परोपकार के सन्दर्भ में भारतीय दृष्टि- तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा
October 2, 2021 2021-10-02 9:38परोपकार के सन्दर्भ में भारतीय दृष्टि- तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा
परोपकार के सन्दर्भ में भारतीय दृष्टि- तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद् धनम्।।
(ईशावास्योपनिषद् १)
मानवता के आधारभूत गुणों में परोपकार की सत्ता को बनाने में त्याग की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, अतएव वेद में त्याग को ही प्राथमिक उपदेश के रूप में स्वीकार किया गया है। भारतीय दृष्टि में समाज के उत्कृष्ट स्वरूप का मूल आधार हमारा ‘पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वत:’ (ऋग्वेद ६.७५.१४) यह चिन्तन है। यदि प्रत्येक व्यक्ति दूसरों का सहयोग एवं परिपालन करने के लिए तत्पर होगा तो नि:सन्देह हम एक आदर्श समाज की स्थापना करने में सफल होंगे। हम परस्पर अन्य लोगों के हित के बारे में कितना सोचते हैं, कितना त्याग करते हैं, उनका कितना उपकार करते हैं, इसी से समाज की उदात्तता का पता चलता है। वेद के ‘सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ (ऋग्वेद १०.१९१.२) तथा ‘शत हस्त समाहर सहस्र हस्त उत्किर’ (अथर्ववेद ३.२४.५) आदि मन्त्र हमें उच्च आदर्शों से युक्त समाज की स्थापना का ही तो आदेश देते हैं। एक आदर्श समाज का निर्माण तभी सम्भव है, जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तिगत लाभ का त्याग कर सम्पूर्ण समाज के उत्थान एवं अभ्युदय के लिए संकल्पित हो।
एक सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज के प्रति हमारे कुछ कर्तव्य एवं दायित्व भी हैं। परिवार, समाज, राष्ट्र एवं सम्पूर्ण मानव जाति के प्रति हित चिन्तन करना हमारा आत्मिक एवं नैतिक दायित्व है। ‘सर्वजनहिताय’ के मूल में परोपकार की ही भावना है, जो विश्व बन्धुत्व के चिन्तन को प्रशस्त करती है, तथा अपने व्यापक अर्थ में प्राणी मात्र के प्रति दया, प्रेम, उदारता जैसे उदात्त गुणों को विकसित करती है। वस्तुत: हमारी यह सर्वहितकारी दृष्टि ही हमारी विशेषता है-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दु:खभाग्भवेत्।।
परोपकार के मूल में सहानुभूति की भावना है। सहानुभूति के कारण मनुष्य दूसरों के दु:ख की अनुभूति करता है, और उसे उनका सहयोग करने की प्रेरणा मिलती है। भारतीय इतिहास में परोपकार के अनूठे उदाहरण हैं। महर्षि दधीचि ने देवताओं के उद्धार के लिए अपनी हड्डियाँ दे दी। राजा शिवि ने कबूतर की प्राण-रक्षा करने के लिए अपने शरीर का मांस बाज को दे दिया। राजा रन्तिदेव ने अपना सर्वस्व गरीबों को बाँट दिया। राजा दिलीप ने नन्दिनी गाय की प्राण रक्षा करने के लिए स्वयं को सिंह के सुपुर्द कर दिया।
परोपकार भारतीय जीवन दर्शन का आधार है। महर्षि वेदव्यास तो स्पष्ट घोषणा करते हैं- ‘परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्।। इसी को गोस्वामी तुलसीदास ने भी स्वीकारा है- ‘पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीडा सम नहीं अधमाई।।’ इसका तात्पर्य है- परसुखकरणम् परोपकार:, परदु:खकरणम् परापकार:।सौभाग्यजनकादृष्टविशेष: पुण्यम्, दुर्भाग्यजनकादृष्टविशेष: पापम्।। पुण्य पुनीत है, पवित्र है, शुचि है, शिव है, शुभ है, सत्य है और सर्वमङ्गलकारी है। पाप अनिष्टकर है, दुष्ट है, दुर्वृत्त है, अशुभ है और विनाशक है।
मनुष्य का प्रधान कर्त्तव्य है- आत्मा की उन्नति करना- ‘उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।’ (श्रीमद्भगवद्गीता ६.५) व्यक्ति अपने आप से अपना उद्धार करे। अपनी आत्मा को अधोगति में न पहुँचावे। आत्मा की उन्नति पुण्य से है, और पाप से उसका अध:पतन। मनुष्य में दो प्रकार की वृत्तियाँ हैं- उसकी उदात्त वृत्ति उसे सदाचरण एवं सन्मार्ग में प्रवृत्त करती है, उसकी अविवेकवृत्ति उसे सन्मार्ग से च्युत कर दुराचरण में प्रवृत्त करती है। विषयों के प्रति अनासक्ति, प्रेम, उदारता एवं दयालुता आदि प्रवृत्तियाँ ही व्यक्ति को परोपकार के प्रति अग्रसर करती हैं, वहीं आसक्ति, द्वेष, लोभ, भय तथा अहंकार आदि प्रवृत्तियाँ परोपकार के मार्ग में बाधक हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् में एक प्रसंग है- प्रजापति ब्रह्मा की संतति- देवता, मनुष्य एवं असुर ब्रह्मचर्य पूर्वक विद्या अध्ययन के उपरान्त प्रजापति से दीक्षा (उपदेश) देने के लिए बोले। प्रजापति ने तीनों को क्रम से ‘द’ अक्षर कहा, तथा तीनों से क्रम से पूछा-समझ गए क्या? देवता बोले- आपने हमें ‘दाम्यत’ (दमन करो) ऐसा कहा। मनुष्यों ने बताया- आपने हमें ‘दत्त’ (दान करो) ऐसा कहा। असुरों ने कहा- आपने हमें ‘दयध्वम्’ (दया करो) ऐसा कहा है। प्रजापति ने कहा- तुम बिलकुल सही समझ गए। प्रजापति के इस अनुशासन का मेघगर्जना रूपी दैवी वाक् आज भी द द द इस प्रकार अनुवाद करती है, अर्थात् दमन करो, दान करो, दया करो। अत: दम, दान और दया इन तीनों को सीखें- ‘त्रय: प्राजापत्या: प्रजापतौ पितरि ब्रह्मचर्यमूषुर्देवा मनुष्या असुरा उषित्वा ब्रह्मचर्यं—-तदेतदेवैषा दैवी वागनुवदति स्तनयित्नुर्द द द इति दाम्यत दत्त दयध्वमिति तदेतत्त्रय शिक्षेद्दमं दानं दयामिति। (बृहदारण्यकोपनिषद् ५.२.१-३) मनुष्य को भोग, लोभ तथा हिंसा की प्रवृत्ति को त्यागकर दमन, दान तथा दया की इस परोपकार-प्रवृत्ति को अपनाने का यह उपदेश ही विश्व को एक उदात्त एवं आदर्श स्वरूप प्रदान कर सकता है। अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध कवि T.S. Eliot ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कविता, The Waste Land (जिस पर उन्हें नॉबेल पुरस्कार मिला) में बृहदारण्यकोपनिषद् के इस प्रसंग का प्रमुखता से उल्लेख करते हुए कहा है कि प्रजापति के इस उपदेश का पालन कर ही हम इस धरती को रहने लायक बना सकते हैं, इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। अपनी कविता के अन्त में T.S. Eliot लिखते हैं-
Datta, Dayadhvam Damyata
Shantih Shantih Shantih.
वेद कहता है – ‘मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।’ (ऋग्वेद १०.५३.६) इस मानवीय संस्कृति का प्रयोजन धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय है। इनमें भी परम प्रयोजन तो मोक्ष प्राप्ति ही है। निष्काम भाव से किया गया परोपकार ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। समस्त भौतिक सुविधाओं अथवा भोगों को अनासक्त भाव से ग्रहण किया जाए, क्योंकि भौतिक सुविधाएँ या भोग अनित्य हैं। ये वास्तविक सुख न होकर सुख का आभास मात्र हैं, और वस्तुत: दु:ख के ही हेतु हैं-
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ५.२२)
तात्पर्य यह है कि सांसारिक भोगों में निरन्तर सुख प्रदान करने का सामर्थ्य नहीं है। भगवान् विषय भोग को ‘परिणामे विषमिव’ (श्रीमद्भगवद्गीता १८.३८) कहते हैं। अत: इस विषय भोग से निवृत्त चित्त ही परोपकार में प्रवृत्त होता है। स्वयं भगवान् श्री हरि ने परोपकार और मोक्ष को तोल कर देखा तो पाया कि परोपकार मोक्ष से भी अधिक भारी है। इसलिए परोपकारार्थ ही उन्होंने दश अवतार लिए-
परोपकृतिकैवल्ये तोलयित्वा जनार्दन:।
गुर्वीमुपकृतिं मत्वा ह्यवतारान् दशाग्रहीत्।।
इस संसार में अपने लिए तो सभी जीते हैं, परन्तु वास्तव में तो वही जीता है, जो परोपकार के लिए जीता है-
आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानव:।
परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति।।
स्वयं भगवान् कहते है- ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।’ (श्रीमद्भगवद्गीता १५.७) समस्त जीव मात्र परमात्मा का ही अंश है, उपकारकर्ता भी परमात्मा का अंश है, जिसका उपकार किया जा रहा है, वह भी परमात्मा का अंश है। अत: परोपकार तो ‘त्वदीय वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये’ अथवा ‘श्री नारायणाय सर्वं समर्पितमस्ति। न मम।।’ मात्र ही हैं। ‘खण्डनखण्डखाद्यम्’ में श्रीहर्ष भी यही कह रहे हैं- ‘वयं त्विदानीं सर्वं भारं तत्रैव समर्प्य सुखमास्महे।’
परोपकार की प्रशंसा में प्राय: विश्व की समस्त भाषाओं के कवियों ने अपनी लेखनी चलाई हैा संस्कृत साहित्य तो परोपकार के महिमा-गान से भरा पड़ा है। यहाँ कल्हण द्वारा राजतरङ्गिणी (५.३६) में राजा अवन्तिवर्मा के बन्दी कृतमंदार द्वारा सभा में नित्य पढी जाने वाली आर्या के साथ अपना कथन समाप्त करते हैं-
अयमवसर उपकृतये प्रकृतिचला यावदस्ति सम्पदियम्।
विपदि सदाभ्युदयिन्यां पुनरुपकर्तुं कुतोऽवसर:।।
अर्थात् चञ्चल स्वभाव वाली यह सम्पत्ति जब तक है, तब तक उपकार के लिए यह अवसर प्राप्त है। सदा अभ्युदय प्राप्त करने वाली विपत्ति आने पर पुन: उपकार के लिए अवसर कहाँ से प्राप्त होगा।

डॉ. सुभाष शर्मा
पूर्व विभागाध्यक्ष एवं अधिष्ठाता-साहित्य
ज.रा.राज.संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर
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