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पण्डित मधुसूदन ओझा की १५६वीं जन्मजयन्ती

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पण्डित मधुसूदन ओझा की १५६वीं जन्मजयन्ती


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आज़ादी के अमृत महोत्सव के अन्तर्गत

दिव्य प्रातिभ अन्तर्दृष्टि से ‘वेदविज्ञान’ के प्रथम प्रतिपादक महामहोपदेशक विद्यावाचस्पति समीक्षा चक्रवर्ती पण्डित मधुसूदन ओझा (मैथिल) की १५६-वीं जन्मजयन्ती (श्रीकृष्णजन्माष्टमी-२० अगस्त, २०२२) के पावन अवसर पर वेदरहस्योद्घाटन के क्षेत्र में उनके महतो महयान और सर्वातिशायी अवदान का स्मरण प्रत्येक वेदविद्यानुरागी का कर्तव्य है। यह सत्य और तथ्य है कि वे आधुनिक युग के वेदव्यास थे। यह कोई अत्युक्ति नहीं है कि ‘समस्त वेदों के द्वारा एकमात्र वेद्य तथा एकमात्र वेदान्तकृत् तथा वेदविद्’ (भगवद्गीता १५/१५) अव्यय पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अंशावतार के रूप में आधुनिक युग में लब्धजन्मा पण्डित मधुसूदन ओझा ने संस्कृत में रचित १०८ ग्रन्थों द्वारा वेदार्थविषयक समस्त विप्रतिपत्तियों और भ्रान्तियों का निवारण किया था।

इस शुभावसर पर पण्डित ओझा जी के वेदविज्ञानसम्बन्धी किसी एक सिद्धान्त का शास्त्रीय प्रतिपादन विस्तारभय से अपेक्षित न होने के कारण उनके वेदविज्ञानविषयक कतिपय मौलिक सिद्धान्तों को बिन्दु रूप में रेखांकित करना सर्वथा उचित तथा उपयोगी होगा –
१. पण्डित ओझाजी का अवदान यह है कि उन्होंने वेदसंहिताओं, ब्राह्मणग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों की समष्टि को ‘कृत्स्न वेदशास्त्र’ के रूप में स्थापित किया। पाश्चात्य पद्धति के अनुयायी आधुनिक भारतीय वेदज्ञों तथा दार्शनिकों ने उपनिषत् श्रुति को मन्त्रब्राह्मणात्मक श्रुति से विभक्त कर दिया जो पण्डित ओझा जी को सर्वथा अस्वीकार्य था। उन्होंने ‘शारीरकविमर्श:’ नामक महाग्रन्थ में स्पष्ट संकेत किया है कि वेदशास्त्र द्विविध है – ब्रह्म तथा ब्राह्मण। ब्राह्मणग्रन्थ के तीन पर्व (भाग) हैं – विधिकाण्ड, आरण्यकाण्ड और उपनिषत् काण्ड। यज्ञविधि कर्मकाण्ड है, आरण्यक उपासनाकाण्ड है और उपनिषत् ज्ञानकाण्ड है। इस प्रकार सम्पूर्ण वेद की मन्त्रब्राह्मणात्मकता सिद्ध हो जाती है।

२. पण्डित ओझाजी ने ही इनम्प्रथमतया वेदशास्त्र के प्रतिपाद्य विषय का चतुर्धा विभाग किया है जैसा कि उनके ग्रन्थशिरोमणि (A specimen of superhuman scholarship) ‘ब्रह्मसिद्धान्त’ के प्रारम्भ में संकेतित है-

यज्ञश्च विज्ञानमथेतिहास: स्तोत्रं तदित्थं विषया विभक्ता:।
वेदे चतुर्धा त इमें चतुर्भिग्रन्थै: पृथक्कृत्य निरुपणीया:।।

वेदप्रतिपादित विषयों के चतुर्धा विभाग के कारण ही पण्डित ओझाजी ने इन विषयों के रहस्यविज्ञान-प्रतिपादक स्वरचित ग्रन्थों का भी चतुर्धा विभाग किया है-
१. ब्रह्मविज्ञान
२. यज्ञविज्ञान
३. इतिहासपुराणसमीक्षा
४. वेदाङ्गसमीक्षा।

३. अधिकतर आधुनिक वेदज्ञ पुराणशास्त्र को वेदशास्त्र से सर्वथा असम्बद्ध मानते हैं। पण्डित ओझाजी ने ही इनम्प्रथमतया पुराणशास्त्र को भी वेदशास्त्र से सुसम्बद्ध तथा सुसमन्वित कर ‘‘इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्’’ इस उक्ति को सर्वथा चरितार्थ किया है। उनके अनुसार पुराणशास्त्र में वेदसम्मत सृष्टिविज्ञान का विस्तृत वर्णन है।

४. यह भी उल्लेखनयी है कि पण्डित ओझा जी ने ‘शारीरकविमर्श:’ नामक महाग्रन्थ में आत्मनिरुपक शास्त्रों का पाञ्चविध्य माना है –
१. चतुर्वेदशास्त्र (श्रुति)
२. उपनिषत् नामक वेदान्तशास्त्र (श्रुति)
३. नाना आर्षेय दर्शनशास्त्र (स्मृति)
४. ब्रह्मसूत्रनामक ब्रह्ममीमांसाशास्त्र (विज्ञानशास्त्र)
५. भगवद्गीतोपनिषत् नामक योगशास्त्र (विज्ञानशास्त्र)

५. पण्डित ओझाजी ने कतिपय आधुनिक भारतीय दार्शनिकों द्वारा ब्रह्ममीमांसाशास्त्र ‘ब्रह्मसूत्र’ के लिए वेदान्तशास्त्र शब्द का प्रयोग अनुचित माना है, क्योंकि उपनिषदों के लिए वेदान्त शब्द स्वीकृत है।

६. पण्डित ओझाजी ने ही ‘शारीरकविमर्श:’ नामक महाग्रन्थ में वेद के पौरुषेयापौरुषेयत्व (Personal origin and impersonal revelation) की महती विप्रतिपत्ति का निरास करते हुए कहा है कि विज्ञानवेद अपौरुषेय है और शास्त्रवेद (शब्दमय वेद) पौरुषेय है। उन्होंने ही दिव्य प्रातिभ अन्तर्दृष्टि से शब्दमय वेद (शास्त्रवेद) के विषय में छ: प्रमुख प्रचलित मतों तथा उनके अवान्तर मतों से युक्त कुल अड़तालीस मतों को इदम्प्रथमतया उद्धरणपूर्वक विवेचन किया है जो अतिविस्मयकारी है। यह विवेचन वेदशास्त्र तथा भारतीय दर्शनशास्त्र के विद्वानों और विद्यार्थियों के लिए अध्ययन की दृष्टि से अत्यधिक उपादेय है।

७. पण्डित ओझाजी ने ही प्राचीन श्लोकक्रमानुसारी भाष्यपद्धति को छोडक़र प्रतिपाद्याविषय-विभाग के अनुसार ‘श्रीमद्भगवद्गीताविज्ञानभाष्यम्’ में व्याख्या करते हुए इदम्प्रभमतया चतुर्विध बुद्धियोग और उसकी प्रतिपादक चतुर्विध विद्या (राजर्षिविद्या, सिद्धविद्या, राजविद्या, आर्षविद्या) का सूक्ष्म विवेचन किया है।

८. पण्डित मधुसूदन ओझा ने ही अव्यय, अक्षर और क्षर पुरुषों की समष्टि पर आधारित त्रिपुरुषवाद तथा षोडशी (षोडशकाल) पुरुष के सम्प्रत्यय का इदम्प्रथमतया लक्षणपूर्वक विस्तृत प्रतिपादन किया है।

९. पण्डित ओझाजी ने ही ज्ञान और विज्ञान का वेदानुसारी भेदक लक्षण प्रस्तुत कर भ्रान्ति का निवारण किया है। एकत्व की प्रतीति ज्ञान है और अनेकत्व की प्रतीति विज्ञान। विज्ञान शब्द से सृष्टिविज्ञान और ज्ञान शब्द से आत्मैकत्वप्रतिपत्ति अभीष्ट है।

१०. पण्डित ओझाजी ने गीता में प्रयुक्त ‘अहम्’ (अस्मत्) शब्द के वाच्य के रूप में व्यावहारिक दृष्टिकोण से कृष्ण के त्रैविध्य (मानुष कृष्ण, दिव्य कृष्ण और गीताकृष्ण) का निरुपण कर पारमार्थिक दृष्टिकोण से कृष्णत्रय की एकात्मता का प्रतिपादन किया है।

११. पण्डित ओझाजी ने ही ‘द्रष्टुर्वचनं श्रुति:’ और ‘श्रोतुर्वचनं स्मृति:’ इस प्रकार अतिसंक्षिप्त परन्तु सार्थक लक्षण प्रस्तुत कर श्रुति और स्मृति के वास्तविक भेद का विवेचन किया है जो ‘शारीरकविमर्श:’ नामक ग्रन्थ में द्रष्टव्य है। उनके विवेचन से ‘कर्णाकर्णि (कानोंकान) प्रवाह (परम्परा) से श्रुत शास्त्र’ – श्रुति का यह भ्रान्त लक्षण खण्डित हो जाता है।

२. पण्डित ओझाजी ने ‘श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषत्’ में प्रयुक्त उपनिषत् शब्द की उपपत्ति (तर्कसंगति, Justification) के लिए शंकानिरासपूर्वक उपनिषद् का व्यापक (अव्याप्ति दोष से रहित) और मौलिक लक्षण प्रस्तुत किया है जो संक्षिप्त रूप में इस प्रकार है- ‘‘कम्रमणाभितिकत्र्तव्योपपादिका विद्या उपनिषत्’’। उनके अनुसार आत्मविद्यात्व उपनिषत् शब्द का पदार्थतावच्छेक नहीं है।
इस प्रकार आधुनिक युग के ऋषि वैज्ञानिक पण्डित ओझा जी ने ईश्वर के निर्देशानुसार वेदविज्ञान का मार्ग प्रदर्शित किया है जैसा कि स्वयं उन्होंने संकेत किया है –

ईश्वरों भगवानेष मार्गं दर्शितवान् यथा।
तद्वाक्येनेव तं मार्गं स्पष्टं वो

 
प्रो. (डॉ.) गणेशीलाल सुथार
(राष्ट्रपति सम्मानित विद्वान्)

पूर्व निदेशक -पण्डित मधुसूदन ओझा
शोध प्रकोष्ठ-संस्कृत विभाग
जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर

Comment (1)

  1. Heramb swaroop sharma

    Adbhut likha h barambar pranaam

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