महाकवि कालिदास का अलङ्कार-सौन्दर्य
November 1, 2021 2021-11-14 6:15महाकवि कालिदास का अलङ्कार-सौन्दर्य

महाकवि कालिदास राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना को अभिव्यक्ति प्रदान करने में अद्वितीय कवि के रूप में उच्चासन पर अधिष्ठित किये गये हैं। भारतवर्ष के ऋषियों, सन्तों, कलाकारों, राजपुरुषों और विचारकों का जितना उत्तम और महान् प्रदेय है, उसके सहस्रों वर्षों के इतिहास का जो भी सौन्दर्य है, उसने मनुष्य को देवत्व में प्रतिष्ठित करने की जितनी विधियों का संधान किया है, उन सभी को वैदर्भी रीति के माध्यम से नैसर्गिक एवं सशक्त वाणी प्रदान करने का उपक्रम महाकवि कालिदास के द्वारा किया गया है। महाकवि कालिदास को प्राचीन काल में कवि-गणना-प्रसङ्ग के अवसर पर कनिष्ठिका पर अधिष्ठित किया गया। आज भी तत्तुल्य कवि का अभाव होने पर अनामिका सार्थक हो गई क्योंकि उस पर किसी कवि का नाम ही परिगणित नहीं हो पाया –
पुरा कवीनां गणनाप्रसङ्गे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदासः।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावादनामिका सार्थवती बभूव।।
कालिदास को कनिष्ठिकाधिष्ठित की उपाधि में प्रतिष्ठित करने में अनेक कारक हैं। इनके काव्यों में कथावस्तु का निर्वहन, पात्रों के चरित्र की उदात्तता, रस, अलंकार, प्रकृति का मानवीकरण, वैदर्भीरीति का आलम्बन आदि अनेक ऐसे साहित्यिक वैशिष्ट्य हैं जो कालिदास को कवि-परम्परा में ‘द्वित्रा पंचषा वा’ में स्थापित करते हैं।
अस्मिन्नतिविचित्रपरम्परावाहिनि संसारे कालिदासप्रभृतयो द्वित्राः पंचषा वा महाकवय इति गण्यन्ते।
– ध्वन्यालोक, 1/6 वृत्ति
वक्रोक्ति का सामान्य अर्थ ग्रहण करने पर उसकी सीमा में वाग्वैदग्ध्यपूर्ण सम्पूर्ण कथन समाहित हो जाते हैं और तब अलंकारों की छटायें वक्रोक्ति के विविध रूप ही प्रतीत होती हैं। आचार्य दण्डी ने काव्यादर्श में काव्य की शोभा को सम्वर्धित करने वाले धर्मों को अलंकार कहा है –
काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते।
आनन्दवर्धन ने वाणी की अनन्त शैलियों को अलंकार कहा है –
‘अनन्ता हि वाग्विकल्पाः। तत्प्रकारा एव चालंकाराः।’
वस्तुतः सामान्य रूप से यही स्वीकार्य मत है कि ‘रस’ अथवा प्रेषणीय भाव के उपकारक-धर्म ही अलंकार हैं। जब अलंकार और अलंकार्य में पूर्ण सामरस्य अवतरित हो जाये, तब काव्य की रमणीयता स्वतः प्रस्फुटित हो जाती है। महाकवि कालिदास के अलंकार-प्रयोग इसी कोटि के हैं। कभी-कभी कवियों को शब्दालंकारों का मोह इतना आक्रान्त कर देता है कि प्रेषणीय भाव-तत्त्व गौण बन जाता है। कालिदास ने उनका प्रयोग अत्यन्त स्वाभाविकता से किया है। अर्थालंकार काव्यार्थ की सौन्दर्य-विवृति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ‘उपमा कालिदासस्य’ का केवल सीमित अथवा संकुचित अर्थ इतना ही नहीं किया जाना चाहिए कि ‘उपमा अलंकार के प्रयोग में महाकवि कालिदास अद्वितीय हैं अपितु इस प्रसंग में यह कहा जा सकता है कि सादृश्यमूलक अलंकारों के प्रयोग में अथवा औपम्यगर्भित अलंकारों के उपयोग में कालिदास को विशेष दक्षता प्राप्त है। इनमें उत्प्रेक्षा, उपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास इत्यादि अलंकारों का नैसर्गिक प्रयोग कवि को उत्कर्ष पर अभिषिक्त कर देता है। महाकवि कालिदास ने कुमारसम्भवम् तथा मेघदूत में जिस प्रकार की उत्कृष्ट उत्प्रेक्षाओं का प्रयोग किया है वे वस्तुतः चकित करती हैं।
पार्वती ने शिव को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या हेतु तपोवन में जाने के लिए पिता से अनुमति प्राप्त की। तदनन्तर तपः अनुकूल आचरण की महती अपेक्षा के अनुसार विलासपूर्ण चेष्टाओं तथा चंचल दृष्टि-इन दोनों का त्याग ही किया जाना चाहिए था। इस प्रसङ्ग में कवि ने अद्भुत उत्प्रेक्षा की है –
पुनर्ग्रहीतुं नियमस्थया तया
द्वयेऽपि निक्षेप इवार्पितं द्वयम्।
लतासु तन्वीषु विलासचेष्टितं
विलोलदृष्टं हरिणाङ्गनासु च।।
– कुमारसम्भवम्-6/13
नियमस्था पार्वती के द्वारा तन्वी लताओं में विलासपूर्ण चेष्टाओं को तथा हरिणियों में चंचल दृष्टि को दोनों में, दोनों को मानो धरोहर रूप में पुनः ग्रहण करने के लिए अर्पित कर दिया। टीकाकार मल्लिनाथ इस विषय में कहते हैं – ‘न वस्तुतोऽर्पणम् इत्युत्प्रेक्षा’ ‘निक्षेप इवार्पितम्’ में प्रयुक्त इव उपमा का वाचक नहीं है अपितु यह उत्प्रेक्षा का वाचक है। कवि कितना सावचेत है कि विलासपूर्ण चेष्टायें और विलोलदृष्टि की गृहस्थ धर्म में भावि अपेक्षा है। अतः निक्षेप रूप में ही अर्पण किया जा सकता है।
पार्वती का चरित्र स्वभावतः मृदु तथा दृढ है। दोनों विरोधी गुणों के एकत्र विद्यमान होने से ही लोकोत्तरता का आधान सम्भव है।
क्लमं ययौ कन्दुकलीलयापि या
तया मुनीनां चरितं व्यगाह्यत।
ध्रुवं वपुः कांचनपद्मनिर्मितं
मृदु प्रकृत्या ससारमेव च।।
– कुमारसम्भवम्, 5/19
जो गेंद खेलने से भी थक जाया करती थी, उसके द्वारा मुनियों के चरित का अनुसरण किया गया। मानो उसका शरीर सुवर्ण कमल से निर्मित था, स्वभाव से ही मृदु और ससार था। दृढ़ता शरीर में भी तथा मन में भी थी। मनस्विनी, तपसे कृतोद्यमां, ध्रुवेच्छामनुशासती, अहार्यनिश्चया इत्याकारक समस्त विशेषण इस उत्प्रेक्षा में पर्यवसित होकर एकवाक्यता का आपादन करते हैं।
कालिदास के काव्यों में प्रकृति की सहोदरा भूमिका हमारे भीतर सहृदयता का आधान करती है। पार्वती ने प्रत्येक ऋतु में तदनुसार (ऋतु के अनुसार) कठोर तपस्या की। वर्षा ऋतु में वायुगर्भित मूसलाधार वृष्टि में रात्रि में पार्वती ने खुले मैदानों में शिलाशयन करते हुए जो तपस्या की, उसको कैसे मान्य किया जाये? कौन विश्वास करेगा? कि पार्वती ने ऐसा कठोर तप किया। कवि इसकी उपपत्ति उत्प्रेक्षा के माध्यम से प्रदान करता है –
शिलाशयां तामनिकेतवासिनीं
निरन्तरास्वन्तरवातवृष्टिषु।
व्यलोकयन्नुन्मिषितैस्तडिन्मयैः
महातपः साक्ष्य इव स्थिता क्षपाः।
– कुमारसम्भवम्-5/25
कठोर तपस्या में साक्षीरूप में स्थित रात्रियाँ मानो विद्युत् रूपी नेत्रों से देखते हुए स्थित हुईं। प्रकृति का साक्ष्य सबसे प्रामाणिक तथा पवित्र साक्ष्य है। प्रकृति का प्रत्येक उपादान मनुष्य के प्रत्येक कर्म का साक्षी है। सूर्य, चन्द्रमा, दिन, रात, प्रजापति, मन आदि सभी ‘जानाति नरस्य वृत्तम्’ मनुष्य के चरित्र के साक्षी हैं। यहाँ जो उत्प्रेक्षा है वह रात्रि के नेत्रों की कविकल्पना है। वर्षा काल में स्फुरित होने वाली विद्युत मानो रात्रि के नेत्र हैं।
मेघदूत में रामगिरि से अलका पर्यन्त निर्दिष्ट मार्ग में स्थित नदी, पर्वत इत्यादि में मेघ के संसर्ग से कैसी अनिर्वचनीय शोभा उत्पन्न हो जाती है, उसके चित्रण में हृदयावर्जक उत्प्रेक्षायें नियोजित हुई हैं। चर्मण्वती नदी का जल लेने के लिए मेघ के झुकने पर गगनविहारी व्यक्तियों को ऐसा ज्ञात होगा मानो वह पृथिवी के गले का मुक्ताहार है जिसके मध्य में इन्द्रनीलमणि जड़ा हुआ है।
प्रेक्षिष्यन्ते गमनगतयो नूनमावर्ज्यदृष्टी-।
रेकं मुक्तागुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम्।।
– मेघदूत,पूर्वमेघ 46
जिस गंगा ने पार्वती के मुखमण्डल में स्थित भृकुटि रचना का मानो फेनों से उपहास कर चन्द्रमा पर उर्मिहस्तों से शिवजी के केशों को ग्रहण किया हुआ है। टीकाकार मल्लिनाथ कहते हैं – ‘या जाह्नवी गौर्या वक्त्रे या भृकुटिरचना सापत्न्यरोषाद् भ्रूभङ्गकरणं तां फेनैर्विहस्य इव। धावल्यात् फेनानां हासत्वेनोत्प्रेक्षा।’
गौरीवक्त्रभृकुटिरचनां या विहस्येव फेनैः
शम्भोः केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्नोर्मिहस्ता।।
– मेघदूत,पूर्वमेघ 5
अर्थान्तरन्यासविन्यासे कालिदासः विशिष्यते –
जो महाकवि उपमा सन्दर्भ में कराङ्गुलिगणनीय है, वही महाकवि जब अर्थान्तरन्यास अलंकार का प्रयोग करता है तो आलोचक उसके अर्थान्तरन्यास-प्रयोगों से बलात् प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। मेघदूत में महाकवि ने अर्थान्तरन्यास अलंकार का प्रयोग एक शापित व्यक्ति (यक्ष) को अवलम्ब प्रदान करने के लिए किया है। प्रिया से वियुक्त होकर एक वर्ष तक मृत्युलोक में रहने का जो शाप स्वामी कुबेर से मिला, उसके पश्चात् वह मेघ को दूत बनाने का जब उपक्रम करता है तो कवि को यह आभास होता है कि परम्परा इस काल्पनिकता को सम्भवतः स्वीकार नहीं करेगी। वे उपहास के पात्र भी हो सकते हैं। अतः कवि ने स्वयं को तथा अपने प्रिय पात्र यक्ष को लोकापवाद से सुरक्षित करने के लिए विशेष प्रयोजन से अर्थान्तरन्यास का आश्रय लिया।
सामान्यं वा विशेषो वा यदन्येन समर्थ्यते।
यत्र सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्येणेतरेण वा।।
कवि कहता है कि
धूमज्योति सलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः।
सन्देशार्थाः क्व पटुकरणैः प्राणिभिः प्रापणीयाः।
इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे।
कामार्ताः हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु।।
– मेघदूत, पूर्वमेघ, 5
टीकाकार मल्लिनाथ कहते हैं –
‘कामान्धानां युक्तायुक्तविवेकशून्यत्वादचेतनयाच्ञा न विरुध्यत इत्यर्थः।’
इस श्लोक में विषमालंकार अर्थान्तरन्यासानुप्राणित है। एक सामान्य कथन करके पूर्व के विशेष का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास है। यक्ष को भी कवि सुरक्षित करता है तथा स्वयं की काल्पनिकता को भी प्रामाणिकता में परिणत करने का उपक्रम करता है क्योंकि आचार्य दण्डी कथानक के सन्दर्भ में कहते हैं- इतिहासकथोद्भूतमितरद्वा सदाश्रयम्। काव्य का कथानक ऐतिहासिक कथा से उद्भूत होना चाहिए अथवा यदि काल्पनिक है तो सदाश्रय होना चाहिए। सदाश्रय का अर्थ है – सत्कथा अथवा सत्पात्र पर आश्रित होना चाहिए। परन्तु मेघदूत में कथानक न तो ऐतिहासिक है। तथा न ही सदाश्रय है। सत्पात्र का तो प्रसङ्ग ही नहीं है – यक्ष तो शापित नायक है – अतः कवि ने अर्थान्तरन्यास की पदे-पदे छटा-सर्जना कर अपने शापित नायक को भी अन्ततः सत्पात्रत्व में परिणत कर दिया है। उसको भी अर्थान्तरन्यास में ही पर्यवसित करते हुए यक्ष ने संदेश दिया –
नन्वात्मानं बहु विगणयन् आत्मनैवावलम्बे
तत्कल्याणि त्वमपि नितरां मां गमः कातरत्वम्
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण।।
यक्ष जीवनदर्शन की व्याख्या करता है। निरन्तर सुख ही सुख अथवा ऐकान्तिक दुःख किसको प्राप्त हुआ है? भाग्य अथवा दशा चक्रनेमि के क्रम से कभी नीचे जाती है और कभी ऊपर की ओर आती है। इस प्रकार की दार्शनिकता में अर्थान्तरन्यास अलंकार सौन्दर्य का सम्वर्धन करता है और यक्ष को आध्यात्मिक उत्थान का भी भाजन बनाता है। महाकवि कालिदास भास से भी प्रभावित प्रतीत होते हैं। ‘स्वप्नवासवदत्तम्’ नामक नाटक में महाकवि भास ने भी इसी आशय को अर्थान्तरन्यास अलंकार के माध्यम से अभिव्यक्त किया है –
कालक्रमेण हि जगतः परिवर्तमाना
चक्रारपंक्तिरिव गच्छति भाग्यपंक्तिः।
एक कवि अपने पूर्ववर्ती कवि से भावराशि को ग्रहण कर पुनः अपनी प्रतिभा से उसको नूतन विच्छित्तियों से अलंकृत कर देता है। इसी प्रकार अर्थान्तरन्यास के माध्यम से महाकवि कालिदास ने अनेक सूत्र प्रदान किये हैं जो कि जीवन की अभिप्रेरणा बनकर हमारा मार्गदर्शन करते हैं –
याच्ञा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा।
अधिक गुण वाले से की गई याचना निष्फल होने पर भी श्रेष्ठ है जबकि अधम व्यक्ति से की गई याचना सफल होने पर भी श्रेष्ठ नहीं मानी जाती है।
रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय।
समस्त रिक्त पदार्थ/व्यक्ति लघु होते हैं और पूर्णता गौरवाधायक होती है।
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी।
किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्।।
‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ में शकुन्तला के लिए यह दुष्यन्त की उक्ति है। वल्कल वस्त्रों से भी यह शकुन्तला अधिक मनोज्ञ प्रतीत हो रही है। मधुर आकृति वालों के लिए कौनसा पदार्थ आभूषण नहीं बन जाता है। अर्थान्तरन्यास अलंकार के व्याज से महाकवि ने सौन्दर्य का भी प्रकारान्तर से लक्षण प्रस्तुत कर दिया है। शकुन्तला के नैसर्गिक सौन्दर्य को भी रेखांकित कर कवि ने कृत्रिमता को विस्थापित कर दिया है।
‘अन्तःशुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः’, ‘आपन्नार्तिप्रशमनफला सम्पदो ह्युत्तमानाम्’, ‘मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः’ आदि अनेक सुन्दर प्रयोग अर्थान्तरन्यास अलंकार के द्वारा जो सूत्र प्रदान करते हैं वे न केवल साहित्य के अलंकारभूत तत्त्व हैं अपितु मानव-जीवन के अलंकार एवं प्राणभूत तत्त्व हैं।
परिकर अलंकार – साभिप्राय विशेषण का प्रयोग जहाँ होता है वहाँ परिकर अलंकार होता है।
असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः।
तमिस्रपक्षेऽपि सह प्रियाभिर्ज्योत्स्नावतो निर्विशति प्रदोषान्।
– रघुवंशम् 6/34
अवन्ती देश के राजा का परिचय देते हुए कहा गया – इनका राजभवन महाकाल मन्दिर में निवास करने वाले तथा चन्द्र को मौलि पर धारण करने वाले शिव के समीप ही है। इसलिए कृष्णपक्ष में भी शिव के शिरस्थित चन्द्रमा की चाँदनी से ये अपनी प्रियाओं के साथ सदैव ज्योत्सनापूर्ण रात्रियों का आनन्द लेते हैं। यहाँ ‘चन्द्रमौलेः’ पद साभिप्राय है। इस प्रसंग में चन्द्रमौलेः के अतिरिक्त कोई भी पद सम्भव ही नहीं है। पूरा सौन्दर्य तथा अभिप्राय ‘चन्द्रमौलि’ पदाधीन ही है। यह परिकर अलंकार का बहुत सुन्दर उदाहरण है।
द्वयं गतं सम्प्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया कपालिनः।
कला च सा कान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी।।
यहाँ ‘समागमप्रार्थनया कपालिनः’ इस अंश में ‘कपालिनः’ पद जुगुप्सादि अर्थ का उत्प्रेरक होने से साभिप्राय है। यह परिकर अलंकार का सौन्दर्य है। इसके पाठभेद पर भी विद्वानों ने व्यापक चर्चा की है। यहाँ ‘पिनाकिनः’ पद भी किसी-किसी पाण्डुलिपि में प्राप्त होता है।
जिस उपमा अलंकार के लिए कालिदास सुप्रथित हैं उस उपमा अलंकार के कालिदासीय प्रयोग वस्तुतः अद्वितीय हैं। महाकवि लोक के ऐसे उपादानों का उपमान रूप में चयन करते हैं जो लोक में पृथक्-पृथक् रूप में तो पाये जाते हैं परन्तु वे एकत्र अवस्थान नहीं करते हैं। यथा रघुवंश महाकाव्य में इन्दुमती को संचारिणी दीपशिखा से उपमा प्रदान की गई। लोक में अनेक संचरणशील पदार्थ पाये जाते हैं तथा दीपशिखा का भी अस्तित्व एवं प्रयोजन सुविदित है परन्तु महाकवि ने संचारिणी और दीपशिखा को एकत्रित करके इन्दुमती के उपमान की कल्पना की अतः उनका यह उपमा-प्रयोग अद्वितीय हो गया। ‘श्रुतेरिवार्थ स्मृतिरन्वगच्छत्’ यह शास्त्रीय उपमा कितनी अद्भुत रससर्जना करती है। सुदक्षिणा ने नन्दिनी के मार्ग का अनुसरण ठीक उसी प्रकार किया जिस प्रकार स्मृतिशास्त्र वेदों के अर्थ का अनुसरण करते हैं।
रघुवंश में कालिदास विनम्रता-प्रदर्शन करते हुए कहते हैं कि मन्दबुद्धि मैं कवियश की प्रार्थना करने के कारण उसी प्रकार उपहास का पात्र बनूँगा जिस प्रकार ऊँचे व्यक्ति के द्वारा प्राप्त होने योग्य फल के प्रति हाथ ऊपर की ओर उठाये हुए बौना व्यक्ति उपहास का पात्र बन जाता है।
प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्बाहुरिव वामनः।
– रघुवंशम्, 1/4
‘उद्बाहुरिव वामनः’ यह लोक से लिया गया उपमान है। ऐसे उपमानों से कविभाव अनायास ही सुगम हो जाता है। ऐसे अनेक उपमान कालिदास के काव्यों की दीपशिखा रूप हैं। उनके काव्यों में अलंकारों की नैसर्गिकता एवं सहजता हमें लोक से अन्वित कर लोकोत्तरपर्यन्त आरोहण करवाती है। कालिदास उन अधिकारी सहृदयों के लिए कविता लिख रहे हैं जो सत्-असत् में विवेक कर सकते हैं क्योंकि अग्नि में तपने पर ही कंचन की विशुद्धता अथवा श्यामिका की व्यंजना हो सकती है –
तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः।
हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा।।
महाकवि कालिदास का काव्यादर्श सुवर्ण का संस्कार है, परिष्कृत स्वर्ण का उत्पादन एवं उसकी दीप्ति के प्रसार से विवेकशील सहृदयों को चमत्कृत एवं आकर्षित करता है।
डॉ. सरोज कौशल
प्रोफेसर, संस्कृत-विभाग एवं
निदेशक, पण्डित मधुसूदन ओझा शोध प्रकोष्ठ,
जयनारायण व्यास वि.वि., जोधपुर
ईमेल- saroj.kaushal64@gmail.com

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Comments (16)
PRAVEEN PANDYA
साधु साधु। कालिदास के अलंकार गौरव और सौंदर्य का साधु प्रकाशन।
Saroj Kaushal
धन्यवाद बहुत बहुत
Arun ranjan Mishra
The discussion is some with great finnesse.It is useful for both teachers and students.
Prabuddh Bharati
सुन्दर आलेख। साधुवाद
Shubhankar+Sharma
This article on Mahakavi Kalidasa, is very useful for scholars as well as students. Written in very lucid style , I congratulate Prof Saroj Kaushal for such a researched blog.
Angeeta Mehta
Ati sunder vyakhya ma’am.
Angeeta Mehta
Sadhuvaad!Ati sundar vyakhya ma’am.
डॉ छैलसिंह राठौड़
कालिदास जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएं
लोकमंगल की साधनावस्था जिस काव्य में निहित होती है वही लोकप्रिय काव्य होता है । महाकवि कालिदास अलंकार योजना के आदर्शों की स्थापना की उनकी अलंकार योजना का विशेष प्रयोजन होता है वह प्रयोजन ही काव्य रचना का आत्मतत्व होता है ।
कालिदास ने उत्प्रेक्षा अलंकार का अद्भूत प्रयोग किया है ।
प्रो सरोज कौशल जी ने विश्वविद्यालय स्तर पर कालिदास को ३५ वर्षों तक निरन्तर पढ़ाया है, अभिज्ञान शाकुन्तल ,मेधदूत रधुवंशमहाकाव्य पर आपकी मोलिक चिन्तन दृष्टि है ।ऐसी विदुषी का कालिदास जयन्ती पर ब्लॉग पढ़कर प्रसन्नता हुई ।
डॉ संजय झाला निदेशक राजस्थान संस्कृत अकादमी जयपुर का हार्दिक आभार । आपके कार्यकाल में यह नवीन परम्परा आरम्भ हुई ।
डॉ छैलसिंह राठौड़ संस्कृत विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर ।
ईमेल chhealsinghrathore@gmail.com
Meera Dwivedi
कविकुलगुरु के कालिदास के के उपमान – चयन की संक्षिप्त और सारगर्भित व्याख्या के लिए बहुत-बहुत साधुवाद
Dr. Taresh kumar sharma
कालीदास के अलंकारों में सौन्दर्य बोध तो मानवीकरण के अन्त: सौन्दर्य को प्रकट करता है स्वयं कालिदास कहते हैं-
” किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्”
मधुर आकृतियों के लिए कौनसी वस्तु अलंकार नहीं होती है।
कालिदास केवल उपमा , अर्थान्तरन्यास में ही उपन्यस्त नहीं हैं वे तो सहज भाव से आये निदर्शना, उत्प्रेक्षा, समासोक्ति और पर्यायोक्ति आदि अलंकारों से भूषित कवि हैं।
बहुत सुन्दर व्याख्या और व्यापक अलंकार सौन्दर्य बोध अनुपम है।
Sanjeev+Sharma
प्रो सरोज कौशल ने महाकवि कालिदास के अनेक पक्षों को इस ब्लॉग में समाहित कर के व्यापक समीक्षा की है। इनकी आलोचनात्मक शैली श्लाघनीय है। अलंकार सौन्दर्य के व्याज से कालिदास की जीवन दृष्टि का भी निरूपण मानव मात्र के लिए अभिप्रेरणीय है।
Priti dadhich
अति सुन्दर। महाकवि कालिदास के काव्यों की विशेषताओं की सम्यक व्याख्या।
Thanks mem ,🙏🙏🙏
Kaushal Tiwari
उत्तम
कालिदास के अलंकारों का बहुत सुंदर तरीके से विवेचन किया गया है अभिनंदन
डॉ राजू
प्रोफेसर डॉ सरोज कौशल मैडम का महाकवि कालिदास के अलंकारों पर लिखा गया ब्लॉग अतिज्ञानवर्धक हैं l
Ujjwala Dutta
Very impressive blog, we came to know regarding the style of Mahakavi Kalidasa through this blog.
Prof Saroj Kaushal Madan explained the Alamkaras of Kalidasa in a very innovative manner.
Congratulations
Rajveer Singh Rajawat
Very impressive blog, We come to Know the Style of Mahakavi Kalidas.