संस्कृत साहित्य में पिता की महनीयता
June 18, 2021 2021-06-18 21:05संस्कृत साहित्य में पिता की महनीयता

- वैदिक साहित्य में जो पितृ-सूक्त प्राप्त होते हैं वे पितरों के सन्दर्भ में ही घटित होते हैं। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में ऐसे ही पितृ-सूक्तों का प्रस› प्राप्त होता है। परन्तु इसके अतिरिक्त लोक में पिता-पुत्र सम्बन्ध को रेखांकित करने वाला कोई स्वतन्त्र सूक्त तो प्राप्त नहीं होता। लेकिन अनेक सूक्तों में तत्तत् देवविशेष के लिए पिता का उपमान प्रस्तुत कर उससे पवित्र एवं घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने वाले प्रस› बहुत रोचक हैं –
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त में अग्नि से प्रार्थना करते हुए मधुच्छन्दा ऋषि कहते हैं –
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये।। – ऋग्वेद 1/1/9
आचार्य गोविन्दचन्द्र पाण्डेय इसका अनुवाद करते हुए कहते हैं –
अग्नि तुम हमारे लिए सुगम बनो, जैसे पिता पुत्र के लिए।
हमारा साथ दो स्वस्ति के लिए।
अग्नि को उसका उपासक एक घनिष्ठ निजी सम्बन्ध के रूप में देखता है। पिता अपने पुत्र के लिए जिस प्रकार सूपायन होता है, वह येन-केन-प्रकारेण सन्तान के लिए भरण-पोषण सम्बन्धी सामग्रियों का चयन करता है तथा उपलब्ध करवाकर ‘स्वान्तःसुखानुभूति’ से आनन्दित होता है, उसी प्रकार हे अग्निदेवता! आप हमारे पिता बनें और हम आपकी सन्तान का गौरव धरें। यह देवता के प्रति एक अद्भुत प्रार्थना है।
ऋग्वेद में जब भी अग्नि के साथ यजमान सम्बन्ध स्थापित करता है तो पुत्र एवं पिता का ही मुख्य सम्बन्ध स्थापित करता है –
आ हि ष्मा सूनवा पितापिर्यजत्यापये।
सखा सख्ये वरेण्यः।। – 1/26/3
पुत्र के लिए पिता यजनकर्ता सगे के लिए सगा
वरणीय सखा, सखा के लिए।
त्वमग्ने प्रमतिस्त्वं पितासि नस्त्वं वयस्कृन्तवं जामयो वयम्। – 1/31/10
हे अग्नि! सदयमति हो, तुम पिता हो हमारे, तुम सुखकारी हो, तुम्हारे सगे हैं।
इसी सूक्त में ऋषि हिरण्यस्तूप कहते हैं कि हे अग्नि! प्राणियों में प्रथम प्राणी तुमको देवताओं में मनुष्यों का राजा बनाया। इळा को उन्होंने मनुष्य का शासक बनाया। जब पिता ही पुत्र के रूप में स्वयं जन्म लेता है।
पितुर्यत्पुत्रो समकस्य जायते। 1/31/11
2. आदिकाव्य रामायण संस्कृत के लौकिक साहित्य का प्रस्थान बिन्दु है। इस काव्य में पितृमहिमा का उदात्त वर्णन प्राप्त होता है। कैकेयी के समक्ष राम ने पिता के आज्ञापालन को ही पुत्र का प्रथम धर्म बताया है –
न ह्यतो धर्माचरणं कि॰िचदस्ति महत्तरम्।
यथा पितृशुश्रूषा तस्य वा वचनं क्रिया।।
– वा.रा. अयोध्याकाण्ड 19/22
पिता की सेवा अथवा उनका आज्ञापालन और इससे बढ़कर अन्य कोई धर्माचरण नहीं है। रामायण में तो पिता को पुत्र का प्रभु कहा गया है। वह सबसे बड़ा देवता है। वह जिसे पुत्र को दे देता है वही उसका स्वामी हो जाता है –
पिता हि प्रभुरस्माकम् दैवतं परमं च सः।
यस्य नो दास्यति पिता स नो भर्ता भविष्यति।।
– वा.रा. बालकाण्ड 32/22
रामायण के किष्किंधा काण्ड में पिता तथा पितृतुल्य जनों को धर्ममार्ग में स्थित होने के कारण पितृसंज्ञा से विभूषित किया गया।
ज्येष्ठो भ्राता पिता वाऽपि यश्च विद्यां प्रयच्छति।
त्रयस्ते पितरो ज्ञेया धर्मे च पथि वर्तिनः।।
– वा.रा. किष्किन्धाकाण्ड, 18/13
महाभारत के वनपर्व में यक्ष के प्रश्न का उत्तर देते हुए युधिष्ठिर पिता का स्थान आकाश से भी ऊँचा बताते हैं –
माता गुरुतरा भूमिः
पिता उच्चतरं च खात्।
महाकवि कालिदास ने पिता की भूमिकाओं का अनेकधा निरूपण किया है। कवि पिता की परिभाषा को निरूपित करता है राजा दिलीप के प्रजापालन कौशल के परिप्रेक्ष्य में –
प्रजानां विनयाधानाद्रक्षणाद्भरणादपि।
स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः।।
राजा दिलीप प्रजाओं में विनय का आधान करने से, रक्षण तथा भरण-पोषण करने से उनके पिता हो गये। प्रजाओं के पिता तो केवल जन्म के हेतुमात्र थे। महाकवि कालिदास ने प्रकारान्तर से पिता का लक्षण ही निरूपित कर दिया। भरण-पोषण, रक्षण तथा सदाचार-संक्रान्ति – ये पिता के कत्र्तव्य हैं। इसमें भी भरण-पोषण के साथ विनयाधान बहुत महत्त्वपूर्ण घटक है। जन्म-प्रदान करना मात्र ही पितृत्व नहीं है। अपितु पितृत्व में संरक्षकत्व तथा विनयाधान अन्तर्निहित हैं। यह लक्षण जिस पर भी पूर्ण रूप से घटित हो जाये वह पितृपद का अधिकारी होगा तदितर नहीं।
रघुवंश में राजा दिलीप और महारानी सुदक्षिणा के संतान न होने के कारण गुरु वशिष्ठ के आश्रम जाकर उनसे उपाय पूछना तथा तदनन्तर कठोर तपस्या के आचरण से रघु का जन्म – रघु ने उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम के सारे राजाओं को अपने तेज से पराजित कर दिया – यह वस्तुतः उसके माता-पिता की साधना का ही फल था। महाकवि कालिदास ने बहुत कुशलता से यह प्रदर्शित किया है कि कठिन तपस्या के बिना किसी महान् फल को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। पितृतपस्या का फल रघु के रूप में सुफलित होना वस्तुतः पितृ-आचरण की उदात्तता का द्योतक है और रघु के द्वारा जिस पराक्रम का प्रदर्शन किया गया, वह भी पितृ-ऋण से उऋणता का उत्तम निदर्शन है।
‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नामक नाटक में पिता की भूमिका में दो पात्र पृथक्-पृथक् रूप से परिलक्षित होते हैं – 1. महर्षिकण्व और 2. राजा दुष्यन्त।
महर्षिकण्व शकुन्तला के तात हैं क्योंकि उन्होंने वन में शकुन्तों से अभिरक्षित कन्या (शकुन्तला) को आश्रम में पुत्रीवत् पाला था। शकुन्तला के प्रति एक वनवासी आश्रमवासी कुलपति का पितृवत् नैसर्गिक स्नेह वस्तुतः ध्यातव्य है। शकुन्तला के विपरीत भाग्य के शमनार्थ कण्व का सोमतीर्थ जाना, दुष्यन्त से गान्धर्व-विवाह करने वाली शकुन्तला को अनुमत करना तथा उसकी विदाई-वेला में पिता के हृदय का उत्कण्ठा से भर जाना, कण्ठ का स्तम्भितवाष्पवृत्ति हो जाना, स्नेह के वशीभूत वनौकस का वैकलव्य महाकवि कालिदास की लेखनी का स्पर्श पाकर अनिर्वचनीय हो गया है।
महाकवि कालिदास ने पिता का जो लक्षण रघुवंश में दिया वह अभिज्ञानशाकुन्तलम् में भी मानो संक्रान्त हो गया है। यह पितृलक्षण अन्वय तथा व्यतिरेक से घटित हुआ है। यह भी आश्चर्य है कि कण्व तो जन्म देने वाले नहीं ये तथापि पितृकर्तव्य-निर्वाह के कारण ‘तात पदवाच्यता’ को प्राप्त हुए। उन्होंने अद्भुतरीत्या पिता की भूमिका को विशद परिप्रेक्ष्य में सफलता से सम्पन्न किया जबकि दुष्यन्त सर्वदमन (भरत) को जन्म देने का हेतु होने पर भी पिता के पद से चिरकाल तक विस्थापित ही रहे। पश्चात्ताप तथा तपस्या की अग्नि में दग्ध होने के पश्चात् ही वे पुत्र को प्राप्त कर पिता के महनीय पद के सौभाग्य से गौरवान्वित हुए। उनकी अनपत्यता (सन्तानहीनता) की तीव्र वेधकता का बहुत सुन्दर वर्णन अभिज्ञानशाकुन्तलम् में प्राप्त होता है-
आलक्ष्यदन्तमुकुलाननिमित्तहासैः
अव्यक्तवर्णरमणीयवचः प्रवृत्तीन्।
अंकाश्रयप्रणयिनस्तनयान्वहन्ती
धन्यास्तद›रजसा मलिनीभवन्ति।। -अभिज्ञानशाकुन्तलम् 7/7
‘धन्यास्तद›रजसा मलिनीभवन्ति’ में दुष्यन्त की पितृहृदयस्थ संतान की लालसा अभिव्य॰िजत होती है। दुष्यन्त निस्संतान हैं, उनके अंग किसी शिशु के धूलधूसरित अंगों के स्पर्श से मलिन नहीं हुए हैं। वे राज-ऐश्वर्य पाकर भी स्वयं को धन्य नहीं मानते प्रत्युत उस व्यक्ति को धन्य मानते हैं जिसके अंग संतान की अंगरज से मलिन होते हैं। पिता का संतान के प्रति जो उत्तरदायित्व है, वही उसको एक उत्तेजक युवा से धीर-गम्भीर गृहस्थ तथा पिता रूप उदात्त राजसिंहासन पर अलंकृत अथवा अभिषिक्त करता है।
प्प्प्ण् पण्डिता क्षमाराव के द्वारा पिता शšर पाण्डुरंग की जीवनी: शšरजीवनाख्यानम् –
समकालीन संस्कृत साहित्य में सम्भवतः यह प्रथम जीवनीग्रन्थ है। पण्डिता क्षमाराव 3 वर्ष की थीं जब उनके पिता का देहान्त हो गया था। अपनी माता से पिता के वृत्तान्तों को सुनकर क्षमाराव ने यह जीवनी लेखन कार्य किया।
नृसिंहशर्मा केलकर ने ‘शšरजीवनाख्यानम्’ के प्रस्ताव में बहुत मार्मिक टिप्पणी करते हुए कहा –
कथं हि न करिष्यन्ति कन्याभ्यः पितरः स्पृहाम्।
ऋणं तत्पैतृकं पुण्यमपाकुर्युर्यदीह ताः।।
– शšरजीवनाख्यानम्, प्रस्ताव, पृ. 5
पिता पुत्रियों की स्पृहा क्यों नहीं करेंगे। वे पुत्रियाँ भी पुण्य पितृऋण को उतारने में पूर्ण रूप से समर्थ होती हैं।
शैशवावस्था में पितृसुख से वंचित पुत्री जीवनी लेखन में कैसे समर्थ हो सकती है? इस सम्भावित जिज्ञासा का प्रत्युत्तर देते पं. क्षमा ने कहा –
अदृष्टपितृसौख्यायाः शैशवादपि या मम।
जनकस्थानमापन्ना स्वयं बोधमजीजनत्।
कथयन्ती च या नित्यं पितृसम्बन्धिनीः कथा।
हृदि प्रेमाšुरं देववाण्यां मे समरोपयत्।
तस्यै श्रीमदुषादेव्यै कृतिं शान्तात्मने मुदा।
उषश्शोभातिशायिन्यै मातृदेव्यै समर्पये।।
– शšरजीवनाख्यानम् – ग्रन्थार्पणम्
यह जीवनी सप्तदष (17) उल्लासों में विभाजित है। यह 840 अनुष्टुप् छन्दों में निबद्ध है। पिता के जीवन-संघर्षों से उद्भूत दर्षन को क्षमा ने सूक्तियों के रूप में उकेरा है-
आत्मनोऽपि वरं भ›ो न पुनः षिरसो नतिः।
– शšरजीवनाख्यानम्, पृ. 7, श्लोक 80
पण्डिता क्षमा पौराणिकता तथा सनातनता के समन्वय की पक्षधर रहीं। यह भाव उनको अपने पिता से प्राप्त हुआ था। उत्तम तथा उदात्त चरित्र के धनी शšर पाण्डुरंग के चारित्रिक गुणों की संक्रान्ति पुत्री क्षमा में भी स्पष्टतया परिलक्षित होती है –
चरित्रं शšरस्यैतत् प्रयागसदृषः शुचिः।
स›मो रुचिरः सोऽत्र प्राच्यपाष्चात्यविधयोः।।
– शšरजीवनाख्यानम्, 4/31, पृ. 39
पण्डिता क्षमाराव ने अपने पिता के शुद्धात्मत्व से कदापि च्युत न होने वाले व्यक्तित्व के लिए कहा –
अनाश्रयोऽपि लोकेऽस्मिन् शुद्धात्मा न निरस्यते।
– शšरजीवनाख्यानम्, पृ. 154
जो व्यक्ति परिस्थितियों के व्याज से अपनी भावषबलता को सुरक्षित करने का प्रयास करते हैं उनके लिए पण्डिता क्षमा ने यह सूक्ति गढ़ी है। शुद्धात्मा अर्थात् पवित्र संकल्प वाला और पवित्र आचरण वाला व्यक्ति लोक में अनाश्रित होता हुआ भी कभी नष्ट नहीं होता है। वैदिक तथा औपनिषदिक सूत्रों को क्षमा ने अपने पिता के चरित्र में चरितार्थ होते हुए पाया –
नानृतं प्रभवेदन्ते सत्यस्यैव ध्रुवो जयः।
इत्यात्मचरितेनैव शšरेण निदर्शितम्।
– शšरजीवनाख्यानम्, पृ. 116
अनृत अर्थात् असत्य अन्त तक प्रवृत्त नहीं हो सकता। निश्चित रूप से सत्य की ही विजय होती है। यह सिद्धान्त क्षमा के पिता ने अपने चरित से ही व्याख्यायित कर दिया था।
क्षमा के पिता शšर पाण्डुरंग तथा पण्डिता क्षमा परस्पर अभिस्तव के अधिकारी हैं –
कृतिनं पण्डितं मन्ये यस्य कन्या क्षमासमा।
क्षमापि कृतिनी नूनं शšराल्लब्धसम्भवा।।
– शšरजीवनाख्यानम्, प्रस्तावना, पृ. 2
नृसिंह केलकर कहते हैं कि मैं शšर पाण्डुरंग को धन्य मानता हूँ कि उनकी पुत्री क्षमा जैसी मनस्विनी है। क्षमा को भी धन्य मानता हूँ कि उन्होंने शšर से जन्म लिया है।
डॉ. सरोज कौशल
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष संस्कृत-विभाग,
जयनारायण व्यास वि.वि., जोधपुर
bZesy&saroj.kaushal64@gmail.com
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Comments (25)
Sanjeev Sharma
पितृ दिवस के अवसर पर बहुत सुन्दर एवं शोधपूर्ण आलेख के लिए प्रो सरोज कौशल जी बधाई की पात्र हैं।
ऐसे आलेखों से हम भारतीय साहित्य की महनीयता से अवगत होते हैं।
Shubhankar Sharma
Although the “Father’s Day” celebration is a western brain child, but in Indian Literature, especially Sanskrit Literature, we find it in a very graceful manner. Prof. Saroj Kaushal, portrayed father-children relation from vedic Literature to contemporary sanskrit literature. Analogy of father-childred relations presented here are highly appreciable.
मुकेश जैन
आदरणीया गुरुवर्या प्रो.सरोज कौशल मैडम के लेख सदैव ज्ञान वर्द्धक व नवीन दृष्टिकोण का विकास करने वाले होते है. प्रस्तुत ब्लॉग में पिता की व्यापक परिभाषा के बारे में दृष्टि डाली गई है कि केवल जन्म देने वाला ही पिता नहीं होता अपितु विनयका आधान करना ,भरण पोषण करना आदि भी पिता के गुण होते हैं .इस आधार पर राजा भी प्रजा के लिए पिता तुल्य होता है ,पंचमहाभूत भी मनुष्य का पालन पोषण एवं रक्षा करते हैं इस आधार पर वे भी हमारे लिए माता -पिता तुल्य होते हैं.ऋषि कण्व ने शकुंतला का पालन पोषण कर के पिता का पद पाया जबकि राजा दुष्यंत सर्वदमन के वास्तविक पिता होते हुए भी उन्हें पिता का पद कालांतर में प्राप्त हुआ, इसी प्रकार रामायण के किष्किंधा कांड के एक श्लोक के माध्यम से अत्यंत उपयोगी जानकारी प्रदान की गई कि ज्येष्ठ भ्राता, जन्मदाता पिता, विद्याप्रदाता गुरु यह तीन प्रकार के पिता जीवन में स्वीकार किए गए हैं .पंडित क्षमा राव के माध्यम से एक नवीन परंपरा का स्थापन किया गया जिसमें जिसमें वे एक पुत्री होने पर भी किस प्रकार से पितृ ऋण से उऋण होने का प्रयास करती है जिससे चाहे पुत्र हो चाहे पुत्री सभी को अपने पिता के प्रति कर्तव्य पालन की प्रेरणा प्राप्त होती है .महाभारत के माध्यम से भी गुरुवर्या ने इंगित किया है कि पिता का स्थान जीवन में उच्चतम होता है .इस प्रकार प्रस्तुत ब्लॉग के माध्यम से वास्तविक रुप से पिता एवं पुत्र के संबंधों का नवीन एवं बहुआयामी ज्ञानवर्धन हुआ.
Kailash Kaushal
प्रोफ़ेसर सरोज कौशल ने पितृ दिवस के संदर्भ में पिता की महनीय भूमिका का विस्तृत विश्लेषण किया है, पौराणिक काव्यों में पिता के आकाशत्व की व्याख्या करते हुए रामायण और महाभारत के महत्वपूर्ण प्रसंगों को स्पष्ट किया है । संतति हित संलग्न पिता की दूरगामी सोच अपनी संतान को व्यवहार जगत के लिए भी कई सूत्र प्रदान करता है, सूक्ष्म दृष्टि संपन्न करता है। पं क्षमाराव भी इंगित करती हैं कि पिता के व्यक्तित्व की अपूर्व आभा संतति को संवलित किए रहती है। मुझे लगता है कि पिता का आकाशत्व संतति के लिए एक सुरक्षा चक्र की निर्मिति कर देता है जो उनकी अनुपस्थिति में भी संतान पर आंच नहीं आने देता।
ज्ञानवर्धक ब्लाग
डॉ छैलसिंह राठौड़
प्रो सरोज कौशल जी पूर्व विभागाध्यक्ष ,निदेशक पण्डित मधुसूदन ओझा शोधप्रकोष्ठ संस्कृत विभाग एवं निदेशक महिला अध्ययन केन्द्र जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर का संस्कृत साहित्य में पिता विषयक ब्लॉग उत्तम, ज्ञानवर्धक है ।
वेदकाल से लेकर आधुनिक काल तक आपने संस्कृत साहित्य में पिता की भूमिका को रेखांकित किया। आधुनिक विदुषी पण्डिता क्षमाराव ने अपने पिता की जीवनी लिखकर संस्कृत साहित्य में अमर हो गईं ।
प्रो सरोज कौशल भारतीय दर्शन , आधुनिक संस्कृत साहित्य की विदुषी है ।आपका शोध करने का तरीका अद्भुत है, आपकी स्वयं की मौलिक दृष्टि शोध कार्य में झलकती है ।
डॉ संजय झाला जी निदेशक संस्कृत अकादमी जयपुर का मै हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं कि आपने पहली बार अकादमी में पितृदिवस मनाने की परम्परा को आरम्भ किया ।
डॉ छैलसिंह राठौड़
पुर्व अतिथि शिक्षक संस्कृत विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर
Email chhealsinghrathore@gmail.com
Sharmila Surana
महोदया प्रोफेसर सरोज कौशल द्वारा लिखित वैदिक साहित्य से अर्वाचीन साहित्य पर्यंत पिता विषयक वर्णन की झांकी प्रस्तुत करता प्रशंसनीय एवं ज्ञानवर्धक ब्लॉक 🙏🙏
सरोज कौशल
डॉ तारेश जी, हार्दिक धन्यवाद, ब्लॉग की सीमाओं का पालन करते हुए कतिपय संक्षेप किया है। आपने उत्तम सुझाव दिया है। मंगलकामनायें
Dr Raju
प्रो सरोज कौशल जी पूर्व विभागाध्यक्ष ,निदेशक पण्डित मधुसूदन ओझा शोधप्रकोष्ठ संस्कृत विभाग एवं निदेशक महिला अध्ययन केन्द्र जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर का संस्कृत साहित्य में पिता विषयक ब्लॉग उत्तम, ज्ञानवर्धक है ।
डॉ० तारेश कुमार शर्मा
बहुत सुन्दर आलेख। वैदिक वाङ्मय से लेकर लौकिक साहित्य के उदाहरणों से ओत-प्रोत यह लेख पिता की क्या भूमिका है भारतीय समाज में को स्पष्ट व्याख्यायित कर रहा है।
अन्यान्य उदाहरण भी उपस्थापित किये जा सकते हैं-
तैत्तिरीयोपनिषद् -“पितृ देवो भव”-(शिक्षावल्ली)
मनुस्मृति आदि अन्य स्मृति ग्रन्थों में भी पिता की महिमा वर्णित है।
सामान्यत: पिता के पाँच रूप हमें प्राप्त होते हैं-
१. जन्मदाता पिता
२. पोषणकर्ता पिता
३. शिक्षाप्रदाता पिता
४. रक्षणकर्ता पिता
५. लोकव्यवहार प्रदाता।
सादर नमन और वन्दना
Nisha
Adbhut, bahut sundar.
Poranik kal se abhi tak, pita ke bare mai saroj ma’am ke dwara diya lekh dil ko khush kar gaya. Mujhe itani sundar jankari dene ke liye aapka aabhar 🙏
Akshay surana
पिता विषयक अनुपम एवं अद्भुत ब्लॉग 🙏🙏
Akshay surana
पिता विषयक अनुपम एवं अद्भुत ब्लॉग महोदया 🙏🙏
Sharmila Surana
प्रोफेसर सरोज कौशल मैडम द्वारा लिखित वैदिक साहित्य से अर्वाचीन साहित्य पर्यंत पिता विषयक वर्णन की झांकी प्रस्तुत करता प्रशंसनीय एवं ज्ञानवर्धक ब्लॉग🙏🙏
MEENA YOGI
पिता के महत्व का बोध कराता गुरुवर्या का यह लेख पिता की महनीयता को विस्मृत न करने का उपदेश करते हुए, पिता के हमारे जीवन में योगदान को स्मरण कराता है। इस विषय को संस्कृत साहित्य मे रचनाकारों ने वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक लेखनीबद्ध करने का प्रयास किया है जो पिता के महत्व को देखते हुए कम ही प्रतीत होता है।🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼
डॉ सञ्जय कुमार यादव
बहुत ही सुन्दर और प्रासंगिक यह लेख लिखा गया है l आज का मानव अपनी महत्वाकांक्षा की उचाईयों के लिए अनेक सम्बंधों से दूर होता जा रहा है इस रूप में यह वैदिक संस्कृत से लेकर लौकिक संस्कृत के गलियारों से होते हुए जो आधुनिक संस्कृत के लेखकों और उनके काव्यों में पिता और पुत्र का सम्बन्ध म प्रस्तुत किया गया है वह आज के लोगों के लिए आइने के समान हैl वस्तुत:हमारे यहाँ जो समाज की संकपना की गई है वह इन्ही समबन्धों से विकसित हुई हैl हम अपने माता- पिता और परिवार जनों से ही सामाजिक सम्बन्धों सिखते हैं इसलिए हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि जितनी सबल और दृढ़ होगी उतने ही सामाजिक सम्बन्ध मजबूत और स्थिर होगें l रघुवंश महाकाव्य में जो यह दिखाया गया है कि कैसे महाराज रघु प्रजा के प्रिय और पिता वन जाते हैं|उसमें उनका
प्रजापालन,समर्पण और त्याग है का विशेष महत्व है जिसके बल पर लोक में उन्हें इतनी प्रसिद्धि मिली l उसी तरह हम श्रवण कुमार, राम, भीष्म को देखते हैंl वे पुत्र होने का जो
अपने कर्तव्य का निर्वाह किए है वह किसी भी साहित्य के लिए दुर्लभ है! महाराज दशरथ भी हैं जिन्होंने पुत्र वियोग मे अपना प्राण छोड़ देते हैं l इसलिए संस्कृत साहित्य अपने बहुआयामी व्यक्तित्व में सब कुछ समाहित रखने वाला साहित्य है l यहाँ हर्ष ,विषाद, उत्सव , महोत्सव, सुख, दु:ख का सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में जो चित्रण मिलता है वह अद्भुत हैl
Dr. Sanjay Kumar
Assistant professor
Department of sanskriti
Doctor Harisingh Gourw Vishwavidyalaya, Sagar, m. P.
8989713997
drkumarsanjaybhu@gmail.c
Dr Deepmala
संस्कृत साहित्य में पिता की महनीयता विषय पर प्रो़़ डाँ सरोज कौशल द्वारा प्रस्तुत इस ब्लाग में सम्पूर्ण भारतीय परम्परा में पितृस्वरूप का सर्वागीण विवेचन किया गया ।है। इसके लिये आदरणीया विदुषी प्रो़़ कौशल का सादर अभिनंदन।
डाँ़दीपमाला गहलोत
सहायक आचार्य, संस्कृत
एस पी एम राज ़महाविद्यालय ,भोपालगढ
Dr monika
आदरणीया मैडम ने संस्कृत साहित्य में पिता की महनीयता विषय पर गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ किया है। सर्वत्र महनीया माता के मान से संस्कृत साहित्य व्याप्त है उसमें किंचित पिता की भूमिका अभिभूत हो जाती है, मैम आपने पिता के महत्व को उकेर कर नवीन दृष्टिकोण प्रदान किया है। आशा है भविष्य में भी ऐसे सुन्दर आलेख के रसास्वादन का सौभाग्य प्राप्त होगा
डॉ सञ्जय कुमार यादव
बहुत ही सुन्दर और प्रासंगिक यह लेख लिखा गया है l आज का मानव अपनी महत्वाकांक्षा की उचाईयों के लिए अनेक सम्बंधों से दूर होता जा रहा है इस रूप में यह वैदिक संस्कृत से लेकर लौकिक संस्कृत के गलियारों से जो आधुनिक संस्कृत के लेखकों और उनके काव्यों में जो पिता और पुत्र के सम्बन्ध में प्रस्तुत किया गया है वह आज के लोगों के लिए आइने के समान हैl वस्तुत:हमारे यहाँ जो समाज की संकपना की गई है वह इन्ही समबन्धों से विकसित हुई हैl हम अपने माता- पिता और परिवार जनों से ही सामाजिक सम्बन्धों सिखते हैं इसलिए हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि जितनी सबल और दृढ़ होगी उतने ही सामाजिक सम्बन्ध मजबूत और स्थिर होगें l रघुवंश महाकाव्य में जो यह दिखाया गया है कि कैसे महाराज रघु प्रजा के प्रिय और पिता वन जाते हैं|उसमें उनका
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अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है वह किसी भी साहित्य में दुर्लभ है!
डॉ सञ्जय कुमार यादव
बहुत ही सुन्दर और प्रासंगिक यह लेख लिखा गया है l आज का मानव अपनी महत्वाकांक्षा की उचाईयों के लिए अनेक सम्बंधों से दूर होता जा रहा है इस रूप में यह वैदिक संस्कृत से लेकर लौकिक संस्कृत के गलियारों से होते हुए जो आधुनिक संस्कृत के लेखकों और उनके काव्यों में पिता और पुत्र का सम्बन्ध म प्रस्तुत किया गया है वह आज के लोगों के लिए आइने के समान हैl वस्तुत:हमारे यहाँ जो समाज की संकपना की गई है वह इन्ही समबन्धों से विकसित हुई हैl हम अपने माता- पिता और परिवार जनों से ही सामाजिक सम्बन्धों सिखते हैं इसलिए हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि जितनी सबल और दृढ़ होगी उतने ही सामाजिक सम्बन्ध मजबूत और स्थिर होगें l रघुवंश महाकाव्य में जो यह दिखाया गया है कि कैसे महाराज रघु प्रजा के प्रिय और पिता वन जाते हैं|उसमें उनका
प्रजापालन,समर्पण और त्याग है का विशेष महत्व है जिसके बल पर लोक में उन्हें इतनी प्रसिद्धि मिली l उसी तरह हम श्रवण कुमार, राम, भीष्म को देखते हैंl वे पुत्र होने का जो
अपने कर्तव्य का निर्वाह किए है वह किसी भी साहित्य के लिए दुर्लभ है! महाराज दशरथ भी हैं जिन्होंने पुत्र वियोग मे अपना प्राण छोड़ देते हैं l इसलिए संस्कृत साहित्य अपने बहुआयामी व्यक्तित्व में सब कुछ समाहित रखने वाला साहित्य है l यहाँ हर्ष ,विषाद, उत्सव , महोत्सव, सुख, दु:ख का सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में जो चित्रण मिलता है वह अद्भुत हैl
Virendra Kumar sharma
Prof. Sarojji kousal ka pitra divas par Sanklit Laghukalevar wala yeah aalekha Aapke virat gyan or vaidusya ka parichayak H. Sanskriti vangmaya me bikhare motiyon ko Sanklit kar mano aapne yeah muktahar k roop me pitrijano Ko sacchi sradhanjali arpit ki H. Pranam
Zeenat pathan
परम आदरणीया गुरुवर्या द्वारा पूजनीय पिता के लिए अन्तःमन स्थित हृदयभावों की परिष्कृत अभिव्यक्ति ♥️
Prof. Girish C. Pant
वैदुष्य का अप्रतिम प्रतिमान।
आदरणीया आपने ब्लॉग के रूप में महत्वपूर्ण लेख दिया है।आप जैसी प्रतिभाओंं से ही सम्भव है कि हम अपने सीमित संसार में सभी तक पहुंचा सकें कि मातृ देवो भव ।पितृ देवो भव।आचार्य देवो भव।लिखती रहें,लोग पढते रहें,समझ पैदा करते और करवाते रहें।अनन्त शुभकामनाएँँ।
Professor Mangala Ram
प्रोफेसर सरोज जी का वक्तव्य सारगर्भित आलोचनात्मक है।
Prof. Dharm chand Jain
प्रोफेसर सरोज कौशल जी ने संस्कृत साहित्य में पिता के संबंध में विषय की शोध पूर्ण प्रस्तुति श्रम पूर्वक की है . वे बधाई के पात्र हैं.
Pawan Kumar nagar
परम सम्माननीय सरोज मैम ने पिता के ऊपर सुंदर लेख लिखा है क्योंकि प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक साहित्य मैं मां के लिए तो अनेक कवियों और लेखकों ने अपनी लेखनी चलाई है परंतु पिता के लिए साहित्य में अपेक्षाकृत बहुत कम रचनाएं मिलती है
आपने प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल में जो भी पिता के लिए लिखा गया है उन ग्रंथों से उदाहरण प्रस्तुत किए हैं वह अत्यंत प्रशंसनीय हैं चाहे फिर वह वैद हो या उपनिषद या फिर लौकिक संस्कृत के कवियों और अन्य भाषा के लेखकों द्वारा लिखी गई रचनाएं
संतान के जीवन में पिता की क्या भूमिका है या पिता संतान के लिए क्या करता है इस पर विद्वानों की कलम बहुत कम चल पाई है लेकिन संतान के लिए पिता आकाश की भांति सर्वदा साथ रहता है चाहै वह सुख का समय हो या कष्टों की घड़ी संतान के ऊपर कितने भी अधिक कष्ट आ जाएं परंतु पिता कभी भी विचलित नहीं होता है क्योंकि वह जानता है कि यदि मैं कमजोर पड़ गया तो मेरी संतान इस विपत्ति का सामना नहीं कर पाएगी लेकिन अगर आपको पिता का वास्तविक रूप तथा उनकी ह्रदय की गंगा की धारा देखनी हो तो उस समय को स्मरण कीजिए जब संसार के किसी भी पिता की पुत्री की डोली उठती है तब कितना भी कठोर ह्रदय रखने वाला पिता भी ऐसे व्यवहार करता है कि दुल्हन की बजाएं पिता को संभालना दुष्कर हो जाता है इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण मैम ने प्रस्तुत किया है की जब शकुंतला अपने पति के पास जाती है तो एक वैरागी भी संसार के साधारण पिता की भांति विचलित हो जाता है और इसका उदाहरण रामायण में जानकी मिथिला नरेश की पलीता पुत्री थी उन्होंने उस को जन्म नहीं दिया था परंतु उसके लिए उन्होंने इतनी कठिन प्रतिज्ञा कर ली थी ताकि उनकी पुत्री को योग्य वर मिले और जब किसी भी राजा महाराजा देवता बड़े-बड़े महारथियों से धनुष हिला तक नहीं तब अपनी पुत्री का जीवन संकट में जानकर महाराज जनक अधीर हो उठते हैं जब उनकी पुत्री सीता की विदाई होने लगती है तो वह अवधेश से प्रार्थना करते हैं कि यदि आप कुछ समय मिथिला में रुक जाएंगे तो आपकी बड़ी कृपा होगी इस प्रार्थना को दशरथ जी स्वीकार कर लेते हैं और कहते हैं की मेरा राम मुझसे क्षण भर भी दूर हो जाता है तो मेरी स्थिति बिना पानी की मछली जैसी हो जाती है तो सीता तो जनक जी से हमेशा के लिए दूर हो रही है तो उनकी स्थिति एक पिता के अतिरिक्त और कौन समझ सकता है