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महात्मा गाँधी का वैश्विक दृष्टिकोण

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महात्मा गाँधी का वैश्विक दृष्टिकोण

सत्यवादी राजा रिश्चंद्र, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण तथा आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानन्द की पवित्र यह जन्मभूमि ‘भारतवर्ष‘ ‘हिन्दुस्थान‘ कहलाता है। इस भूमि पर मन, वचन और कर्म- से ऐक्यभाव रखने वाले महापुरुषों में से ‘मोहनदास करमचन्द गाँधी‘ भी अनन्य थे। राष्ट्रहित और मानवमात्र के कल्याण हेतु अपना समग्र जीवन समर्पित करने के कारण कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें ‘शान्ति-निकेतन‘ में ‘महात्मा‘ की उपाधि से विभूषित किया। इस प्रकार ‘महात्मा गाँधी‘ के नाम से लोकप्रिय हुए।

      गाँधीजी शान्ति और अहिंसा के पुजारी थे, इन्हीं दो अस्त्रों का प्रयोग कर दक्षिण अफ्रीका में चमत्कार दिखाया तथा ब्रिटिश साम्राज्य से भारतवर्ष को स्वतन्त्र कराने में अविस्मरणीय योगदान दिया। विश्व में प्रसिद्ध हुए। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 15 जून 2007 को एक प्रस्ताव पारित कर सम्पूर्ण विश्व से आग्रह किया कि वह शान्ति और अहिंसा पर अमल करें। गाँधी जी का जन्म 02 अक्टूबर, सन् 1869 के दिन हुआ था, अतः 02 अक्टूबर को ‘अन्तर राष्ट्रीय अहिंसा दिवस‘ के रूप में मनाया जाता है। भारतवर्ष में इस दिवस को ‘गाँधी-जयन्ती‘ के रूप में मनाया जाता रहा है- यह तो सर्वविदित है ही।

               सत्य के अन्वेषण में ही गाँधी ने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। ‘The story of my experiments with Truth’ और ‘सत्य के प्रयोग‘ – के रूप में गाँधी जी की ‘आत्मकथा‘ प्रसिद्ध है। गाँधी जी की दृष्टि में सत्य ही सर्वोपरि है। सत्य ही परमेश्‍वर है। यह चिन्तन, मनन और निदिध्यासन का विषय है। ‘सत्य‘ और ‘ईश्वर‘ परस्पर पर्याय हैं। केवल वचन से सत्य-भाषण ही सत्य का स्वरूप नहीं है, अपितु ‘सत्य‘ को आचरण में ढालना परमावश्यक है। गाँधीजी ने हिन्दू-संस्कृति के प्रतिपादक रामायण, महाभारत, गीता, मनुस्मृति, उपनिषद् आदि प्रमुख ग्रन्थ रत्नों का गहन अध्धयन कर उनके सार्वजनीन सिद्धांतो को आत्मसात् किया। मनुस्मृति मे लिखा है-

‘अहिंसा-सत्यमस्तेयं-शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वर्ण्येऽब्रवीत्।।

अर्थात् अहिंसा एवं सत्य का आचरण करना, चोरी नहीं करना, कायिक और अन्तःकरण की पवित्रता रखना तथा सांसारिक विषयों में अनासक्त होकर इन्द्रियों को वशीभूत करना- यह मानवमात्र के लिए अपनाने योग्य नीति-मार्ग का उपदेश है। मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है- सत्यमेव जयति, नानृतम्‘ सत्य की ही हमेशा विजय होती है, असत्य की नहीं। गाँधीजी ने इन सनातन आदशों को न केवल अध्ययन का विषय बनाया, अपितु आत्मसात् किया है। अतः उन्होंने कहा कि सत्य ही मेरा ईश्‍वर है और अहिंसा ईश्‍वरप्राप्ति का साधन है।

            वास्तव में सत्य और अहिंसा गाँधीजी के दो प्रमुख अस्त्र और शस्त्र थे जिनकी सहायता से उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलनों का संचालन किया। अहिंसा के सिद्धान्त के प्रति वे कितने दृढ थे- इसका उदाहरण असहयोग-आन्दोलन को वापस लेना भी था। जब यह आन्दोलन ‘Defence of India Act, 1915’ (भारत की रक्षा अधिनियम, 1915) तथा ‘Rowlatt Act,1919’(रौलेट एक्ट,1919) के विरुद्ध अपने चरम पर था, तब 05 फरवरी, 1922 को ‘चौरी-चौरा‘ (यू.पी.) नामक स्थान पर लोगों की भीड़ पुलिस-चौकी को आग लगा देती है। अनेक व्यक्ति जलकर मर जाते हैं। इस घटना से व्यथित होकर गाँधीजी ने तुरन्त यह असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया।

            न्यू इण्डियापत्रिका में गाँधीजी ने लिखा था- ‘जिन ऋषियों ने हिंसा के बीच अहिंसा के सिद्धान्त को खोज निकाला, वे न्यूटन से अधिक प्रखर बुद्धि वाले लोग थे, वे स्वयं ‘वेलिंग्टन’(अमेरिकी) से अधिक वीर योद्धा थे । स्वयं हथियारों का प्रयोग जानते हुए भी उन्होंने इसकी व्यर्थता का अनुभव किया और उन्होंने युद्ध से दुःखी संसार को बतलाया कि इस की मुक्ति हिंसा द्वारा नहीं, अपितु अहिंसा द्वारा ही है‘।

            हिंसा तीन प्रकार की मानी गई है- मन, वचन और शरीर से। इन त्रिविध हिंसाओं का परित्याग करने वाले अहिंसक मनुष्य में त्याग, तपस्या, दया, क्षमा, प्रेम, कोमलता, पवित्रता और निर्मल बुद्धि का वास होता है और तब वह व्यक्ति सत्य के मार्ग को प्राप्त कर लेता है। अहिंसा विनम्रता की पराकाष्ठा है, जिस से मनुष्य सत्य-स्वरूप ईश्वर से तादात्म्य प्राप्त कर लेता है। अतः गाँधीजी का मानना था कि हिन्दू-धर्म की दया दृष्टि और आत्मदृष्टि अन्य धर्मों से विलक्षण है।

            गाँधीजी ने सत्य और अहिंसा के आचरण से भारतवर्ष का महान् उपकार किया हैं। उनके द्वारा प्रदत्त योगदान को संक्षेप में निम्नानुसार रेखांकित किया जा सकता है-

  1. गाँधीजी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे।
  2. दो वर्षों तक भारत के कोने कोने में जाकर राजनीतिक गतिविधियों का अध्ययन किया।

  3. उन्होंने अनुभव किया कि देश का किसान वर्ग, मजदूर वर्ग, नारी वर्ग, शूद्र वर्ग अलग-थलग पडा है। हिन्दु-मुस्लिम ऐक्य का अभाव है। कुल मिलाकर सम्पूर्ण देश की जनता किंकर्तव्य विमूढ है। नेतृत्व विहीन है।

  4. सन् 1885 में ब्रिटिश  सरकार के सेवानिवृत्त अधिकारी  A.O. Hume ने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना अवश्‍य कर दी थी किन्तु वह आभिजात्य वर्ग तक सीमित थी। सम्पूर्ण देश की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं था।

  5. गाँधीजी में उनकी माता पुतली बाई द्वारा बचपन से प्रदत्त संस्कार थे- निरामिष  रहना, नशे- पते से दूर रहना, पवित्रता का सदा ध्यान रखना, सच बोलना इत्यादि। ‘यन्नवे भाजने लग्नः   संस्कारो नान्यथा भवेत्‘ इस सदुक्ति के अनुसार गाँधीजी ने सात्त्विक बुद्धि से देश-हित में सोचना प्रारम्भ कर दिया।
  6. सन् 1917 में बिहार के चम्पारन जिले के किसानों के ‘तिनकाठिया-पद्धति‘ (योरपींय बागान मालिक किसानों से 3/20 भाग पर हठात् नील की खेती करवाते थे। के प्रति असन्तोष को     समझा और उनके आन्दोलन को समर्थन तथा नेतृत्व भी दिया। गाँधीजी की सत्याग्रह की धमकी के आगे ब्रिटिश सरकार झुक गई तथा तिनकाठिया पद्धति को समाप्त कर दिया। यह गाँधी जी का प्रथम नेतृत्व था  

  7. चम्पारन-आन्दोलन की सफलता के पश्‍चात् सन् 1918 में ‘खेड़ा किसान आन्दोलन‘ (गुजरात) का नेतृत्व किया। सूखे से अकाल में भी ब्रिटिश -सरकार जो पूरा लगान वसूल रही थी उस पर   शिथिलता देनी पडी। यह द्वितीय नेतृत्व था।

  8. सन् 1918 में अहमदाबाद में महामारी (प्लेग) फैल गयी थी। मजदूरों को 20 प्रतिशत बोनस मिल   रहा था । मजदूरों ने बोनस-वृद्धि की माँग की। गाँधीजी ने समर्थन किया,  सरकार को 35 प्रतिशत बोनस देना पड़ा। यह तृतीय नेतृत्व था।
  9. नागरिक स्वतन्त्रता पर पाबन्दी लगाने हेतु लागू किये गए ‘रोलट् एक्ट‘ और ‘जलियाँ वाला बाग   घटना‘ के विरोध में असहयोग आंदोलन किया। उसका परिणाम यह रहा कि उग्र तथा उदारवादी नेता तथा मुसलमान गाँधीजी के साथ ऐक्यभाव से मंच पर आ गये।
  10. ‘संविनय अवज्ञा आन्दोलन‘ (1930-34) किया गया, जिसका मूल था- लार्ड इर्विन के समक्ष- पूर्ण    शराब बन्दी, नमक टैक्स की समाप्ति, लगान में 50 प्रतिशत कटौती, सेना के खर्च में कटौती, राजनीतिक बन्दियों की रिहाई-इत्यादि 11 सूत्री मांगों पर विचार। फलस्वरूप साबरमती आश्रम से दाण्डी-यात्रा (12 मार्च से 5 अप्रेल 1930) कर के नमक-कानून तोड़ा।
  11. 09 अगस्त 1942 को ‘भारत छोडो आन्दोलन‘ ‘करो या मरो‘ (Do or Die) के नारे के साथ शुरू हुआ जो दो वर्ष तक चलता रहा।
  12. ‘भारत छोडो‘ आन्दोलन के दो वर्ष पश्‍चात् आजादी मिली किन्तु देश के विभाजन के कारण गाँधीजी अन्यन्त दुःखी रहे।
  13. गोरक्षासंघ की स्थापना, नशाबन्दी, अछूतोद्धार, हरिजन सेवासंघ की स्थापना, दक्षिण अफ्रीका में  भारतीयों के विरुद्ध अत्याचार रोकने के लिए नेटाल भारतीय काँग्रेस की स्थापना इत्यादि अनेक सामाजिक सुधार की दिशा में गाँधीजी ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
  14. स्वदेशी का प्रचार, कुटीर उद्योगों को बढावा, खादी का अधिकाधिक प्रयोग, घर-घर में चरखे का  उपयोग, खादी ग्रामोद्योग संघ की स्थापना आदि अनेक आर्थिक सुधारो में गाँधीजी का अविस्मरणीय योगदान रहा है।

गाँधीजी में नैतिक मूल्यों एवं आदशों को प्रायोगिक जीवन में आत्मसात् करने की क्षमता को दृष्टिगत रखते हुए महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने उनकी 70वीं वर्षगाँठ पर कहा था- ‘भावी पीढियाँ मुश्किल से विश्‍वास करेंगी कि हमारी तरह ही हाड-माँस से बना एक व्यक्ति मोहनदास करमचन्द गाँधी हम लोगों के साथ रहा, हमारे साथ साँसें ली, और हम में से हर किसी की तरह इसी पृथ्वी पर विचरण करता रहा।

गाँधीजी ने यह सब सत्य एवं अहिंसा के बल पर किया। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः‘ इस ईशोपनिषद् का सन्देश दिया। गीता के अनासक्त कर्मयोग का आजीवन पालन करते हुए अन्त में 30 जनवरी 1948 को शाम सवा पाँच बजे के लगभग ‘हे राम ! के सम्बोधन के साथ इहलोक से प्रस्थान कर गए। शत-शत प्रणाम।

प्रोफेसर श्रीकृष्ण शर्मा

सम्पादकः ‘स्वरमंगला‘

संस्कृत पत्रिका

राजस्थान संस्कृत अकादमी

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