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वेद्वाचस्पति पं. मोतीलाल शास्त्री

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वेद्वाचस्पति पं. मोतीलाल शास्त्री


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आज़ादी के अमृत महोत्सव के अन्तर्गत

२०वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में देश में वेदों का डिमडिम -घोष करने और उनमें निहित गूढ़- विज्ञान का स्फोट करने वाली दो- विभूतियाँ प्रकट हुईं, वेदविद्यावारिधि (स्व. पं.मधुसूदनओझा(१८६९-१९३९)जिन्होंने , जयपुर महाराज सवाई माधोसिंह के शासनकाल में न केवल २२८ ब्रह्म- यज्ञ- पुराण-इतिहास-विज्ञान ग्रंथों की रचनाकर प्राचीन वैदिक -साहित्य का पुनरुद्धार किया, अपितु इंग्लैंड तक उनकी ख्याति का विस्तार भी किया और दूसरे उनके प्रमुख शिष्य वेद्वाचस्पति (स्व.) पं. मोतीलाल शास्त्री (१९०८- १९६०) जिन्होंने लगभग ८० सहस्र-पृष्ठात्मक गीता- शतपथ-उपनिषद- सांस्कृतिक चेतना जागृत करनेवाले साहित्य की ‘राष्ट्रभाषा -हिंदी’ में रचनाकर न केवल वेद-ब्राह्मण- उपनिषदों में निहित रहस्यों का उदघाटन किया ,अपितु ‘हिंदी खड़ीबोली’ के गद्य-साहित्य को समग्रता- सम्पन्नता भी प्रदान की.

आज २० सितम्बर, २०२२ को उन महापुरुष की ६२ वीं पुण्य-तिथि है , जिन्होंने ५२ वर्ष की अल्पायु में ही अपने गुरु-चरणों में बैठकर प्राचीन -वैदिक -साहित्य का सर्वोपाङ्ग -अध्ययन कर मनन किया, चिंतन किया, अस्सी सहस्र ‘फुलस्केप -साइज’ के पृष्ठ लिख ही न डाले- अपितु स्वसंचालित मुद्रणालय में उनका मुद्रण- प्रकाशन किया, सम्पूर्ण -गृहस्थ -जीवन का पालन किया, स्वार्जित -भू सम्पदा का विशाल- क्षेत्र में निर्माण भी किया.विचारणीय है क्या इस अल्पायु में ये सब-कार्य किसी सामान्य – मनुष्य द्वारा सम्पन्न किया जाना संभव था. निश्चयेन वे महामानव की कोटि में थे.पण्डित मोतीलालजी का जन्म जयपुर में श्रावणशुक्ला 3, विक्रम संवत्‌ !965 को हुआ था। आप पण्डितश्री बालचन्द्रजी शास्त्री के कनिष्ठ पुत्र थे ! जीवन के प्रथम सोलह वर्षो तक आपने पितुःश्री के चरणों में बैठकर सस्कृतव्याकरण एवं साहित्य का अध्ययन किया, जिसके अनन्तर जयपुर संस्कृत कॉलेज से व्याकरण शास्त्री परीक्षा पास की। महामहोपाध्याय पण्डित श्री गिरधरशर्मा चतुर्वेदी आपके दर्शन के गुरु थे।आपके साथ ही मोतीलालजी संवत्‌ !983 के आस-पास काशी गए , वहीं पर अकस्मात्‌ ही आपको पण्डित श्रीमधुसूदनजी ओझा के व्याख्यान सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। बस, यहीं से आपके वास्तविक जीवनका प्रथम अध्याय प्रारम्भ हुआ।

पण्डित बालचन्द्र शास्त्री बड़े कठोर शासक थे। आपका अनुमान था किओझाजी से वेद जैसे विषयका अध्ययन कर उनकी विद्या को प्राप्त करना अत्यन्तही दुरूह है तथा प्राप्त कर भी ली जाए, तो जीवन-संग्राम में इसका उपयोग नहीं होसकता। इसी धारणा के कारण आपने मोतीलालजी को वेद का अध्ययन न करने का आदेश दिया,लेकिन मोतीलालजी ने इस आज्ञा को न माना और उन्हें इसके लिए दंड स्वरूप पत्नी और विधवा भाभी का दायित्व सौंपते हुए घर से पृथक कर दिया गया. आकस्मिक आधातों से न घबरा कर अपने भरण-पोषण के लिए पाँच रुपये मासिक का ट्यूशन कर, तथा यदा-कदा चने और गुड़ खा कर अपना अध्ययन जारी रखा। ओझाजी के अनुशासन में चलना खाँडेकी धार कहा जाता था कि ओझाजी के नन में चलना खाँडे की धार पर चलना था। अनुशासन का ताप यों लिए असह्य था। यही कारण था कि मोतीलालजी को छोड़ कर अन्य विद्याथी नियमित रूप से उनके पास अध्ययन नहीं कर पाए,इसी अध्ययन के परिणामस्वरूप मोतीलालजी ने वैदिक साहित्य का जो अन्वेषण किया वह अतुलनीय एवं अगाध है।

भारतवर्ष में लोकमत से वैदिक परम्परा की श्रेष्ठता को स्वीकार किया गया है किन्तुयहअत्यन्तदुर्भाग्यपूर्ण था कि कालान्तर में वेदविज्ञान को सम्प्रदाय और दुराग्रह का विषय बना दिया गया। वेदों का सार उनकी परिभाषाएँ ही हैं। सृष्टिविद्या के सम्बन्ध में ऋषियों का जो वैज्ञानिक तत्त्वानुसन्धान था, उसी ज्ञान- विज्ञान का समुदित नाम ही वेद है। सृष्टि का रहस्य अनादि व अनन्त है। फिर भी ऋषियों ने वैदिक साहित्य में ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों के द्वारा इन रहस्यों को समझाने का सक्षम प्रयत्न किया है। जिस युक्ति से सृष्टिविद्यात्मक रहस्यों को अर्वाचीन मानव समझ सकें, वह युक्ति ही वेदविज्ञान की कुंजी है। वेद की भाषा सृष्टिविद्या की प्रतीक भाषा है। एक ही शब्द के नाना अर्थों की गति कितने ही क्षेत्रों में साथ-साथ विकसित होती है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड के निगूढ नियमों के अत्यन्त विशद्‌ और चामत्कारिक वर्णन को समझने का माध्यम वैदिकविज्ञान का वह पट हैं, जिसमें सहस्रों परिभाषाओं के सूत्र ताने -बाने की भाँति बुने हुए हैं।

सौभाग्य से इसी आर्षविज्ञान को पण्डित मोतीलालजी ने दीर्घकाल तकअपने गुरु के चरणों में बैठकर प्राचीन पद्धति से प्राप्त किया तथा अपनी साहित्य-साधना में दिन-रात संलग्न रहते हुए मात्र 52 वर्ष की अल्पायु में ही वेदविज्ञानात्मकअस्सी सहस्र पृष्ठों के साहित्य का राष्ट्रभाषा हिन्दी में सृजन कर डाला। जिसकेपरिणामस्वरूप शतपथ ब्राह्मण, गीताविज्ञानभाष्यभूमिका, श्राद्धविज्ञान, उपनिषद विज्ञानभाष्यभूमिका इत्यादि ग्रन्थों की लुप्तप्राय मौलिक परिभाषाएँ विज्ञानात्मक रूप में आज पुनः उपलब्ध हो रही हैं। इस ज्ञान-यज्ञ को पण्डितजी ने अपने दीर्घकालीन परिश्रम से सम्पन्न करते हुए 20 सितम्बर सन्‌ 1960 को 52 वर्ष की आयु में महाप्रयाण किया। इस 80 सहस्रात्मक साहित्य में से लगभग 72 ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है तथा शेष अमुद्रित साहित्य के प्रकाशन का कार्य अनवरत जारी है। शास्त्रीजी द्वारा रचित साहित्य के प्रमुख विषय ‘शतपथ -ब्राह्मण,गीता,पुराण एवं श्राद्ध-विज्ञानं रहे हैं.

वर्ष 1956 में (मृत्यु से 44माह पूर्व तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ, राजेंद्र प्रसादजी ने उन्हें राष्ट्रपति -भवन में आमंत्रित कर पांच- दिवसीय व्याख्यान कराये थे, जिनमे देश की सुप्रसिद्ध विभूतियों के साथ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर आदि भी सम्मिलित थे. तब राष्ट्रपतिजी ने ‘पं’ मोतीलाल शास्त्री’ के साहित्य को देश की अमूल्य निधि बताकर उसकी ‘रक्षा’ करने का भार ‘शासन’ को सौंपा था, काश! सरकारें उनकी बात पर ध्यान देती!

kailash-chaturvedia
प्रोफेसर कैलाश चतुर्वेदी
पूर्व निदेशक  


संस्कृत शिक्षा विभाग राजस्थान सरकार

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