महाकवि माघ का प्रकृति – वर्णन
February 19, 2021 2021-02-19 21:11महाकवि माघ का प्रकृति – वर्णन

प्रकृति के बिना संसार में कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता । प्रकृति न केवल मानव की , अपितु समस्त प्राणियों की जीवनदायिनी शक्ति है। संस्कृत साहित्य में प्रकृति का अत्यधिक महत्त्व रहा है। हमारे ऋषियों, मुनियों और आचार्यों ने प्रकृति को देवकोटि में स्थापित करके उसकी पूजा की । पृथ्वी, वृक्ष, लतायें, नदियाँ, समुद्र इत्यादि प्रकृति के समस्त अवयवों को हम पूजते और आदर देते रहे हैं। अनेक वैज्ञानिक अनुसन्धानों से प्रकृति की सजीवता सिद्ध हुई है। संस्कृत के कवियों ने प्रकृति के अद्वितीय सौन्दर्य को निहारा, उसे समझा तथा उसका मानवीकरण भी किया । महाकवि माघ अपने महाकाव्य शिशुपालवध में प्रकृति वर्णन के लिये अनेक सर्ग दिये हैं । उनके द्वारा किया गया रैवतक पर्वत, षड् ऋतुओं, वन, जल, सूर्यास्त, प्रभात आदि का वर्णन तो प्रसिद्ध है ही, विभिन्न प्रसंगों में भी उन्होंने प्रकृति में अपूर्व शोभा का वर्णन किया है । रैवतक पर्वत का उन्होंने इतना आकर्षक वर्णन किया कि वह माघ की पहचान बन गया –
उदयति विततोर्ध्वरश्मिरज्जावहिमरुचौ हिमधाम्नि याति चास्तम्।
वहति गिरिरयं विलम्बिघण्टाद्वयपरिवारितवारणेन्द्रलीलाम् । शिशुपालवध, ४.२०
यह उदित हो रहे सूर्य तथा अस्त हो रहे चन्द्र का वर्णन है। रैवतक पर्वत के एक ओर से सूर्य का उदय हो रहा है तथा उसके दूसरी ओर चन्द्रमा अस्त हो रहा । उस समय उदित हो रहे सूर्य की लम्बी किरणें ऊपर की ओर जा रहीं हैं । ऐसा लग रहा है मानो सूर्य और चन्द्रमा उस किरणो की रस्सी में घण्टे की तरह बँधे हैं और रैवतक पर्वत के दोनो ओर लटक रहे हैं जिससे रैवतक पर्वत नीचे की ओर लटक रहे दो घण्टों से सजे गजराज के समान सुशोभित हो रहा है। माघ के इस वर्णन से उन्हें प्राचीन समीक्षकों ने “ घण्टा – माघ ” की उपाधि से अलंकृत किया ।
बछडे को चाटती गायों तथा दुह रहे ग्वालों का वर्णन भी द्रष्टव्य है –
प्रीत्या नियुक्तांल्लिहती स्तनन्धयान् निगृह्य पारीमुभयेन जानुनोः।
वर्धिष्णुधाराध्वनि-रोहिणाः पयश्चिरं निदध्यौ दुहतः स गोदुहः ॥ शिशुपालवध, १२.४०
ग्वाले दोनो घुटनों में दुहने के बर्तन को दबा कर बाँधे गये बछडे को चाटती हुई गायों से दूध दुह रहे हैं । उस समय दूध की मटकी में पड रही दूध की धार की आवाज भी गूँज रही है। श्रीकृष्ण ने इस दृश्य को बडे प्रेम से देखा ।
उदय हो रहे सूर्य का शिशु के रूप में वर्णन –
उदयशिखरिशृङ्गप्राङ्गणेष्वेव रिङ्गन्
सकमलमुखहासं वीक्षितः पद्मिनीभिः।
विततमृदुकराग्रः शब्दयन्त्या वयोभिः
परिपतति दिवाऽङ्के हेलया बालसूर्यः ॥ ११.४७
उदयाचल की चोटी रूपी आँगन में घुटने के बल चलता हुआ, कमलिनियों द्वारा अपने कमलरूपी मुख के हास्य के साथ देखा गया, कोमल किरणों को फ़ैला रहा बालसूर्य पक्षियों के कलरव के द्वारा अपने पास बुला रही मातृतुल्य दिव (आकाश) की गोद में जा रहा है ।
वसन्त काल में मतवाली भ्रमरी का वर्णन
मधुरया मधुबोधितमाधवीमधुसमृद्धिसमेधितमेधया।
मधुकराङ्गनया मुहुरुन्मदध्वनिभृता निभृताक्षरमुज्जगे ॥ ६.२०॥
वसन्त ऋतु में खिली हुई माधवी लता के पराग की वृद्धि से बढी हुई बुद्धि वाली ( वसन्त काल में विकसित माधवी के पराग को पीने से मतवाली) भ्रमरी मदोत्पादक ध्वनि करती हुई गम्भीर और उच्च स्वर में गाने लगी ।
आकाश मार्ग से उतर रहे नारद का वर्णन –
चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा ततः शरीरीति विभाविताकृतिम्।
विभुर्विभक्तावयवं पुमानिति क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः ॥ १.३
श्रीकृष्ण ने आकाश मार्ग से उतर रहे नारद को को “ तेजपुंज “ समझा । कुछ और समीप आने पर जब उनके हाथ पैर दिखने लगे, तो यह समझा कि यह कोई देहधारी है, कुछ और समीप आने पर यह समझा कि कोई पुरुष है, क्रमशः उन्होने यह जाना कि यह नारद हैं ।
प्रातःकाल का वर्णन –
कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोजषण्डं त्यजति मुदमुलूकः प्रीतिमांश्चक्रवाकः ।
उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं हतविधिलसितानां ही विचित्रो विपाकः ॥ ११.६४
प्रातःकाल कुमुद ( सफ़ेद कमल) वन शोभा खो रहा है, कमल खिल कर शोभा पा रहे हैं, उल्लू दुःखी हो रहे हैं, चकवा प्रसन्न हो रहा है, सूर्य उदित हो रहा है, चन्द्र अस्त हो रहा है, दुर्भाग्य की चेष्टाऒं का परिणाम विचित्र होता है, यह आश्चर्य है।
अपङ्कशङ्कमङ्कपरिवर्तनोचिताश्चलिताः पुरः पतिमुपैतुमात्मजाः।
अनुरोदितीव करुणेन पत्रिणां विरुतेन वत्सलतयेव निम्नगाः ॥४.४७
निःशंक होकर रैवतक पर्वत से नदियाँ उसी प्रकार आगे प्रियतम समुद्र से मिलने बढ चलीं , जैसे अपने पिता को छोड कर रोती हुई कन्यायें पति के घर चल पडती हैं। यह रैवतक पर्वत मानो वत्सलता से पक्षियों के कलरव के बहाने रो रहा है ॥
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