोगों को महत्त्वपूर्ण जानकारियों मिल सके।
पंडित किशन शर्मा
ग्राम — गोलाड़ा, तह. बांदीकुई
जिला — दौसा
Vinita
अक्षय तृतीया पर्व एवं विष्णु अवतार के स्वरुपो के विषय मे सारगर्भित जानकारी देने के लिए हार्दिक आभार |
🙏🏻🙏🏻
Dr. Dolly Mogra
समसामयिक उत्सव और अवसरों पर ज्ञानवर्धक लेख के माध्यम से शास्त्री जी हमेशा हमको अपनी सांस्कृतिक विरासत के दर्शन सरल शब्दों और भाषा में करा देते है। इसके लिए आपको साधुवाद की आप अपनी लेखनी से हम सभी के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर रहे है, हमको हमारी संस्कृति के अतुलनीय माहत्म्य से परिचित कराने का ये क्रम विस्तारित होता रहे।