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स्‍वतन्‍त्रता सेनानी अमरचन्‍द बाँठिया

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स्‍वतन्‍त्रता सेनानी अमरचन्‍द बाँठिया

amarchand-bathinda

     भारतीय स्‍वतन्‍त्रता आन्‍दोलन के इतिहास में राजस्‍थान के क्रान्तिकारियों में स्‍वतन्‍त्रता सेनानी अमरचन्‍द बाँठिया का नाम सदैव चिरस्‍मरणीय रहेगा। आपका जन्‍म राजस्‍थान के बीकानेर शहर में हुआ। आपकी शिक्षा दीक्षा बीकानेर में ही हुई। राधेगोविन्‍द गुर्वा से आपने क्रान्ति की सीख ली। परतन्‍त्र भारत की दु:स्थिति से खिन्‍न क्रान्तिकारियों को हरसंभव सहयोग प्रदान करने की भीष्‍म प्रतिज्ञा कर उसका आजीवन निर्वाह कर आपने अपने व्‍यक्तित्‍व को वन्‍दनीय बना दिया। झॉसी की रानी लक्ष्‍मीबाई एवं तॉत्‍याटोपे के क्रान्ति विषयक विचारों से आप अत्‍यन्‍त प्रभावित हुए। आपने अपनी सम्‍पूर्ण संचित धनराशि उन्‍हें उस समय प्रदान की जब वे अपने राज्‍य को खो चुके थे, किन्‍तु भारत की स्‍वतन्‍त्रता हेतु लड़ रहे थे । यही कारण है कि आपको राजस्‍थान का दूसरा भामाशाह कहा जाता है।

            1857 की क्रान्ति के राजस्‍थान में शुभारम्‍भ के भी आप प्रणेता रहे। नावॉ के ठाकुर सरदारसिंह, आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह, आसोपा के ठाकुर शिवनाथ सिंह को क्रान्ति की प्रेरणा प्रदान कर आपने क्रान्ति के क्रियान्‍वयन के लक्ष्‍य को पूर्ण करने में भी पर्याप्‍त तत्‍परता दिखलायी। बीकानेर के नवयुवकों के माध्‍यम से सशस्‍त्र क्रान्ति की एक योजना के क्रियान्‍वयन के संदर्भ में गुप्‍त रूप से मन्‍त्रणा करने के विषय में किसी नवयुवक द्वारा सूचना देने के कारण आपको गिरफ्तार कर लिया गया। तत्‍कालीन पोलीटिकल एजेण्‍ट माकमैसन के आदेश पर आपको तीन माह तक जोधपुर जेल में बन्‍द रखा गया।

     जनवरी 1858 में कुशाल सिंह की पराजय से आपको बडा धक्‍का लगा। आपने राजपूताना रेजीडेन्‍सी क्षेत्र के बाहर जाकर अपनी क्रान्ति विषयक योजनाएँ क्रियान्वित करने का निर्णय लिया। फरवरी के अन्तिम सप्‍ताह में आप मध्‍यप्रदेश के भिण्‍ड नामक स्‍थान पर चले गये। यहाँ क्रान्तिकारी नवयुवकों को संघटित करने लगे। एक माह बाद ही लश्‍कर में अपनी एक संस्‍था भी बनायी, जो गुप्‍त रूप से क्रान्तिकारियों का सहयोग करती थी। 19 जून 1858 को ग्‍वालियर में भी तत्‍कालीन ब्रिटिश सरकार की नीतियों के विरोध में प्रदर्शन किया गया था। इस प्रदर्शन ने दो दिन में ही क्रान्ति जैसा स्‍वरूप ग्रहण कर लिया। ब्रिटिश सैनिकों ने कई प्रदर्शनकारियोंको गिरफ्तार किया था। बाँठिया जी भी इनमें से एक थे।

     ब्रिटिश सैनिकों द्वारा हरसंभव प्रयास करने पर भी जब बाँठिया जी ने आत्‍मसमर्पण नहीं किया, तो उन्‍हें 22 जून 1858 को ग्‍वालियर शहर में सर्राफा बाजार में नीम के पेड़ पर लटका कर सार्वजनिक रूप से फाँसी दे दी गयी । मातृभूमि की बलिवेदी पर शहीद होकर बाँठिया जी ने अपना नाम सदा सदा के लिए अमर कर दिया।   

डॉ. रामदेव साहू

द्वारा राजस्‍थान संस्‍कृत अकादमी, जयपुर

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