Blog

भगवान् धन्वन्तरि का आविर्भाव

ब्लॉग

भगवान् धन्वन्तरि का आविर्भाव

भारतवर्ष में चिकित्सा के क्षेत्र में भगवान् धन्वन्तरि का आविर्भाव एक विशेष घटना है, महाभारत में, विष्णुपुराण में, भागवत-पुराण में, वायु-पुराण में एवं अग्नि-पुराण में समुद्रमन्थन से भगवान् धन्वन्तरि का आविर्भाव निर्दिष्ट किया गया है, इनके मूल हेतुत्व में थोड़ा-थोड़ा अंतर है, लेकिन आविर्भाव सभी ने समुद्रमन्थन से स्वीकार किया है, जबकि वेदों में एवं ब्राह्मण- ग्रन्थों में भगवान् धन्वन्तरि का उल्लेख नहीं है । विष्णुपुराण में इनके वंश का निर्देश भी है, जिसमें कहा गया है कि काश काशी के संस्थापक राजा थे, यद्यपि श्रीमद्भागवतपुराण में इनके वंश के पूर्वजों का उल्लेख भी मिलता है जिनमें वंश कोक्षत्रवृद्ध से प्रारम्भ किया गया है,लेकिन सब पुराणों मेंवंशावली में  थोड़ा बहुत अन्तर है ।

हरिवंशपुराण में कही गई वंशावली को प्रायः ज्यादा स्वीकार किया जाता है, जिसमें काश, दीर्घतपा, धन्व,  धन्वन्तरि, केतुमान्, भीमरथ एवं दिवोदास यह क्रम निर्दिष्ट किया गया है। सुश्रुतसंहिता के उपदेष्टा काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि ही थे ।यह स्पष्ट है कि  समुद्रमन्थन में आविर्भूत भगवान् धन्वन्तरि एवं इन की चौथी पीढ़ी में उत्पन्न तथा इन्हीं की संपूर्ण चिकित्सकीय विशेषताओं से युक्त शल्यविशेषज्ञ उपदेष्टा राजर्षि काशिराज धन्वन्तरि दो अलग-अलग विभूतियाँ हैं । धन्वन्तरि-त्रयोदशी को हम समुद्रमन्थन से आविर्भूत भगवान् धन्वन्तरि की पूजा करते हैं और सुश्रुतसंहिता के उपदेष्टादिवोदास धन्वन्तरि को भी नमन करते हैं, जिन्हें कि सुश्रुतसंहिता में भगवान् धन्वन्तरि ही कहा गया है, इन्हें आदिदेव भगवान् धन्वन्तरि का ही पुनर्जन्म स्वरूप माना गया है, इस तरह के वचन सुश्रुतसंहिता में भी कहे गए हैं, जहां उपदेश देते समय दिवोदास धन्वन्तरि स्वयं कह रहे हैं

 कि

अहंहिधन्वन्तरिरादिदेवो,

जरारुजामृत्युहरोऽमराणाम्|
शल्याङ्गमङ्गैरपरैरुपेतं

प्राप्तोऽस्मिगांभूयइहोपदेष्टुम् ||

(सुश्रुतसंहिता)

अतः धन्वन्तरित्रयोदशी को आदिदेव भगवान् धन्वन्तरि एवं उपदेष्टा भगवान् धन्वन्तरि का स्वरूप एकाकार मानकर ही पूजा की जाती है ।

यहाँयह उल्लेखनीय है कि कोशल एवं मगध इन दोनों राज्यों के बीच में काशी राज्य था । प्राचीन काल में ये तीनों राज्य मिलकर मध्यदेश कहे जाते थे । काशी एक स्वतन्त्र राष्ट्र था और यहाँके  महाराज काश थे, इनके पुत्र धन्व हुए, धन्व के पुत्र रूप में धन्वन्तरि ने जन्म लिया जो बाद में अपने श्रेष्ठ चिकित्सकीय कार्यों के कारण भगवान् धन्वन्तरि कहलाए । हरिवंशपुराण में यह कहा गया है कि भगवान् धन्वन्तरि के प्रपौत्र दिवोदास  हुए, दिवोदास  के समय में ही वाराणसी पर आक्रमण होने से यह उजड़ गई थी (शून्य हो गई थी), जिसे दिवोदास  के पुत्र प्रतर्दन के पुत्र अलर्कने पुनः व्यवस्थित किया । 

महाभारत के अनुशासनपर्व में यह स्पष्ट लिखा गया है कि वाराणसी का निर्माण दिवोदास ने किया, महाभारत में ही यह भी कहा गया है कि वाराणसी पर दिवोदास  के समय में  हैहय राजाओं ने आक्रमण कर इसे उजाड़ दिया था । पराजित राजा दिवोदास  भरद्वाज की शरण में चले गए थे और वहीं पर रहकर उन्होंने अपने ज्ञान का प्रसार किया, सुश्रुतसंहिता में इसे दूसरे ढंग से वर्णित करते हुए दिवोदास  को आश्रमस्थ कहा है । हरिवंशपुराण में यह भी कहा गया है कि भगवान् धन्वन्तरि ने आयुर्वेदविद्या महर्षि भरद्वाज से ही ग्रहण की थी तथा इनकी वंशपरंपरा में ही दिवोदास उत्पन्न हुए,वे भी भरद्वाज के आश्रम में ही आकर रहे तथा बाद में ये दिवोदास धन्वन्तरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । निरुक्ति के आधार पर धन्वन्तरि का अर्थ शल्यशास्त्रविशेषज्ञ किया गया है, यथा-

धनुःशल्यशास्त्रं,तस्यअन्तंपारम्इयर्तिगच्छतीतिधन्वन्तरिः“।(डल्हण)

काशी के निकट ही वाराणसी को बसाने वाले दिवोदास धन्वन्तरि थे ।“वरुणा” और “असी” नाम की दो नदियों के बीच में यह नगर बसाया गया था, इसलिए इसका नाम वाराणसी पड़ा। महाभारत के अनुसार वाराणसी की स्थापना करने वाले दिवोदास  धन्वन्तरि थे, लेकिन हरिवंशपुराण का मानना है कि वाराणसी पहले से ही बसी हुई थी, इसे आबाद दिवोदास  धन्वन्तरि ने किया ।

काशी और वाराणसी दो पृथक्-पृथक् नगर थे। पुरानी राजधानी काशी थी जहां दिवोदास  का राज्याभिषेक हुआ, लेकिन नई राजधानी उन्होंने वाराणसी को बनाया ।काशी एक राज्य था तथा इसकी राजधानी भी काशी ही थी ।कठोपनिषद् में नचिकेता के पिता का नाम आरुणि दिया गया है ।काठकसंहिता में दिवोदास  और आरुणि का संवाद है, इस से यह सिद्ध होता है कि उपनिषद् काल से पूर्व भगवान् धन्वन्तरि और दिवोदासधन्वन्तरि  हो चुके थे । स्वर्ग में अमृत का प्रयोग जानने वालों में अश्विनीकुमार थे, जबकि पृथ्वी पर अमृत का प्रयोग जानने वाले भगवान् धन्वन्तरि ही थे।  सुश्रुतसंहिता में 24 प्रकार के सोम का उल्लेख है जो अमृत के अनुरूप ही गुणों को प्रदान करने वाले माने गए हैं ।

भगवान् धन्वन्तरि के आविर्भाव की अनेक प्रकार की कथाएं प्रचलित हैं, इनमें समुद्रमन्थन से 14 रत्नों के साथ इनका आविर्भाव सर्वप्रसिद्ध है, यह समुद्रमन्थन एक विशिष्ट परिकल्पना है या घटना है । दैत्य और देव एक ही पिता की सन्तान थे। इनके पिता प्रजापति थे जिनकी दो पत्नियां थीं- दिति एवं अदिति । छांदोग्य उपनिषद् में उल्लेख है कि देव और असुर दोनों ही प्रजापति की संतान थे-  “देवासुरा ह वै यत्र संयेतिरे उभये प्राजापत्याः”

ईशावास्योपनिषद् में स्पष्ट लिखा है कि असुर ज्येष्ठ थे एवं देव कनिष्ठ थे-

द्वया ह प्राजापत्या देवाश्चासुराश्च। ततः कनीयसा एव देवा ज्यायसा असुराः….ईशावास्योपनिषद्

एक ही पिता की सन्तान होते हुए भी इन में परस्पर द्वेष रहता था, अतः इनमें निरन्तर  युद्ध होते थे । देव कर्तव्यपरायण थे और असुर भोगवादी थे, देव अर्जन करते थे और श्रम में विश्वास रखते थे, इनमें बुद्धिबल अधिक था जबकि असुरों में बाहुबल अधिक थाऔर वेधर्षण (आक्रमण, अत्याचार)में अधिक विश्वास रखते थे। भागवत-पुराण की कथा के अनुसार देवताओं एवं दैत्यों ने क्षीरसागर का मन्थन किया, मंदराचल पर्वत को मथानी तथा नागराज वासुकी को नेति बनाकर समुद्र का मन्थन किया गया, जिसमें  पूँछ की ओर से देवताओं ने वासुकी को पकड़ रखा था और मुख की ओर से दैत्यों ने पकड़ कर मन्थन किया । इस मन्थन में निम्नलिखित14 रत्न प्राप्त हुए –

 विष, कामधेनु गाय, उच्चैःश्रवा घोडा, ऐरावत हाथी,कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष,अप्सरा (रम्भा), माता लक्ष्मी, वारुणी (मदिरा),चंद्रमा,पारिजात,पाञ्चजन्य शंख, अमृतकलश, भगवान् धन्वन्तरि ।

भगवान् धन्वन्तरि को विष्णु का अवतार माना गया है । पूर्ण श्रद्धा एवं निष्ठापूर्वक धन्वन्तरि-त्रयोदशी (धनतेरस) के दिन हम स्वास्थ्य के इस देवता का पूजन कर अपने आप को धन्य समझते हैं एवं स्वास्थ्यसंरक्षण स्वरूपक प्राणैषणा एवं जीवनयापनार्थ धनैषणा की पूर्ति के लिए सन्नद्ध होते हैं, जिससे कि परलोकैषणा की प्राप्ति का मार्ग योग एवं मोक्ष की प्राप्तिपूर्वक सुगम हो सके ।

भगवान् धन्वन्तरि का आविर्भाव पुराणों में जिस प्रकार से निर्दिष्ट है वह आलङ्कारिक काव्यमय रूप है इसमें यथार्थ को खोजना एवं व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करना उपयुक्त है । यह सत्य है कि भगवान् धन्वन्तरि का आविर्भाव दैवीय चमत्कार है,उनके द्वारा किए गए प्रयोग एवं उपचार नितान्त व्यावहारिक हैं तथा परम्परागत रूप से आज भी प्रचलित हैं । उनके द्वारा स्थापित सिद्धान्त सर्वकालिक हैं । पौराणिक दैवीय चमत्कारिक वर्णन के अनुरूप भगवान् धन्वन्तरि को समुद्रमन्थन से आविर्भूत मान कर उनकी पूजा करते आए हैं ।

इसी वर्णन को यदि व्यावहारिकता की दृष्टि से देखा जाए तो भी भगवान् धन्वन्तरि के आविर्भाव में किसी भी प्रकार का संशय एवं अनौचित्य दिखाई नहीं देता । वेद के मर्मज्ञ विद्वान् स्व. पंडित मधुसूदन जी ओझा ने अपनी इन्द्रविजय नामक पुस्तक में स्वर्ग और असुरलोक की सीमाओं को भी इसी पृथ्वी पर स्पष्ट निर्दिष्ट किया गया है। उन्होंने स्वर्ग को दो प्रकार सेस्वीकृत किया है- आध्यात्मिक एवं भौगोलिक । यहां इतना ही कहना पर्याप्त है, इसका विस्तृत स्वरूप उस इन्द्रविजय नामकग्रन्थ में देखा जा सकता है । देवों और असुरों में प्रायः युद्ध हुआ करते थे ।“इन्द्रविजय” नामक ग्रन्थ में 12 देवासुरसंग्राम निर्दिष्ट हैं, इनमें आडीबक, कोलाहल,हालाहल और समुद्रमन्थन ये चार प्रमुख महासंग्राम हैं तथा इनके अतिरिक्त 8 और संग्राम हैं जो इन से कम भयङ्कर थे । उनके नाम हैं-त्रैपुर, मान्धक, तारक के साथ युद्ध, वृत्रासुर के साथ युद्ध, ध्वजयुद्ध, बलिबंध, हिरण्याक्ष के साथ युद्ध और हिरण्यकशिपु के साथ युद्ध ।

इसी प्रसङ्ग में व्यावहारिक स्वरूप यह देखा जा सकता है कि समुद्रमन्थन नाम का एक महान् युद्ध हुआ जिसमें अन्त में सन्धिस्वरूपक वैचारिक मन्थन हुआ, जिसमें  असुरों की प्रमुख माँग थी कि अमृत उन्हें दिया जाए,जबकि देव उन्हें अमृत देना नहीं चाहते थे, इस अमृत के निर्माण को स्वर्ग में अश्विनीकुमार जानते थे और पृथ्वी पर केवल भगवान् धन्वन्तरि ही इसका प्रयोग जानते थे। देवों की तरफ से भगवान् शंकर ने विषपान किया एवं अन्य रत्न भी देवों को ही समर्पित किए गए तथा असुरों को केवल वारुणीतथा उच्चैःश्रवा प्राप्त हुए । सम्भव है कि असुरों ने इसके स्थान पर अतिरिक्त भू भाग को लेकर अपने आप को सन्तुष्ट कर लिया होगा ।

देवासुरसंग्राम के बाद जो सन्धिवार्ता हुई उसके प्रमुख सूत्रधार भगवान् धन्वन्तरि को माना जाना चाहिए, क्योंकि मुख्य लड़ाई अमृतप्राप्ति की थी और अमृत का निर्माण केवल भगवान् धन्वन्तरि ही जानते थे, अतः इस प्रकार से व्यावहारिक स्वरूप में भगवान् धन्वन्तरि का आविर्भाव स्वीकार किया जा सकता है । दैवीय स्वरूप में समुद्रमन्थन से भगवान् धन्वन्तरि का आविर्भाव मानकर हमभगवान् धन्वन्तरि की पूजा करते हैं, यह एक उत्कृष्टतम स्वरूप है तथा श्रद्धा का विषय भी है, इसी को यदि हम व्यावहारिक स्वरूप में समुद्रमन्थन को एक युद्ध मानकर सन्धिवार्ता में प्रमुख महत्त्वपूर्ण आविर्भाव भगवान्धन्वन्तरि का मान कर उनको उस रूप में भी देवत्व भाव में स्वीकार कर पूजा करें तो यह भी उपयुक्त है । धन्वन्तरि-त्रयोदशी के दिन इन दोनों ही प्रकार के भावों से पूर्णरूपेण पूजायोग्य भगवान् धन्वन्तरि को पुनः पुनः नमन ।

आविर्बभूव कलशं दधदर्णवाद्यः

पीयूषपूर्णममरत्वकृते सुराणाम् ।

रुग्जालजीर्णजनताजनितः प्रशंसो

धन्वन्तरिः स भगवान् भविकाय भूयात् ॥

प्रो.बनवारी लाल गौड़ (म.म.राष्ट्रपति-सम्मानित)

पूर्व-कुलपति,

 डॉ. एस. आर. राजस्थान आयुर्वेद विश्वविद्यालय,

 जोधपुर

Comments (17)

  1. Dr. Manoj Kumar Sharma

    This is very knowledgeable and inspiring blog about our strong cultural heritage as well as about Bhagwan Dhanwantri ji.
    My best wishes to all the Indians on this occasion.
    Guruji Gour sahab ko Pranam
    Regards
    Dr. Manoj

  2. Dr Manoj Adlakha

    Very knowledgeable

  3. Lalit kishor maharshi

    Great though, great knowledge

  4. प्रोफेसर गिरिराज शर्मा

    बहुत ही ज्ञान वर्धक एवं शास्त्र सम्मत लेखन
    सादर नमन

  5. वैद्य आशीष

    प्रणाम गुरुदेव,चरण स्पर्श,आपके द्वारा किया गया कठिन परिश्रम हमें बहुत प्रेरणा एवं सकारात्मक नजरिया प्रदान करता है,ईश्वर आपको लगातार ऊर्जा प्रदान करे जिससे हम सबको आपके द्वारा मार्गदर्शन/ज्ञान/आशीर्वाद प्राप्त होता रहे।🙏🙏🙂🌺

  6. Dr surendra sharma

    ये लेख नही ज्ञान का महासागर है।

  7. Dr Dharmendra Sharma

    परम आदरणीय गुरू जी का ये लेख हमेशा की तरह अत्यंत ज्ञान वर्धक है।

  8. Dr L L Ahirwal

    Very nice ati ghayan bardhak

  9. Dr. R.N.sharma

    Jai ho Bhagwan Dhanvantari ji ki ,Guru ji ko Naman,Sunder, Atisunder varnan hai 🌹🌹🙏👍🙏🙏🌹🌹

  10. Dr. Devendra chahar

    Pranam gurujii, sadar charan sparsh.
    Gurujii aapka lekhan surprised karane wala h.

  11. वैद्यराज सुभाष शर्मा, दिल्ली

    आज इस पवित्र पावन अत्यन्त शुभ दिवस धन्वन्तरि जयन्ती पर परम आदरणीय आयुर्वेद के प्रकाण्ड विद्वान प्रो.बनवारी लाल गौड़ जी का सशक्त,ज्ञान से परिपूर्ण एवं सारगर्भित लेखन समस्त आयुर्वेद जगत के लिये किसी प्रसाद से कम नही ‘अहंहिधन्वन्तरिरादिदेवो,जरारुजामृत्युहरोऽमराणाम्|
    शल्याङ्गमङ्गैरपरैरुपेतं प्राप्तोऽस्मिगांभूयइहोपदेष्टुम् ‘ ‘(सुश्रुतसंहिता) – यह सूत्र स्थान का 19 वां सूत्र आज इस दिवस का महत्व सिद्ध करता है।भगवान् धन्वन्तरि के स्वरूप को जिस प्रकार प्रकाशित किया उसके लिये शत् शत् नमन ।

  12. Arun Kumar

    उत्कृष्ट आलेख।🌹🙏🙏

  13. Dr. R.N.sharma

    Jai ho Bhagwan Dhanvantari ji ki ,Guru ji ko Naman,Sunder, Atisunder 🌹
    varnan hai 🌹🌹🙏👍🙏🙏🌹🌹

  14. Dr Aruna

    So kind of you sir to share this very valuable information with us. I am great full 🙏

    1. P C Mangal

      Every persons of of ayurveda should know about deep history of lord Dhanvantari

  15. Ramteerth

    दुर्लभ,अद्वितीय, विलक्षण, श्रेष्ठ लेख।जय गुरुदेव।।

  16. Dr Srikanth K

    As usual the article showcases & authenticates the richness of Guruji’s Knowledge🙏🏼🙏🏼

Leave your thought here

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Select the fields to be shown. Others will be hidden. Drag and drop to rearrange the order.
  • Image
  • SKU
  • Rating
  • Price
  • Stock
  • Availability
  • Add to cart
  • Description
  • Content
  • Weight
  • Dimensions
  • Additional information
Click outside to hide the comparison bar
Compare
Alert: You are not allowed to copy content or view source !!