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अर्थो हि कन्या स्वकीय एव

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अर्थो हि कन्या स्वकीय एव

यदि किसी भी राष्ट्र अथवा समाज के उन्नत, आधुनिक एवं सभ्य होने का निर्णय करना हो तो उसका एक बहुत ही सरल और अचूक तरीका है- वहां बालिकाओं के प्रति कितनी हिंसा अथवा अपराध होते हैं, इसका पता लगा लीजिए। जहां बालिकाएं अथवा नारियाँ सुरक्षित, प्रसन्न एवं समादृत हैं वह सभ्यता उतनी ही समुन्नत है, इसमें लेशमात्र भी कोई सन्देह नहीं है।

अन्तरराष्‍ट्रीय बालिका दिवस मनाने का मुख्य कारण विश्व भर में बालिकाओं के सामने आ रही समस्याओं के प्रति जागरूकता का प्रसार करना तथा उनका समाधान खोजना है। आज जब मानव सभ्यता हजारों वर्षों का सफर कर विज्ञान एवं तकनीक के प्रगतिशील युग में प्रवेश कर रही है तब भी विश्व के अनेक हिस्सों में बालिकाएँ दुःखी, स्तब्ध एवं प्रताड़ित हैं, जो कि शोचनीय है। इनके विरूद्ध हिंसा के मामले बहुत चौंकाने वाले तथा पीड़ादायक हैं। विकासशील तथा तीसरी दुनिया के देशों में हर दूसरी लड़की अपने जीवन में कभी न कभी भेदभाव तथा हिंसा का शिकार होती है। हर तीन में से एक लड़की अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाती है।

पृष्ठभूमि-      

अन्तरराष्‍ट्रीय स्तर पर बालिका दिवस मनाने की प्रेरणा कनाड़ा की एक संस्था ‘प्लान इन्टरनेशनल‘ के ‘बिकॉज आइ. एम. अ गर्ल‘ नामक अभियान से मिली। संस्था ने बालिकाओं के पोषण के लिए जागरूकता फैलाने की शुरूआत की थी। कनाड़ा सरकार की पहल पर ही संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 19 दिसम्बर 2011 को इस सम्बन्ध में एक प्रस्ताव पारित कर बालिकाओं के अधिकारों को मान्यता देने के लिए 11 अक्टूबर 2012 को प्रथम अन्तरराष्‍ट्रीय बालिका दिवस मनाए जाने का सर्वसम्मत निर्णय लिया।

भारत में भी बालिकाओं से जुड़ी अनेक ऐसी चुनौतियाँ हैं जिनका पूरा समाधान अभी तक हम नहीं ढूंढ पाए हैं, इनमें बाल विवाह, दहेज प्रथा, अशिक्षा, कन्या भ्रूण हत्या आदि मुख्य हैं। पिछले कुछ दशकों में बालिकाओं के प्रति हिंसा, जबरदस्ती एवं भेदभाव के मामलों में जिस तरह से अभिवृद्धि हुई है वह शर्मनाक एवं दुखद है।

अतीत के संदर्भ –

भारतीय संस्कृति की अजस्र परम्परा में कन्या एवं स्त्री की स्थिति एवं प्रतिष्ठा निरन्तर परिवर्तित होती रही है। हमारी संस्कृति के उदीयमान काल, जिसे हम ऋग्वैदिक काल के नाम से जानते हैं, उस समय कन्याओं की स्थिति स्नेहपूर्ण एवं सुदृढ़ थी जिसके अनेक साक्ष्य वैदिक साहित्य में प्राप्त होते हैं। इस काल में कन्या की शिक्षा के प्रति भी पूर्ण जागरूकता थी। सामाजिक दृष्टि से गृहस्थाश्रम में पति के साथ पत्नी संयुक्त स्वामिनी होती थी। मन्त्र-रचयिता ऋषिकाओं यथा लोपामुद्रा, विश्ववारा, सिकता निवावरी, घोषा आदि नाम यह सिद्ध करते हैं कि वेदाध्ययन, स्वाध्याय एवं प्रवचन का स्त्रियों को भी समान अधिकार था।

किन्तु परवर्ती काल में धीरे-धीरे कन्या की स्थिति बदलने लगी। कन्या के प्रति व्यवहार में कठोरता आने लगी। यद्यपि यह परिवर्तन इतना सूक्ष्म और जटिल था कि शताब्दियों तक इसकी प्रत्यक्षता ज्ञात नहीं हो पाती। कालान्तर में कन्या परिवारों के लिए बोझिल और फलतः आंखों से ओझल होती चली गई। चूंकि वैदिक साहित्य का मूलभाव अध्यात्म एवं चेतना केन्द्रित है इसलिए कन्या विषयक दृष्टान्तों की बहुलता प्राप्त नहीं होती। किन्तु ईसाकाल के प्रारम्भ में हमारे धर्मशास्त्रों में इनका विस्तार से वर्णन हुआ है। कन्या के जन्म से लेकर लालन- पालन, विवाह सम्बन्धी अधिकार एवं कर्त्तव्य, विधवा धर्म, स्त्रियों के विशेषाधिकार, परदा प्रथा, नियोग आदि को लेकर विविध प्रकार की व्यवस्थाएं तथा नियम प्राप्त होते हैं। वर्तमान में इनमें से अधिकांश अप्रचलित एवं असंगत हो चुके हैं। अतः उस मध्यकालीन मानसिकता को समाप्त करना होगा।

अब उस परिपाटी को सदा के लिए विदा कर दिया जाना चाहिए जिसमें कन्या पराया धन होती थी, माता- पिता के लिए बोझ होती थी, अबला एवं दुर्बल कही जाती थी। वर्तमान युग में पुरुष के साथ प्रत्येक क्षेत्र में अपनी कुशलता एवं क्षमता सिद्ध कर रही कन्याओं ने यह साबित कर दिया है कि वे अपना ही धन हैं, पूर्ण  समर्थ और सशक्त हैं, सबला हैं।

संस्कृत साहित्य के मूर्धाभिषिक्त रचनाकार महाकवि कालिदास अपनी सभी रचनाओं में विलक्षण नारी पात्रों की रचना करते हैं। वे अपने समय से बहुत आगे आकर नारी की अस्मिता और स्वाभिमानिता की रक्षा करते हुए अविस्मरणीय उदाहरण उपस्थित करते हैं किन्तु एक जगह पिता के रूप में कन्या की रक्षा में किंचित व्यथित एवं चिन्तित कण्व के माध्यम से वे एक ऐसा वाक्य कह जाते हैं जो पढ़ते समय हर बार मेरे नारी मन को झकझोर जाता है, अस्वीकार्य लगता है। ^अभिज्ञानशाकुन्लम्^ के चौथे अंक का प्रसंग है। शकुन्तला की विदाई के बाद पुनः तपोवन की ओर लौटते महर्षि कण्व अचानक एक निश्चिन्तता का अनुभव करते हुए कहते हैं-

अर्थो हि कन्या परकीय एव

तामद्य सम्प्रेष्य परिग्रहीतुः।

जातो ममायं विशदः प्रकामं

प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा।।

क्योंकि कन्या पराया धन ही होती है इसलिए आज उसे पति के पास भेजकर मैं उसी प्रकार निश्चिन्त अनुभव कर रहा हूं जैसे कि मैंने किसी की धरोहर को उसे लौटा दिया हो।

 जीवन की कितनी बड़ी विडम्बना है कि विश्व की आधी जनसंख्या अनन्तकाल से अस्तित्व एवं स्वीकार्यता के संकट से ही लड़ रही है। पिता के घर जिसे ‘पराया धन‘माना जाता है वह विवाह के बाद भी ‘परायी जायी’  ही बनी रहती है। जो स्वयं अपनत्व का ‘उत्स’‘है जीवन भर वह उस ‘अपनेपन’‘की प्यासी रह जाती है । आज इक्कीसवीं शताब्दी में यह प्रश्न और अधिक महत्त्वपूर्ण एवं सामयिक हो गया है।

बहुत आशान्वित मन से मैं अपने परिवेश को देखती हुई उस समाज को साकार होता पाती हूं जिसमें कन्या को स्वधन माना जाएगा, धरोहर नहीं। साथ ही प्रत्येक पिता पूरे गर्व से उद्घोष कर सकेगा-

अर्थो हि कन्या स्वकीय एव।

डॉ. रेणुका राठौड़

उप निदेशक,

 भाषा विभाग

राजस्‍थान

Comments (3)

  1. Meenakshi Tanwar

    Very intense writeup.

    1. Yamini

      Such an appropriate write up . Doing full justice to the scenario.

  2. Pragya

    Very well written and to the point. Seems like it is coming from the core of your heart.

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