वैश्विक संस्कृति का आधार योग
May 15, 2020 2020-07-15 8:52वैश्विक संस्कृति का आधार योग
वैश्विक संस्कृति का आधार योग
प्राचीन ऋषि-महर्षियों ने जो धर्म मानव जाति के कल्याण के लिये प्रकाशित किया, उसमें योग साधना को प्रधान स्थान प्राप्त है। यदि मानव धर्म से योग साधना को पूर्णत: हटा दिया जाये, तो उसमें कुछ भी नहीं शेष रहता। वेद शास्त्र, उपनिषद, पुराण, गीता आदि धर्मग्रन्थ सभी योग दर्शन के ही चमत्कार है। जिन्हें ऋषियों ने आत्म कल्याण और लोक कल्याण के सन्मार्ग का अनुसंधान समाधिस्थ अवस्था में योगारूठ होकर ही किया था। वेदों में कर्म,उपासना और ज्ञान के नाम से योग का वर्णन मिलता है। पातंजल योग दर्शन में योग साधना पर विचार किया है। कपिल मुनि के सांख्य दर्शन में सांख्य योग के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। पूर्व मीमांसा जहॉं कर्मयोग की व्याख्या करती है, वहीं उत्तर मीमांसा ब्रह्मयोग की चर्चा करता है, श्रीमद्भागवतादि पुराण और रामायण आदि भक्ति योग का मार्ग प्रशस्त करते हैं। श्रीमद्भागवतगीता का प्रत्येक अध्याय तो मात्र योग के ही विभिन्न रूपों की चर्चा करता है। अत: योग धर्म ही मनुष्यों के लौकिक और पारलौकिक कल्याण तथा मुक्तिमार्ग का एकमात्र पथ है।
वैश्विक समुदाय को ”वसुधैव कुटुम्बकम्” का संदेश देने वाली भारतीय संस्कृति का मूल आधार योग ही तो है। योग की इस ऋषि परम्परा का ज्ञान भारतीय समाज को नैसर्गिक रूप में प्राप्त है, तभी तो सुदूर अंचल में बैठा अनपढ व्यक्ति भी योग की परम्परा का प्रवर्तक नजर आता है। वह अपनी नित्य क्रियाओं के माध्यम से संदेश देता है:
”सर्वे । भवन्तु सुखिन; सर्वे सन्तु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दु:ख भाग्भवेत् ।।
योग का अर्थ ही जोडना है। इसका आध्यात्मिक अर्थ है
जीवात्मा और परमात्मा का संयोग
”योग: कर्मसु कौशलम् – गीता
गीता में योग को कर्म की कुशलता कहा गया है। जिस उपाय से कर्म (इष्ट) सहज, सुन्दर स्वाभाविक रूप में सिद्ध हो सके, अथ च बन्धन का कारण न हो, उसी का नाम योग है ।
पतंजलि के मतानुसार – चित्त वृत्ति का निरोध करके स्वरूप प्रतिष्ठ होना योग है ”योगश्रिन्तवृत्ति निरोध: । ”तदा दृष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम्” । सांख्य मतानुसार पुरूष प्रकृति का पृथकत्व स्थापित कर,दोनों का वियोग करके पुरूष का स्वरूप में स्थित होना योग है।
”पुंप्रकृत्योर्षि योगेऽपियोग इत्यभिधीयते ।”
सुख- दु:ख,पाप-पुण्य, शत्रु-मित्र, शीतोष्ण आदि द्वन्द्वों से अतीत होकर समत्व प्राप्त करना भी योग नाम से जाना जाताहै । जिसे गीतामें ”समत्वं योग उच्यते”
भक्त प्रहलाद ने ”आराधना” शब्द के द्वारा योग की वास्तविकता को सूचित किया है।
पदार्थ विज्ञान (Chemical Combination) (हाइड्रोजन + आक्सीजन= जल) को योग कहता है। वहीं गणित शास्त्रों में योग Addition के रूप में जाना जाता है।
योगियों ने योगबल से मन स्थिर करके, देह के भीतर कहॉ पर क्या है, यह सब जानकर,मानसिक अवस्थाओं का विचार कर यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र के रहस्य का आविष्कार किया है। योगियों के अनुसार हर स्नायविक केन्द्र में एक-एक आलौकिक शक्ति निहित है। उन सुप्त शक्तियों को प्राणवायु और ध्यान की सहायता से जागृत कर साधक दूरदर्शन, दूरश्रवण, परिचित विज्ञान, परकाया प्रवेश, आकाश रोहण तथा योगबल से देहत्याग आदि अलौकिक शक्तियॉ प्राप्त कर सकता है।
योगी, सर्प, मेढक, खरगोश, मत्सय आदि जन्तुओं से आसन मुद्रा, प्राणायम आदि योगाड्को को सीखकर अपने स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि करने में समर्थ हुए हैं।
प्राचीन ऋषियों, महात्माओं द्वारा योगबल से रोगियों के रोग दूर करने की बात प्रसिद्ध है। योगी पंचभूतों के ऊपर प्रभुत्व प्राप्त कर कैसे-कैसे अलौकिक कार्य करने में समर्थ होते हैं। इसका विवरण पातंजल दर्शन के विभूतिपाद में पाया जाता है। मन्त्र, औषध और समाधि जनित सिद्धि देखकर वर्तमान समय के वैज्ञानिक भी समय-समय पर अचंभित देखे जाते हैं। वशीकरण विद्या भी वर्तमान में शिक्षित लोगों को आकर्षित करती है।
योग बल साधकों द्वारा ईष्या-द्वेष,सुख-दु:ख, शत्रु-मित्र आदि दुर्भाव दूरकर शान्त चित्त आत्मदर्शी होकर पृथ्वी पर शान्ति स्थापित करने वाले प्रत्यक्ष उदाहरण शंकर, बुद्ध, ईसा मसीह आदि हैं।
जो लोग योग तत्व का विशेष ज्ञान चाहते है; उन्हें पांतजल योगदर्शन, योगी याज्ञवल्क्य, शिवसंहिता, घेरण्डसंहिता आदि ग्रन्थों के अध्ययन की ओर बढना त्रियोग:- कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग
साधकों की रूचि और अभिज्ञाता के अनुसार योग की साधना प्रणाली को विभिन्न भागों में विभक्त किया गया है :-
योग चतुष्टय:- हठयोग,लय योग,मन्त्र योग और राजयोग
द्विविध निष्ठा:- सांख्य योग, कर्मयोग ।गा।
योग शिखा उपनिषद में वर्णन आया है कि स्वाभाविक योग एक ही हैं। वही महायोग के नाम से/पूर्ण योग के नाम से जाना जाता है । अवस्था भेद के अनुसार ही मन्त्रयोग, हठयोग, लययोग अथवा राजयोग के रूप में प्रकाशित होता है।
योग मार्ग में प्रविष्ठ होने वाले के लिये योगदर्शन के आठ अंगों की साधना आवश्यक बताई गई है: योग दर्शन के अनुसार यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,ध्यान, समाधि
- प्रथम पॉच अंग ”ब्राह्य शुद्धि,तन साधना के रूप में है, शेष तीन अर्थात् धारणा, ध्यान, समाधिअन्तरंग। मन शुद्ध, चित्त शुद्धि के रूप में हैं।
- यम :- ”अंहिसासत्यमस्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा-यमा:।(योगदर्शन-2/30
”अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाचो यम हैं। इनका सब जाति सब देश और सबकाल में पालन करना ”महाव्रत” होता है।
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम्। (योगदर्शन 2/31)
- नियम: शौचसंतोषतप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि- नियमा: पवित्रता,संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधाम ये पॉच नियम हैं। सुख-दु:ख, लाभ-हानि, यश-अपयश, अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति में समान भाव से संतोष पूर्वक स्वीकार करना । कल्याणप्रद शास्त्रों का इष्टदेव का स्मरण, स्त्रोत आदि का tkiजाप स्वाध्याय:। धर्म-पालन करने हेतु कष्ट सहना, व्रतादि का अभ्यास तप है। ईश्वर की भक्ति, मनवाणी और शरीर द्वारा ईश्वर की भक्ति, मन वाणी और शरीर द्वारा ईश्वरीय अनुकूल चेष्टा ईश्वर प्राणिधानहै। स्वाध्याय से इष्ट का साक्षात्कार हो जाता है।
- आसन- आसन अनेक हैं मुख्यत: 84 आसन है। उनमें से आत्म संयम चाहने वालों के लिये सिंद्धासन, पद्मासन, स्वस्तिकासन उपयोगी हैं। सुखपूर्वक लम्बे समय बैठने का नाम आसन है।
- प्राणायाम- तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतियोर्गति
विच्छेद:- प्राणायाम: आसन सिद्ध होने पर श्वास-प्रश्वास की गति के अवरोध हो जाने के का नाम प्राणायाम है। वायु का भीतर प्रवेश करना(श्वास/अनुलोम),भीतर की वायु को बाहर निकालना (प्रश्वास/विलोम) दोनो के रूकने का प्राणायाम है। प्राणायाम की सिद्धि/अभ्यास से मन स्थिर होकर, उसकी धारणाओं के योग्य सामर्थ्य हो जाता है।
- प्रत्याहार – स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणांप्रत्याहार: अर्थात् अपने-अपने विषयों के संग से रहित होने पर, इन्द्रियों का चित्त रूप में स्थिर हो जाना प्रत्याहार है। इच्छाओं एवं भावनाओं पर नियंत्रएण हो जाना ।
6; धारणा – देशबन्धुश्चित्तस्य धारणा (योगदर्शन 3/1) चित्त को किसी एक विशेष बिन्दु पर केन्द्रित करना धारणा है। अर्थात् सूक्ष्म-स्थूल या बाह्य आभ्यन्तर किसी एक ध्येय पर चित्त को बॉध देना, स्थिर करना लगाना धारक है।
- ध्यान- ”तत्र प्रत्यैयकतानता ध्यानम्” (योगदर्शन 3/2 ध्येय वस्तु में चित्तवृत्ति की एकतानता का नाम ध्यान है। अर्थात् चित्त का गंगा के प्रवाह की भॉति धारावत् अविच्छिन्न रूप में निरन्तर ध्येय वस्तु में लगा रहना ध्यान है।
- समाधि – तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि: (योग 3/3)ध्यान ही समाधि हो जाता हैं जिस समय केवल ध्येय स्वरूप का ही भान रहता है, स्वयं के रूप का आभास नहीं रहता उस अवस्था का नाम समाधि है।
इसमें तर्क-वितर्क या शास्त्रार्थ की आवश्यकता नहीं है इसको कोई भी व्यक्ति किसी सामान्य कार्य के प्रति इस प्रक्रिया की परीक्षा स्वयं ही करके देख सकता है। आवश्यकता इसके प्रति श्रद्धा तथा आगे चलकर साहस की अपेक्षा होती है।
”योग: कर्मसु कौशलम्”
योग के अभ्यास के लिये प्रत्येक मनुष्य सदा तैयार रहता है। ”गुरू” प्रेरक मिले तो अभ्यास करें इस आलस्य या प्रमाद के सभी ”साधन” विचार निर्मूल हैं।
यों कोई भी कर्तव्य (चुनौती) सामने आ जाये उसमें संयम अर्थात्(धारणा-ध्यान-समाधि) पूर्वक लग जाना ही योग है। अन्तर इतना ही होता है कि कोई भी स्वार्थकामना कर्तव्य में शामिल हो तो वह अधम श्रेणी का कहाता है, और यदि ‘निष्काम’ है, तो वह कर्तव्य बुद्धि कहलाता है। फल जो कुछ भी प्राप्त हो सो ईश्वर को अर्पित है तो यही ”योग उच्च कोटि का होता है। जब अपने सभी काम इसी रीति से किये जाते हैं तो वही आदमी के जीवन का मुक्ति मार्ग बन जाता है। ईश्वर प्रदत्त यह वैदिक ज्ञान भारतीय संस्कृति का वैश्विक समाज को दिया हुआ अमूल्य उपहार है जिस पर आज सम्पूर्ण मानव जाति विश्वास के साथ आगे बढने को तत्पर दिखती है।
जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्
हृदयेश चतुर्वेदी
राजस्थान संस्कृत अकादमी