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मित्र के चक्षु

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मित्र के चक्षु

Mitra-Diwas

मित्र शब्द हमें वैदिक परम्परा से प्राप्त हुआ है। इसे वैदिक आलोक में ठीक तरह से समझा जा सकता है। वैदिक चिन्तन में मित्र और वरुण की जोड़ी है। एक दिन का देवता है तो दूसरा रात का। वेद अहोरात्र का उपासक है, जिसकी पूर्णता दिन और रात की जुगलबंदी से होती है। पूर्ण आकाश मैत्रावरुण है। उसका पूर्वी कपाल मित्र है तो दूसरा पश्चिमी कपाल वरुण। अत एव मित्र प्राच्य है और वरुण पाश्चात्य है। दोनों देवता हैं। देवता के दो भेद हैं—एक, देव और दूसरा, असुर। वरुण देवता है, किन्तु देव नहीं। व्यक्ति के जीवन स्तर पर उसकी चेतना का वरुण और मित्र उसे पूर्ण बनाता है। वरुण के चक्षु क्रूर हैं और मित्र के चक्षु शान्त। अशुभ और अन्धकार के क्षेत्र में वरुण की आँखें काम करती हैं और शुभ और प्रकाश के क्षेत्र में मित्र के चक्षु प्रसारित होते हैं। वरुण अशुभताओं, अमंगल और दुष्टताओं को नष्ट करता है, मित्र शुभ और मंगल को उभारता है। वरुण रिशादस है, मित्र पूतदक्ष है—मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम्। धियं घृताचीं साधन्ता। (शु. य. माध्यन्दिनी ३३.५७) मित्र ही वरुण और वरुण ही मित्र होता है। इन दोनों का अधिकार-भेद है, स्वरूप-भेद नहीं। पापान्निवारयति योजयते हिताय में मित्र की पृष्ठभूमि में वरुण विद्यमान है।

वरुण उग्रदृष्टि है, मित्र सौम्यदृष्टि। अतः यजमान कहता है कि मुझे मित्र की आँखों से देखो—मित्रस्य मा चक्षुषेक्षध्वम्। (शु. य. माध्यन्दिनी ५.३४) वैदिक देवता मित्र ही सामाजिक- जीवन के मित्रों के रूप में अवतीर्ण होता है। जो हमारे जीवन के उजालों, शुभताओं का प्रकाशक बन जाए, वही हमारा मित्र है। संस्कृत काव्य संग्रह उद्बाहुवामनता (२००६) की सखे! शृणु  कविता का एक अंश द्रष्टव्य है—

अङ्ग! कथङ्कारं विस्मरेयम्?

घोरघोराऽपि

यामिनी यापिता मया

तव हृदश्चन्द्रिकाभिः।

अपि च यातं

तव दिनं सकलं सखे!

मम जीवनस्य

कालिमभिरुपेतम्।

( दोस्त, कैसे भूल जाऊँ ?

घोर से घोर रात भी बितायी मैंने

तुम्हारे हृदय के उजालों से

और दिन तुम्हारा बीत गया

मेरे जीवन की कालिमाओं से भरा हुआ।)

ज्वलितो हिरण्यरेताः किम्,

भाययति स्म मां

भस्मनां चयोऽपि

”बुभुक्षितैर्व्याकरणं न युज्यत“ इति

माघवचोऽनुभवन्तम्।

तदैव समज्यायां

त्वया दत्तस्याऽऽद्यार्घस्य

अर्घ्यं कथं विस्मरेयम्?

( जलता अंगारा क्या,

ड़रा देती थी उस वक्त मुझे

बुझी राख भी।

भूखों के द्वारा खायी तो नहीं जा सकती व्याकरण,

इस माघ-वचन को जी रहा था मैं।

तब भरी सभा में तुम्हारे द्वारा दिए

आद्य- अर्घ का अर्घ्य कैसे भूल जाऊँ मैं ?)

मित्र की जीवन में बहुत बड़ी महत्ता है तो उसकी कसौटी भी कम बड़ी नहीं है। अतएव मैत्री को दैवी सम्पदा माना गया है। मित्र बनना सरल नहीं है। ऊँचे आध्यात्मिक मूल्यों में प्रतिष्ठित व्यक्ति मित्र बन सकता है। मित्र कार्यों को समय बीत जाने के बाद किया जाए तो वह सच्ची मित्रता नहीं है, भले ही किया गया काम कितना ही बड़ा क्यों न हो—

यस्तु कालव्यतीतेषु मित्रकार्येषु वर्तते।

स कृत्वा महतोऽप्यर्थान्न मित्रार्थेन युज्यते।।

( १३.२८ किष्कि. वा.रामायण, बड़ौदा संस्करण)

सुग्रीव कहता है कि मुझे न तो लक्ष्मण का त्रास है और न राघव का, अपितु अस्थान कुपित मित्र मेरी घबराहट का कारण है। सुग्रीव कहता है कि मित्र बनाना तो सरल है, किन्तु निभाना कठिन है। चित्तों की अनित्यता से छोटे-मोटे प्रसंगों में प्रीति खंडित हो जाती है—

न खल्वस्ति मम त्रासो लक्ष्मणान्न राघवात्।

मित्रं त्वस्थानकुपितं जनयत्येव सम्भ्रमम्।।

सर्वथा सुकरं मित्रं दुष्करं परिपालनम्।

अनित्यत्वात्तु चित्तानां प्रीतिरल्पेऽपि भिद्यते।।

( ६-७.३१, किष्कि. वा.रामायण, बड़ौदा संस्करण)

मित्रता को बचाने की इतनी चिन्ता तो होनी ही चाहिए। संस्कृत कविता में मित्रता के बारे में बहुत कहा गया है। जब कवि अपने को किसी का विश्वसनीय बनाना चाहता है तो उसे मित्र कहकर संबोधित करता है—रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयताम्। कवि की बात चातक क्यों सुनें तो यहाँ तर्क है कि वह उसका मित्र है। जो मित्र होता है, वह हित की बात ही कहेगा। उसके वाक्य में कोई छल नहीं होगा। छद्म मैत्री और यथार्थ मैत्री की कसौटी भर्तृहरि ने दी है—

आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण

लघ्वी पुरा वृद्धिमती पश्चात्।

दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना

छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।

छद्म मैत्री और वास्तविक मैत्री—दोनों छायाएँ हैं, किन्तु छद्म मैत्री दुपहर से पहले की छाया है, जो पहले बड़ी होती है और घटती हुए दुपहर आते आते लुप्त हो जाती है। दुपहर को हम कष्ट मानें तो उस समय छद्म मैत्री खो जाती है, जबकि वास्तविक मैत्री उस कष्ट को देखकर शुरू होती है और बढ़ती ही जाती है। भर्तृहरि का एक वाक्य मित्र बनने वालों के हृदय में सदैव अंकित है—आपद्गतं च न जहाति ददाति कालेविपत्ति में छोड़ नहीं देना और समय आने पर अपने हिस्से का कोई किसी को दे सकें तो वह उसका मित्र है। मित्र के इस चक्षु से हम जिनको देखते हैं और जो हमें देखते हैं, वे मित्र हैं।

डॉ. प्रवीण पण्ड्या

( संस्कृत कवि- आलोचक एवं विद्वान्)

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