पर्यावरण संरक्षण के वैदिक उत्स
June 5, 2022 2022-06-05 18:42पर्यावरण संरक्षण के वैदिक उत्स

Warning: Undefined array key "" in /home/gauravaca/public_html/wp-content/plugins/elementor/core/kits/manager.php on line 323
Warning: Trying to access array offset on value of type null in /home/gauravaca/public_html/wp-content/plugins/elementor/core/kits/manager.php on line 323
आजादी का अमृत महोत्सव
पर्यावरण संरक्षण के वैदिक उत्स
ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण पदार्थों की स्वाभाविक सत्ता ही सृष्टि के मूल स्वरूप को बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। यहाँ स्वाभाविक से अभिप्राय है कि प्रकृतिजन्य परिस्थितियाँ भी उसकी अपनी है चाहे उसमें परिवर्तन के पश्चात् विकृति ही क्यों न आयी हो। इसी व्यवस्था को आचार्य यास्क ने निरुक्त में स्पष्टरूप से प्रतिपादित किया है – जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, क्षीयते नश्यति च।
अर्थात् इस सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न होता है, सत्ता बनाता है, बढ़ता है, पूर्णता प्राप्त करता है, क्षीण होता है और नष्ट हो जाता है। यह है जागतिक पदार्थों की स्वाभाविकता। पदार्थों की चर्चा के प्रसंग में यह स्पष्ट है कि सृष्टि प्रपंच में चराचर जगत् की उत्पत्ति से पूर्व अनेक तत्त्वों का आविर्भाव उत वां निर्माण क्रमषः हुआ जिन्हें मानव ने अपने निकटस्थ पदार्थों को पूर्व में स्वीकार करते हुए परिगणित किया है – पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और आकाश। जबकि वास्तव में सर्वप्रथम आकाश की उत्पत्ति हुई और उससे बढ़ते क्रम में आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति मानी गई-
आकाशाद् वायुः, वायोरग्निरग्नेराप: अद्भ्य पृथिवी च।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच तत्त्वों का आनुपातिक मेल या फिर पृथ्वी से आकाश तक ब्रह्माण्ड में स्थित सभी चराचर, जड़ चेतन पदार्थों में आनुपातिक सामंजस्य होना ही पर्यावरण के रूप में जाना जाता है। जब तत्त्वों के मिश्रण सम्बन्धी अनुपात से जल, थल और नभ के पदार्थों/प्राणियों की सत्ता में न्यूनता अथवा अधिकता के कारण विकृति आती है तो पर्यावरण बिगड़ने जैसे हालात उत्पन्न होते हैं और उनके संरक्षण की आवष्यकता पड़ती है।
आज सम्पूर्ण विश्व पर्यावरण – संरक्षण के मुद्दे को लेकर एक मंच पर है, यह पर्यावरण चाहे सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्तर पर विकृत हुआ हो या फिर प्राकृतिक स्तर पर, सभी प्रकार से चिन्ता का विषय है। आज आतंकवाद जैसे गम्भीर मसले तथा खगोलीय-भूगर्भीय हलचलें सभी कुछ पर्यावरण के लिए खतरा बन चुके हैं, ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति, राष्ट्र और विश्व अर्थात् व्यष्टि से समष्टि तक सभी को एक सोच के साथ संघटित होकर निर्णय तक पहुँचना होगा कि इस समस्या का समाधान क्या हो और उसे कैसे/ किस कारगर तरीके से अपनाया जाये जिससे इस समस्या से निजात मिल सके।
आज पृथ्वी पर वानस्पतिक-पर्यावरण का संतुलन बिगड़ने से सर्वाधिक समस्या जल की उपलब्धि में न्यूनता है। जल ही जीवन है, जल के अभाव में वन, वनस्पति एवं हरीतिमा का कम होना जीव एवं जीवन के लिए घातक सिद्ध होने लगा है। इसीलिए सम्पूर्ण विश्व में अभयारण्यों का विकास तथा संरक्षण और उनमें निवास करने वाले वन्य जीवों की लुप्त होती जातियों को बचाने के लिए प्रतिवर्ष अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं। प्राचीन काल में जल, वन एवं वन्य जीवों के संरक्षण के प्रति जागरूकता तत्कालीन शासकों एवं प्रजा में तुल्य रूप से देखने को मिलती है जहाँ गाय, हरिण, हंस आदि को बचाने के साथ ही वृक्षों तक को काटने से बचाने के लिए राजा दिलीप, महर्षिकण्व शिष्य वैखानस, महात्मा गौतम बुद्ध तथा वर्तमान की अमृता देवी आदि के त्याग, समर्पण और बलिदान की प्रेरणादायक घटनाएँ इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में उल्लिखित हैं।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश की समष्टीभूत इस सृष्टि के पर्यावरण संतुलन में वृक्षों की महती भूमिका है, इसीलिए हमारे ऋषि- महर्षियों ने वृक्षों का औषधीय महत्त्व समझते हुए उनके संरक्षण हेतु अनेक धार्मिक, सामाजिक एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी मान्यताओं की प्रतिष्ठापना की। विभिन्न देवों ने भी वृक्षों के महत्त्व को प्रख्यापित करने के दृष्टिकोण से उनका संरक्षण किया। भगवान् कृष्ण स्वयं अपने आपको गीता में ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां’ कहते हुए पीपल मानते हैं तथा वृन्दावन में रहना और कदम्ब पर खेलना उन्हें प्रिय रहा।
सृष्टि का क्रम निरन्तर चलता रहे इसके लिए आवष्यक है इसकी स्वाभाविक गति में विकृति उत्पन्न न की जाय। परन्तु आज का मानव अपनी सुख-सुविधाओं और जिज्ञासाओं की शान्ति के लिए विज्ञान की खोज में अन्धी दौड़ लगाता नजर आ रहा है। जिससे उत्पन्न विकृति के सागर में संसार के विनाश की सुनामी – लहरें तीव्रता से उठने लगी हैं।
सृष्टि उत्पत्ति के पंचमहाभूत पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और आकाश, सभी का मानव ने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इतना दोहन किया है कि परिणामस्वरूप पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है।
हमारे मुनियों ने अतिप्राचीनकाल से परिस्थितियों का आकलन कर चिन्तन किया और उसकी सुरक्षा के उपायों को सुझाया है, यहाँ इस शोध आलेख में संस्कृत वाड़्मय में भरे पड़े पर्यावरण – चिन्तन पर विचार कर उसके सुरक्षा उपायों पर ही चर्चा की जा रही है।
सुवर्णपुष्पां पृथिवीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः।
शूरश्च कृतविद्यश्च यश्च जानाति सेवितुम्।।
जीवनोपयोगी पदार्थों की सहज सुलभता के कारण ही हमारे आचार्यों नें पृथ्वी को ‘सुवर्णपुष्पा’ की संज्ञा देते हुए उससे विकसित पुष्पों के समान पदार्थों के संकलन की बात कही है न कि उसके अनावश्यक दोहन की। यहाँ ‘षूर’ से श्रमशील पुरूष, ‘कृतविद्य’ से तकनीकी विद्या जानने वाला तथा ‘सेवा विशेषज्ञ’ से धैर्यशील व्यक्ति की ओर संकेत किया गया है। इसी आशय को प्रकट करता है यह दोहा-
धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोक में तीन प्रकार के विशेषज्ञों द्वारा पृथ्वी के दोहन की बात कही गई है परन्तु इसके विपरीत हमारे ऋषियों ने पृथ्वी को माता1 मानते हुए उसकी रक्षा का भी चिन्तन किया है। पृथ्वी सूक्त के प्रथम मन्त्र में ही पृथ्वी को धारण करने वाले आठ तत्त्वों का प्रतिपादन किया गया है –
सत्यं बृहद् ऋतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथ्वीं धारयन्ति।
इन सात तत्त्वों को प्रायोगिक रूप में धारण करना मानवमात्र का कर्त्तव्य है। द्युलोक और पृथ्वीलोक तथा सातों समुद्र तक फैले दूषित पदार्थों के विष को दूर करने वाली यह वैदिक वाणी है-
यावती द्यावापृथिवी वरिम्णा यावत् सप्त सिन्धवो वितिष्ठते।
वाचं विषस्य दूषणीं तामितो निरवादिषम् ।।
पृथ्वी की रक्षा के लिए निरन्तर चिन्तनषील ऋषि कहता है भले ही पृथ्वी का दोहन करो किन्तु जितना दोहन करो उससे दस गुणा वितरण भी करो-
शतहस्त समाहार, सहास्रहस्त संकिर।
अथर्ववेद में तो वैदिक ऋषि ग्रहण के प्रत्युत्तर में समर्पण न करने वाले तथा पृथ्वी का अनावश्यक दोहन करने वालों को मारने तक की बात करता है-
त्विषीमानस्मि जूतिमान वान्यहन्मि दोधतः।
मैं प्रकाशमान्, तेजस्वी, दीप्तिमान् और ज्ञानवान् होकर पृथ्वी का दोहन करने वालों को मारता हूँ।
पृथ्वीं की रक्षा अथवा पर्यावरण की रक्षा सतत जागरूक व प्रमादरहित व्यक्ति ही कर सकता है-
यां रक्षन्ति अस्वप्ना विश्वदानीं देवाः भूमिं पृथिवीम् अप्रमादम्।
सा नो मधुप्रियं दुहामथो उक्षतु वर्चसो।
पर्यावरण का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष है जलीय संरक्षण। आज सम्पूर्ण विश्व में पेयजल की उपलब्धि में न्यूनता आई जिसका कारण है जल- प्रदूषण । आज कल- कारखानों का गन्दा पानी जल को दूषित कर रहा है। महर्षि मनु इसके लिए पूर्व में ही संकेत कर चुके हैं-
महायन्त्रप्रवर्तनम्। ………… उपपातकम्। मनु. 11.63-66
हमारे ऋषियों ने जल की महत्ता को दृष्टिगत रखते हुए जल सम्बन्धी स्तवन अनेक सूक्तों में व्याख्यात किया है जहाँ वरुण देवता की स्तुति एवं स्वरूप विवेचना के साथ ही जल की रक्षा के अनेक उपाय बताये हैं। डॉ. प्रवेश सक्सेना ने वरुण को पर्यावरण – संरक्षक के रूप में देखते हुए ही ‘वयं वरुणे स्याम अनागाः।’ को ‘वयं पर्यावरणे स्याम अनागाः’ के रूप में परिभाषित किया है। भारतीय नौ सेना ने अपना ध्येयवाक्य भी वरुण से सम्बद्ध रखा है और उसके शान्त स्वरूप की कामना की है -‘षं नो वरुणः’। जल की सुरक्षा के लिए ही वैदिक आदेश प्राप्त होता है-‘मापो हिंसीः मौषधीः हिंसीः ।’ तैत्तिरीय आरण्यक में स्पष्ट उल्लेख है कि मूत्र पुरीष आदि से जल को दूषित नहीं करना चाहिये –
नाप्सु मूत्रपुरीषं कुर्यात्। तै. आ.1.26.7
नदियों आदि के जल को प्रदूषण मुक्त रखने का उपाय है – यज्ञ। यज्ञ की सुगन्धित वायु जल प्रदुषण को नष्ट करती है –
अपो देवीः………….. सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः ऋक् 1.23.18
पर्यावरण के मूलतः वास्तविक संघटक तत्त्व तीन ही हैं- जल, वायु और औषधियाँ। ये भूमि को घेरे हुए हैं अत एव इन्हें ‘छन्दस’ कहा गया हैं, इनके नाम और रूप अनेक हैं अतः इन्हें:‘पुरुरूपम्’ भी कहा जाता है –
त्रीणि छन्दांसि कवयो वि येतिरे
पुरुरूपं दर्षतं विश्व चक्षणम्।
आपो वाता ओषधय:
तान्येकस्मिन् भुवन आर्पितानि । अथर्व 18.1.17
पृथ्वी हमारी रक्षा करे तथ हम भी पृथ्वी की रक्षा के लिए सन्नद्ध रहें –
पृथिवि मातर्मा मा हिंसी, मो अहं त्वाम् । यजु.10.23
वायु मानव जीवन का आधार है जो हमें वृक्षो से प्राप्त है। ऋग्वेद में वायु तत्त्व में उपलब्ध अमृत अर्थात् आक्सीजन का स्पष्ट उल्लेख मिलता है-
नू चिन्नु वायोरमृतं विदस्येत् ऋक् 3.37.3
पृथ्वी पर होने वाले सभी प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण को रोकने का कारगर उपाय है, वन एवं वनस्पतियों की रक्षा करना । संस्कृत वाड्मय पर्यावरण के इस मूल रूप वन एवं वनस्पतियों के अत्यधिक सुन्दर रूप में उल्लेखों से भरा पडा है। इसके साथ ही इसकी सुरक्षा के लिए भी अनेकत्र उल्लेख मिलते है । वनस्पति लगाने और दूषित न करने हेतु ऋग्वेद का निर्देश है –
वनस्पतिं वन आस्थापयध्वं
नि षू दधिष्वम् अखनन्त उत्सम् । ऋक् 10.101.11
वृक्ष प्रदूषण को नष्ट करते हैं अत: उन्हें काटना नहीं चाहिये-
मा काकम्वीरम् उद्वृहो वनस्पतिम्
अशस्वीर्ति हि नीनश:। ऋक् 6.48.17
वनस्पति स्वरूप इन ओषधियों को नहीं काटने का निर्देश यजुर्वेद करता है-
ओषध्यस्ते मूलं मा हिंसिषम् । यजु.1.25
पर्यावरण- प्रदूषण के निवारण का सर्वोत्तम उपाय है यज्ञ, जिसे हम आज के भौतिकवाद में लगभग भुला चुके है। छान्दोग्य उपनिषद् में स्पष्ट उल्लेख है कि यह सभी प्रकार की अशुद्धि में अर्थात् प्रदूषणों को दूर कर पवित्र बनाता है –
एष ह वै यज्ञो योऽयं पवते,
इदं सर्वं पुनाति, तस्मादेष एव यज्ञ:। छा.उप.4.16.1
इस प्रकार वनों की रक्षा एवं यज्ञो का आयोजन पर्यावरण के लिए समस्त प्रकार के प्रदूषणों के निवारण के कारगर उपाय हैं।

- प्रो. ताराशंकर शर्मा ‘पाण्डेय’
प्रोफेसरचर साहित्य विभाग
ज.रा.राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर
मकान नं. 2381,खजाने वालों का रास्ता,
जयपुर ।
Search
Popular posts

Popular tags
Comment (1)
Mahesh Chandra Pareek
लेख अत्त्युत्तम है । संक्षेप में सारगर्भित शब्दों के मध्यम से चुनिंदा रचनाकारों के संदर्भ के साथ प्रस्तुति की पूर्णता हुई है।।
मेरा ऐसा मानना है चूंकि मां गंगा के प्रादुर्भाव भागीरथ जी की तप एवम् योग तथा जगत कल्याण की भावना की परिणीति का पता इनका उल्लेख उक्त रचना में पूर्व के भाग में लिया जाना अत्यधिक सार्थक एवं महत्वपूर्ण होता इसे सापेक्षिक तौर पर लिया जा सकता है ना कि विवेचना के रूप में क्योंकि विवेचना का अधिकार मुझ जैसे के लिए अनुपयुक्त होगा।।
आभार ।।