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दीपावली और उसकी लोकमान्यता

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दीपावली और उसकी लोकमान्यता

Deepawali

दीपपंक्तियों से सजे घर, बिजली की रोशनी से चमकते बाजार, पटाखे और आतिशबाजियाँ चलाते बच्चे और लक्ष्मी की पूजा करते श्रद्धालु लोग। यह है दिवाली के उत्सव की प्रतिमा, जो इस देश का राष्ट्रव्यापी उत्सव बन गया है। इसके पहले के 3 आयाम सामाजिक हैं, लक्ष्मीपूजन धार्मिक कृत्य है। शताब्दियों से यह समूचे देश में वर्ष का प्रमुख उत्सव बना हुआ है। गुजरात जैसे अनेक प्रदेशों में और देश के अनेक वर्गों में तो इसे नए साल की शुरुआत का पर्व माना जाने लगा है। इतिहास के झरोखे से झाँक कर देखें तो यह दिलचस्प निष्कर्ष निकलेगा, कि इस देश के अनेक त्यौहार- विशेषकर होली और दिवाली जैसे उत्सव, मूलतः सामाजिक उत्सव थे, उन्हें धार्मिक आवरण बहुत बाद में जाकर ओढ़ा दिया गया। जैसे होली बसंत के उल्लास और रंगों की बौछार का नागरिक उत्सव था और उसके साथ है प्रहलाद वाली धार्मिक कथा जो बाद में जोड़ दी गई उसी प्रकार मूलतः दिवाली भी शरद्काल का नागरिक आमोद-प्रमोद और सार्वजनिक हर्षोल्लास का पर्व था, जिसके साथ में न जाने लक्ष्मीपूजा की धार्मिक परंपरा कब आकर जुड़ गई। धार्मिक आवरण में सामाजिक कर्तव्यों का विधान इस देश की पुरानी पद्धति रही है।

दीपोत्सव :

साहित्य के प्राचीन स्रोतों की खोज की जाए तो विदित होगा कि शरद्काल का एक बहुत बड़ा पर्व दीपों के रूप में इस देश में दो-ढाई हजार वर्षों से मनाया जाता रहा है। वह किस दिन मनाया जाता था इस पर अनेक मत अवश्य हैं, पर यह शरद्काल का उत्सव होता था, इस पर सब एकमत हैं। प्राकृत के सुप्रसिद्ध लोककाव्य गाथा- सप्तशती में गांव की चौपालों पर और नगरों के चौराहे पर सजधज कर दीपपंक्तियाँ रखती हुई युवतियों का वर्णन मिलता है। इसका समय लगभग 2000 वर्ष पूर्व माना जाता है। लगभग इतना ही पुराना है वात्स्यायन का कामसूत्र जिसमें शरद्काल के दो उत्सव बताए गए हैं- कौमुदी-जागर और यक्षरात्रि। इन दोनों में नृत्य गीत और विभिन्न आमोद-प्रमोद के साधनों द्वारा नागरिक रात्रि भर खुशियाँ मनाते थे। लगता है यक्षसंस्कृति ने जो देश के उत्तरी भाग में बहुत समृद्ध और लोकप्रिय हो गई थी तथा जीवन के  उपभोग में विश्वास करती थी, इस देश में उत्सवों के नए कीर्तिमान बनाए थे। यक्षरात्रि उसी का अवशेष है। यह कार्तिक की अमावस्या को मनाई जाती थी, जब कि कौमुदी-जागर शरद् पूर्णिमा का उत्सव था। तब तक ये दोनों केवल सामाजिक पर्व थे। लक्ष्मीपूजा जैसीे धार्मिक विधियाँ इसके साथ जुड़ी हुई नहीं थी।
दीपोत्सव को दिवाली नाम देने का श्रेय अपभ्रंश के कवि अद्दहमाण (अब्दुर्रहमान) को जाता है जिसने अपने काव्य ‘संदेश-रासक’ में दिवाली के दिये रखती हुई युवतियों का अनूठा वर्णन किया है।सर्वप्रथम दिवाली शब्द शायद इसी अवसर पर लिखा मिलता है। यह काव्य कम से कम 800 वर्ष पुराना माना जाता है। इसमें भी सामाजिक आमोद-प्रमोद के प्रकाशपर्व के रूप में इसका वर्णन मिलता है।

इस देश में ध्वनि और प्रकाश दोनों प्रसन्नता और उल्लास के सूचक रहे हैं। खुशी के मौके पर दिये जलाए जाते हैं। घी का दिया जलाना प्रसन्नता का प्रतीक है जो इस मुहावरे में भी आज तक जीवित है। दीपक बुझाना,अंधकार, शोक और मायूसी का प्रतीक है। न जाने किस घड़ी में इस देश में भी केक काट कर और मोमबत्ती बुझा कर बच्चों का जन्मदिवस मनाने की कुप्रथा चल पड़ी अन्यथा हमारे यहाँ आरती उतार कर और दिया जला कर ही मंगलकार्य किया जाता है। शोक के अवसर पर दिया बुझाया जाता है, हर्ष के समय दिए जलाए जाते हैं। ऐसी ही परंपरा थी कौमुदी महोत्सव की जो शरद् पूर्णिमा को नावों पर दिये सजा कर नागरिकों द्वारा मनाया जाता था। चाणक्य और चंद्रगुप्त के समय जो कौमुदी महोत्सव हुआ था, वह आज भी साहित्य में जीवित है। मंगल का प्रतीक यह दीपक हजारों वर्षों से हमारी संस्कृति में जगमगा रहा है। आकाशदीप हमारे यहाँ का बहुत बड़ा सांस्कृतिक प्रतीक था, जिसका एक रूप आज भी धर्मशास्त्रों में मिलता है। उत्तर वैदिक काल में कन्या के सूर्य में (जिसे कनागत कहा जाता है) अर्थात् आश्विन कृष्णपक्ष में पूर्वज और पितरों का आह्वान करके ब्राह्मण भोजन द्वारा उन्हें तृप्त किया जाता है और कार्तिक में जब अपने लोकों को वापिस लौटते हैं, तो उन्हें मार्ग दिखाने के लिए उचित स्थानों पर आकाश में दीपक लटकाने का विधान शास्त्रों में मिलता है, जिसे आकाशदीप कहा जाता था। आकाशदीप और कौमुदी महोत्सव की दीपपंक्तियाँ शरदकाल की अगवानी की हमारी परंपरा थी, जिसका उत्तरदाय अधिकारी है दिवाली। 11वीं शताब्दी में भारत आए यात्री अलबरूनी ने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा (बलिपूजन की प्रतिपदा) को ऐसे ही दीपोत्सव का वर्णन किया है।

आतिशबाजी:

यह दीपोत्सव शरद्पूर्णिमा या बलिप्रतिपदा (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा) की बजाए अब कार्तिक अमावस्या को होने लगा है, पर है यह शरदकाल की अगवानी का ऋतुपर्व। इसके साथ पटाखे और आतिशबाजी कब से जुड़ी, इस पर विद्वानों ने बड़े शोध किए हैं। प्रकाश के साथ ध्वनि को भी उल्लास का प्रतीक माना गया है। हर्ष के समय घंटानाद करके, नगाड़े बजाकर या अन्य वाद्यों के साथ गाना उल्लास की अभिव्यक्ति करता है, जबकि मौन शौक और मायूसी की। आरती के साथ घंटे की ध्वनि जिस प्रकार हमारी संस्कृति में प्रसन्नता की सूचक है, उसी प्रकार विश्व के अनेक देशों में ये सब हर्ष के प्रतीक बन गए हैं। मुस्लिम संस्कृति में बंदूक दाग कर और पश्चिमी सभ्यता में भी पटाखे छोड़ कर खुशी मनाना सदियों से चला आ रहा है। क्रिसमस जैसे अवसरों पर तथा शादी-विवाह के समय पटाखे चलाने या खाली बंदूक दागने की परंपरा आज भी देखी जा सकती है जब से बारूद का आविष्कार हुआ और भारत में इसका प्रसार हुआ तब से पटाखे या बंदूक की ध्वनि यहाँ भी उनके साथ जुड़ती चली गई। सामंती परंपरा में अब तक शादी जैसे खुशी के अवसर पर ठाकुर और जमीदारों द्वारा खाली बंदूक दागी जाती थी। फुलझड़ियाँ, अनारें और हवाइयाँ जैसी अनेक आतिशबाजियाँ ध्वनि और प्रकाश दोनों बिखेरती हैं। रीतिकालीन ब्रज भाषा साहित्य में शताब्दियों से इसका वर्णन पाया जाता है।

सार्वजनिक प्रकाशव्यवस्था:

इसी क्रम में इस उत्सव पर ध्वनि और प्रकाश वर्षों से हर्ष और उल्लास के वाहक बने हुए हैं। धर्म ने उन्हें समाज के हित में अपनी व्यवस्थाएँ देते हुए धार्मिक कर्तव्यों के आवरण में इस प्रकार पिरो दिया, कि लक्ष्मी के स्वागत के लिए दीपक जलाना एक धार्मिक कृत्य बन गया है। विशेष उल्लेखनीय बात यह है, कि पुराणों और धर्मशास्त्रों ने इस उत्सव पर जो धार्मिक कार्य बताए, उनमें शरीर की शुद्धि के साथ-साथ घरों की शुद्धि तथा सार्वजनिक स्थानों और देवालयों पर दीप पंक्तियाँ रखना विशेषकर बाजारों को जिन्हें क्रय-विक्रय भूमि कहा गया है,दीपकों से सजाना प्रत्येक नागरिक का धार्मिक कर्तव्य बताया गया। यह माना जाता है कि लक्ष्मीपूजा की धार्मिक विधि और वैवाहिक – परंपराओं के समन्वय का वर्तमान स्वरूप 500 वर्षों से अधिक पुराना नहीं है। यही कारण है कि परवर्ती पुराणों में इस उत्सव के जो विधान मिलते हैं उनमें सांयकाल को लक्ष्मीपूजा के साथ साथ सार्वजनिक स्थानों पर प्रकाश व्यवस्था सामाजिक और धार्मिक कर्तव्य बताकर एक सार्वजनिक दायित्व को धार्मिक आवरण देने का प्रयत्न स्पष्ट परिलक्षित होता है। भविष्य पुराण में लिखा है कि चौराहों, बाजारों और देवालयों पर दीपवृक्ष सजाय जाएँ। अपने अपने घर की लिपाई-पुताई और सफाई के साथ साथ अभ्यंग (मालिश) और गर्म जल से स्नान के साथ शरीर की सफाई को जिस प्रकार धार्मिक कार्य बता दिया गया, उसी प्रकार उन स्थानों में प्रकाश करना, जो किसी की मिल्कियत नहीं है, किंतु सबके हैं, धार्मिक दायित्व बताया गया।

द्यूतक्रीडा:

इस प्रकार एक सामाजिक उत्सव को धार्मिक आवरण देकर जनमानस में कर्तव्य भावना को स्थायित्व देने की भारतीय परंपरा इस उत्सव में स्पष्ट परिलक्षित होती है। लक्ष्मी पूजा भी जो आश्विन में की जाती थी इसके साथ जोड़ दी गई और इसे लक्ष्मीजयंती बता दिया गया। द्यूतक्रीड़ा भी किसी रूप में आज तक इसके साथ जुड़ी हुई है, जिसके हानिकारक और अशोभनीय पक्ष सबके ध्यान में हैं। यह परंपरा कैसे चली इसकी खोज की जाए तो यह कटु सत्य उभरे बिना नहीं रहता, कि द्यूत की परंपरा हमारे यहाँ बहुत पुरानी है। इतनी पुरानी जितना कि वेद। वेदकाल में जो भी जुआ खेला जाता था। तभी तो वेद ने स्पष्ट शब्दों में इसका निषेध किया है- अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व (ऋग्वेद)।

जुआ खेलना अधर्म है क्योंकि यह अनुपार्जित धन है। ऐसा धन वर्जित है। उसके पीछे मत भागो, कृषि और श्रम से धन कमाओ। वेदों के बाद पुराण और धर्म-शास्त्रों भी इसका निषेध किया किंतु यह चलता ही रहा। ठीक उसी प्रकार जैसे आज सिगरेट के ऊपर “धूम्रपान हानिकारक है” छपा रहता है पर उनका चलन बढ़ता रहा है। नगर – जीवन में द्यूतक्रीड़ा प्राचीन काल में भी विलासी नागरिकों की एक कला मान ली गई थी। वात्स्यायन ने 64 कलाओं में इसे स्थान दिया और इसके 20 प्रकार बतलाए गए हैं। पासों,कौड़ियों, ताशों आदि अनेक वाहनों पर चढ़ कर यह कला बरकरार दौड़ती आ रही है। महाभारत का युद्ध और विनाश इस कला के ही करिश्मे थे। इसका निषेध और वर्जन बराबर होता रहा है, किंतु इस पर पूरी तरह रोक नहीं लग पाई। आज भी यह कला नाना रूपों में विचरण कर रही है। घुड़दौड़ों पर बाजी लगाना,लॉटरी के टिकट,शेयर बाजार का सट्टा, मटका और आँक लगाना, ब्रिज और पपलू खेलना,ये सब अभिजात वर्ग के विनोद और क्लबों के आभूषण क्या आज भी नहीं बने हुए हैं? समाज का यह रोग आदिम काल से आज तक चल रहा है। साहित्य में हर युग में इसका वर्णन पाया जाना इसके कालजयी होने का प्रमाण है। जब धर्म को यह लगा कि निषेध कर करके वह हार गया है और इसका उपचार नहीं हो पा रहा तो एक उपाय यह सोचा गया कि इसे धार्मिक पैकेज में परोसा जाए और एक दिन के लिए सीमित कर दिया जाए। पुराणों ने शिव पार्वती के खेल से इसकी उत्पत्ति बतायी और पार्वती का शाप दिलवा कर यह धारणा प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया कि द्यूतकला में पूरे वर्षभर भाग्य आजमाते रहने की जरूरत नहीं है केवल एक दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को जुआ खेला जाए। उस दिन जिसकी जीत होगी, साल भर उसे सफलता मिलती रहेगी। धर्मशास्त्रों में और प्राचीन ग्रंथों में दिवाली के दूसरे दिन की प्रतिपदा का नाम द्यूतप्रतिपद् मिलता है। शब्दकोषों में भी बलिप्रतिपदा और द्यूतप्रतिपदा नाम पाए जाते हैं। यह द्यूतक्रीड़ा बाद में एक दिन सरक कर दिवाली की रात को आ गई हो इसमें आश्चर्य नहीं। लगता है यह भी यक्ष संस्कृति के आमोद-प्रमोद का अवशेष है किंतु इस विकार को वर्ष में एक दिन तक ही सीमित कर दिया जाए, धर्मशास्त्रों का यहीं प्रयत्न इस दिन द्यूतक्रीडा के विधान में प्रतिबिंबित होता है।

आज हमारे सारे प्रमुख पर्व धार्मिक कर्तव्यों, सामाजिक दायित्व और वैज्ञानिक वांछनीयता तीनों की त्रिवेणी में नहा कर अनेक युगों की यात्रा के बाद एक कालजयी परंपरा के प्रतिनिधि हो गए हैं और जनजीवन में इतने गहरे घुल – मिल गए हैं, कि एक स्वच्छ दर्पण की तरह उनमें आप हमारे विकास की ओर हमारी मान्यताओं की छवि स्पष्ट देख सकते हैं। उनमें इतिहास की खोजबीन मनोरंजक हो सकती है, किंतु उनके स्वरूप का निर्धारण तो वह लोक – मानस करता है जिसकी थाह पाना आसान नहीं।

देवर्षि कलानाथ शास्त्री (राष्ट्रपति सम्मानित)

प्रधान सम्पादक “भारती” संस्कृत मासिक

पीठाचार्य, भाषामीमांसा एवं शास्त्र शोध पीठ-विश्वगुरुदीप आश्रम शोध संस्थान, जयपुर

पूर्व अध्यक्ष, राजस्थान संस्कृत अकादमी

आधुनिक संस्कृत पीठ- जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय


पूर्व निदेशक, संस्कृत शिक्षा एवं भाषा विभाग,राजस्थान सरकार
सदस्य- संस्कृत आयोग,
भारत सरकार

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