उदात्त प्रेम के कवि – माघ
February 13, 2021 2021-02-13 11:34उदात्त प्रेम के कवि – माघ

साहित्य का परम प्रयोजन समाज में पारस्परिक प्रेम और अनुराग का आविष्कार करना है। भामह ने “ करोति कीर्तिं प्रीतिं च साधु काव्यनिषेवणम् “ कह कर इस तथ्य को स्पष्ट किया है । प्रेम शब्द से “ प्रिय होने का भाव “ तथा “ हृदय का कर्म “ अभिहित होते हैं ।महाकवि माघ के शिशुपालवध में प्रेम विविध रूपों में प्रतिफलित हुआ है। वहाँ यह स्त्री – पुरुष की प्रणय भावना को भी द्योतित करता है, प्रकृति के प्रति उनके मानसिक अनुराग को प्रकट करता है तथा भक्ति भावना से ओतप्रोत उनके जीवन दर्शन को भी प्रस्तुत करता है । प्रेम संसार का सार है, दो प्रेमी हृदयों का निरूढ भावबन्धन है और प्रेमी की प्रसन्नता या प्रेमिका की प्रसन्नता के लिये प्रेमी या प्रेमिका के द्वारा किये जाने वाले त्याग की पराकाष्ठा है। प्रेम गूँगे का गुड है, जिसके बारे कुछ कहा तो नहीं जा सकता किन्तु उसका अनुभव किया जा सकता है ।
जिस प्रकार हिमालय के उत्स से निकलने वाली कोई धारा अलकनन्दा, कोई मन्दाकिनी तो कोई भागीरथी नाम से अभिहित होती है किन्तु समतल भूमि में आकर वही तीनो धारायें एक साथ मिलकर अपने त्रिविध नाम, रूप का परित्याग कर देती हैं तथा “गङ्गा” नाम से लोक विश्रुत होती हैं , अपने पवित्रतम प्रवाह के संस्पर्श से अनेक तीर्थों को रचती चलती हैं तथा उनके माध्यम से साँसारिकों को पाप मुक्त करती हैं और उन्हें पवित्र करके सद्गति प्रदान करती है । वस्तुतः गङ्गा मन्दाकिनी, अलकनन्दा और भागीरथी का ही एकीभूत रूप है। उसके प्रवाह के संस्पर्श से बने तीर्थों में भी गङ्गा के प्रवाह में कोई भेद नहीं होता, उसमें उस स्थान की महिमा से कुछ वैशिष्ट्य अवश्य उत्पन्न हो जाता है । उसी प्रकार प्रेम की अनुरागमयीधारा हृदय – गह्वर से निकल कर जब पुत्र, मित्र, स्त्री, पिता, माता, गुरु आदि सम्बन्धों की लौकिक स्वार्थ विषयता को धारण कर स्नेह , प्रेम और श्रद्धा के रूप में प्रवाहित होती है, साँसारिकता को धारण करती है तो वह उन सम्बन्धों के कारण अनुराग, रति, अनुरक्ति आदि नामों से अभिहित होती है किन्तु जब यह प्रेम- स्रोतस्विनी अपने लौकिक नाम, रूप और स्वभाव को त्याग देती है तथा स्वार्थ रहित होकर भगवद्भावमय समतल प्रदेश में एक होकर शान्त धारा में बहती है तब वही धारा “भक्ति” शब्द से अभिहित होती है। यह भक्तिगंगा विभिन्न भावतीर्थों में तरंगायित होती हुई भगवच्चरण – महाब्धि में समाहित होकर भक्त को उसका अभीष्ट फल प्रदान करती है ।
महाकवि माघ प्रेम के इन सभी रूपों को उकेरते हैं । उन्हें प्रकृति से विशेष लगाव है। मानव प्रकृति से दूर रहकर कभी पूर्ण नहीं हो सकता । इसलिये माघ प्रकृति के वर्णन के प्रति सावधान हैं । वे प्रकृति को मानवीकृत करते हैं और उसकी छवि को एकटक निहारते हुये उसमें मानवोचित गुणों और भावों का आधान करते हैं । उनके महाकाव्य में एक ओर वसन्त में खिली हुई माधवी लता के पराग का पान कर मतवाली भ्रमरी मदोत्पादक स्वर में गाने लगती है तो दूसरी ओर विकसित पलाश के पुष्पों की श्रेणी पथिकों को दावानल लगने लगती हैं। गर्मी से परेशान प्रिया शीतलता पाने के लिये अपने प्रियतम की छाती पर शिर रख देती है तथा उससे चन्दन का लेप भी लगवाती है । माघ वर्षा ऋतु में स्त्री –पुरुषों के अनुराग को चरम में पहुँचा देते हैं । युवक और युवतियों के उद्दाम प्रेम के वर्णन में माघ संकोच नहीं करते। वनविहार में यादव अपनी रमणियों के विलास को देख कर कामकला का प्रदर्शन करते हैं।

माघ शृंगार के लिये प्रकृति को उद्दीपन विभाव के रूप में अति निपुणता से निरूपित करते हैं। रमणियों को प्रियतम की ओर आकृष्ट करने के लिये उन्होंने वनविहार, जलविहार तथा पारस्परिक प्रणय केलि का उन्मुक्त और विस्तृत वर्णन किया है । उनके वर्णन में प्रकृति स्वयं भी प्रेम के रंग में रँगी दिखती है। प्रकृति के सारे हाव –भाव मानो प्रणय के लिये हैं । प्रेम में रूठना और मनाना भी माघ के वर्णनों में स्थान पा सका है। श्रीकृष्ण के सैनिको के विलास वर्णन में माघ ने प्रेम और शृंगार की अखण्ड धारा बहा दी है । उनका प्रेम वर्णन शाश्वत् और सार्वकालिक है। माघ लोक का अपलाप नहीं करते, इसलिये अवतारी होकर भी उनके आराध्य श्रीकृष्ण भी सामान्य लोगों जैसा ही व्यवहार करते हैं ।
प्रेम का शृंगार से जितना घनिष्ठ संबन्ध है, भक्ति से भी वह उतना ही सम्बद्ध् है। प्रेम की उन्नत पराकाष्ठा ही भक्ति है। वैष्णव भक्त प्रीति विशेष को ही भक्ति कहते हैं । उनका मानना है कि परम प्रेम आसक्ति के बिना नही हो सकता। आसक्ति भक्ति है और भक्ति आसक्ति । परम प्रेम रूप भक्ति को पाने के अनन्तर मानाव को कुछ भी पाने की अभिलाषा नहीं रह जाती । साँसारिक प्रणय प्रसंगों का निरूपण करते हुये भी माघ भक्ति में रमते हैं। उनके आराध्य श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार होकर भी आदर्श मानव हैं । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में वे सेवक की भाँति कार्य करते हैं। माघ कदाचित् पहले महाकवि हैं, जिन्होने श्रीकृष्ण को विष्णु के रूप में निरूपित करते हुये भक्तिभाव की अभिव्यक्ति की है। अपने महाकाव्य के आरम्भ में ही उन्होंने श्रीकृष्ण को लक्ष्मी का पति, जगत् के शासक तथा जगन्निवास कह कर उनकी विष्णु रूपता सिद्ध की है । नारद के मुख से उन्होने कृष्ण के प्रति जो भाव व्यक्त किये हैं वह उनकी भक्ति भावना से परिपूर्ण हैं। माघ श्रीकृष्ण के निर्गुण स्वरूप का भी उल्लेख करते हैं तथा उनकी सगुणता को दिखाते हुये वे उनके पुराणों में चर्चित स्वरूप का भी स्मरण करते हैं। उनकी भक्ति प्रवणता उन वर्णनों से छलकती है।
माघ का प्रेम वर्णन उनकी उदार और उदात्त चिन्तन का प्रतिफलन है। प्रेम कभी बीते युग की वस्तु नहीं बन सकता , वह प्रत्येक क्षण नया होता रहता है तथा प्रेमी हृदयों को भी नवीन करता रहता है। भावनाऒं की तरंगों से प्रणयी हृदयों मे छलकता हुआ प्रेम मानव को जीने की कला सिखाता है, उसे जीवन में आगे बधने के मार्ग दिखाता है, एक दूसरे के प्रति त्याग की भावना को उत्पन्न करता है। माघ का प्रेम वर्णन इन सब विशेषताओं से संवलित है, जो युगों युगों तक मानव को प्रेम के पथ पर चलने के लिये प्रेरित करता रहेगा ।
प्रो. रमाकान्त पाण्डेय
आचार्य, साहित्य विभाग
केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर – परिसर
त्रिवेणीनगर, जयपुर – ३०२ ०१८
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