संस्कृत साहित्य में महाराणा प्रताप
June 12, 2021 2021-06-12 23:34संस्कृत साहित्य में महाराणा प्रताप

राजस्थान संस्कृत अकादमी के यशस्वी प्रशासक तथा जयपुर के कुशल और सर्वप्रिय सम्भागीय आयुक्त श्री दिनेश कुमार यादव जी , अकादमी के निदेशक सुकवि, समीक्षक, सर्वदा प्रसन्नमुख रहने वाले हम सबके मित्र, बन्धुवर संजय झाला जी, इस कार्यक्रम को देखने और सुनने के लिये फेस – बुक तथा यूट्यूब के माध्यम से एकत्र नानाशास्त्रों में पारङ्गत विद्वज्जन , अपनी मनीषा को प्रखर करने में संलग्न शोधच्छात्र तथा शोधच्छात्रायें, मेरे अन्य मित्रगण ! सर्वप्रथम मैं आप सबको महाराणा प्रताप की जयन्ती की कोटिशः बधाइयाँ और शुभकामनायें देता हूँ । इन महापुरुषों की जयन्तियाँ, उनकी स्मृतियाँ, उनके चरित्र, राष्ट्राराधनव्रत , कर्तव्यपरायणता, जनता की सेवा के लिये उनकी तत्परता आदि का स्मरण करके हम अपने को धन्य करते हैं, अपने अतीत और प्राचीन वैभव से जुड़ते हैं तथा उनसे बहुत कुछ सीखकर अपने जीवन में उतारते हैं और अपने जीवन को गतिशील बनाते हैं । साहित्य अपने इन्हीं नायकों का गुणानुवाद करता है तथा उसे पीढ़ियों तक सम्प्रेषित करता रहता है । हम आज जिस वंश के महान् योद्धा का स्मरण करने के लिये एकत्र हैं, वह वंश सदा धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिये तत्पर रहा है, मेवाड़ राजवंश का ध्येय वाक्य ही “ जो दृढ़ राखै धरम को, तेहि राखै करतार” है । इस ध्येय वाक्य में “धर्म” शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो प्रत्येक व्यक्ति को अपने अपने कर्म के लिये प्रेरणा देता है। महाराणा प्रताप ऐसे ही धर्मपरायण महान् देशभक्त तथा स्वन्तन्त्रता के परम उपासक थे । उन्होंने अपने धर्म को कभी झुकने नहीं दिया तथा अधर्म और अन्याय के सम्मुख कभी आत्मसमर्पण नही किया । महाराणा प्रताप का संस्कृत भाषा तथा साहित्य पर महान् अनुराग था, वे निर्भीक, वीर और निःस्पृह योद्धा थे । उनके दरबार में चक्रपाणि मिश्र जैसे महान् शास्त्रज्ञ पण्डित थे जिन्होंने राज्याभिषेकपद्धति, मुहूर्त्तमाला तथा विश्ववल्लभ जैसे महनीय ग्रन्थों की रचना की । राज्याभिषेकपद्धति मूलतः राजाओं की लुप्त हो रही राज्याभिषेक विधि को पुनरुज्जीवित करने कि लिये लिखी गयी थी । कहा जाता है कि मुगलकाल में वैदिक विधि से राज्याभिषेक की पद्धति प्रायः लुप्त होती जा रही थी । मुगल सम्राट् द्वारा प्रेषित “शाही खिलअत” को पहन करके ही राजा अपने को अभिषिक्त मान लेता था । महाराणा प्रताप को यह विधि उचित नहीं लगी और उन्होंने चक्रपाणि मिश्र को “राज्याभिषेकपद्धति” के प्रणयन के लिये प्रोत्साहित किया । यह भी सुना जाता है कि छ्त्रपति शिवाजी के राज्याभिषेक के लिये भी यही पद्धति भेजी गयी थी । विश्ववल्लभ मूलतः वृक्षायुर्वेद का ग्रन्थ है । आधुनिक कृषि वैज्ञानिकों ने भी इस ग्रन्थ की वैज्ञानिकता स्वीकार की है। राजाओं में प्रायः यह परम्परा देखी जाती है कि वे अपने राजाश्रित कवि या पण्डित द्वारा लिखे ग्रन्थ के नाम में कहीं न कहीं अपना नाम अवश्य जोड़ते थे । राणा प्रताप चाहते तो “विश्ववल्लभ” ग्रन्थ का “प्रतापवल्लभ” नाम करवा सकते थे किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया । सम्भवतः किसी भी राजाश्रय में “ विश्व” को प्रिय मानकर लिखा गया यह प्रथम ग्रन्थ है।
मेवाड़ राज्य अपनी स्थापना काल से ही अपनी दानवीरता, धर्मवीरता, दयावीरता तथा युद्धवीरता के लिये प्रख्यात रहा है। इस वंश का विद्या और कला प्रेम भी विख्यात है । राणा प्रताप को स्वाभिमान और स्वातन्त्र्य भावना वंशानुगत रूप से मिली थीं । राणा प्रताप में नेतृत्व की अपूर्व शक्ति थी , लोक उनका दीवाना था । राणा प्रताप संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी तथा राजस्थानी साहित्य में तो अमर हैं हीं, लोकगीतों में भी उनकी वीरता के स्वर सुनायी पड़ते हैं । ऐसे कम ही शासक होते हैं जो लोकमानस में अमर हो पाते हैं । राणा प्रताप पर संस्कृत में प्रायः सभी विधाओं में काव्यरचना हुयी है । महाकाव्य, खण्डकाव्य, गद्यकाव्य तथा नाट्य आदि के माध्यम से संस्कृत कवियों ने उनके वैशिष्ट्य को अंकित किया है । राजप्रशस्ति, राजरत्नाकर जैसे मेवाड़ के राजाश्रित कवियों द्वारा लिखे गये महाकाव्यों में महाराणा प्रताप का उज्ज्वल चरित्र देशभक्ति तथा प्रजाप्रेम प्राप्त होता है। अमरकाव्यम्, अमरसार इत्यादि महाराणा प्रताप के इतिहास के प्रमुख स्रोत हैं । प्रसिद्ध इतिहासकार रायबहादुर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा मानसिंह तथा राणा प्रताप के मध्य हुयी शत्रुता का उल्लेख करते हुये कहते हैं – “ बादशाह अकबर ने गुजरात को विजय कर लिया था, परन्तु थोडे ही समय पीछे वहाँ मिर्ज़ा मुहम्मद हुसेन और सरदार उल्मुल्क की अध्यक्षता में विद्रोह हो गया, जिसकी सूचना पाकर बादशाह को शीघ्र ही उधर जाना पडा । वहाँ शान्ति स्थापित कर वह तो अपनी राजधानी को वापस लौटा और कुँवर मानसिंह को बहुत सी सेना के साथ डूँगरपुर तथा उदयपुर की तरफ़ यह आज्ञा देकर भेजा कि जो हमारी अधीनता स्वीकार करे उसका सम्मान करना और जो ऐसा न करे उसे दण्ड देना । शाही फौज ने डूँगरपुर को विजय कर लिया । फिर वह महाराणा को समझा कर बादशाही सेवा स्वीकार कराने के विचार से विक्रम संवत् १६३० आषाढ़ (ई. सन् १५७३, जून ) में उदयपुर आया। महाराणा ने उसका आदर कर उसके साथ स्नेहपूर्वक व्यवहार किया । कुँवर ने बादशाही सेवा स्वीकार कराने के लिये बहुत कुछ उद्योग किया जो सब प्रकार से निष्फल ही हुआ । वहाँ से उसके विदा होने से पहले महाराणा ने एकदिन उसके लिये उदयसागर की पाल पर दावत का प्रबन्ध किया और कुँवर अमर सिंह तथा मानसिंह को साथ लेकर वह वहाँ पहुँचा । भोजन के समय स्वयं महाराणा उपस्थित न हुआ, कुँवर मानसिंह को आज्ञा दी कि तुम मानसिंह को भोजन करा देना। भोजन के समय मानसिंह ने महाराणा के भोजन में सम्मिलित होने का आग्रह किया तो अमरसिंह ने उत्तर दिया कि महाराणा के पेट में कुछ दर्द है । इसलिये वो उपस्थित न हो सकेंगे । आप भोजन कीजिये, इस पर जोश में आकर मानसिंह ने कहा कि इस पेट के दर्द की दवा मैं खूब जानता हूँ” ( उदयपुरराज्य का इतिहास, प्रथम भाग , पृ. ४२६ – २७)। राजप्रशस्ति महाकाव्य के चतुर्थ सर्ग में भी इस घटना का उल्लेख हुआ है –
प्रतापसिंहोऽथ नृपः कच्छवाहेन मानिना ।
मानसिंहेन तस्याऽऽसीद् वैमनस्यं भुजेर्विधौ।।
अकबरप्रभोः पार्श्वे मानसिंहस्ततो गतः ॥ २१ –२२॥
राजरत्नाकर में भी यह प्रसंग स्पष्टतः प्राप्त होता है –
आमन्त्रितः स समयान्नरदेवगेहे भोक्तुं नृपः सपृतनः किल मानसिंहः ।
श्रीचित्रकूटपतिना सह भोक्तुकामो मार्गं व्यलोकयत च तस्य सुधर्ममूर्तेः ॥
अत्यादृतोऽपि न समेति यदा स भोक्तुं श्रीमेदपाटविषयेश्वरवंशदीपः ।
कूर्मस्तदा किमिति नेत इति स्वकीयानाऽऽगन्तुकः स्म परिपृच्छति वृद्धपुंसः॥
अत्रान्तरे श्रवसि कोऽपि जनोऽस्य राज्ञः स्वास्ये निधाय वसनाञ्चलमित्यगादीत् ।
सत्क्षत्रिया महति राजकुले प्रजाता नो भुञ्जते यवनसङ्गवता सहैते ॥
इत्थं निशम्य कटुवाचमदीनसत्त्वो राजोदतिष्ठदरुणायितनेत्रकोणः।
श्मश्रु प्रमृज्य करजेन सवाहिनीकः शीघ्रं जगाम च चकत्तनरेशगेहम् ॥
तस्मिन् गते नरपतौ नरदेवमुख्यः प्रक्षाल्य वेश्म किल विष्णुपदीपयोभिः।
मृद्गोमयेन परिलिप्य च भाण्डजातं निष्कास्य तद्विनिदधे च पुनर्नवीनम् ॥ ७. ३ – ७.७ ॥
मानसिंह और राणा प्रताप की शत्रुता का मूल अकबर की अधीनता न स्वीकार करना तथा उस प्रसंग में घटी यह घटना रही । संस्कृत साहित्यकारों ने राणा प्रताप की देशभक्ति और जीवनगाथा का गान करने के लिये अपनी तीक्ष्ण लेखनी चलायी , उनका समर्थन किया तथा अपने काव्यों के माध्यम से उन्हें अमरत्व प्रदान किया । आन्ध्रमूल के पुणे निवासी ओगेटि परीक्षित शर्मा ने रामायण की तर्ज पर राणा प्रताप के जीवन पर “श्रीमत्प्रतापराणायनमहाकाव्य” की रचना की । रामायण के अनुसार इस महाकाव्य में भी छः काण्ड हैं। प्रत्येक काण्ड सर्गों में विभक्त है । गुजरात के मूलशंकर माणिकलाल याज्ञिक ने “प्रतापविजयम्” नाम से नव अंकों के महनीय नाटक की रचना की । इस नाटक की प्रस्तुति केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर के छात्रों द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर की गयी । मधुसूदन सरस्वती के वंशज हरिदास सिद्धान्त वागीश, मथुरा प्रसाद दीक्षित आदि कवियों ने राणा प्रताप के जीवनचरित को नाट्य विधा में गाया तो देहरादून निवासी श्रीकान्त आचार्य ने शिवराजविजय की पद्धति को अपना कर “प्रतापविजयः” उपन्यास की रचना की जो पन्द्रह निश्श्वासों में विभक्त है। अनेक कवियों ने खण्डकाव्यों की भी रचना की जिनमें ईशदत्तविरचित “प्रतापविजयम्” मनोरम तथा ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है ।
महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भल गढ में ९ मई १५४० को महाराणा उदय सिंह (द्वितीय )तथा जयवन्ता बाई के पुत्र के रूप में हुआ । १ मार्च , १५७६ को उन्होंने मेवाड़ के ४९ वें उत्तराधिकारी के रूप में गद्दी सम्हाली । जिस समय राणा प्रताप सिंहासनारूढ हुये उस समय मुगलों की क्रूरता और अत्याचार चरम पर थे । अनेक राजपूत राजा अकबर की अधीनता स्वीकार कर उसके शरणागत हो गये थे , कई राजवंश अपनी मर्यादाओं को भूलकर मुगल वंश से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर लिये थे किन्तु राणा प्रताप इससे सहमत नहीं थे । उन्होंने संघशक्ति से शत्रुओं को जीतने का उपक्रम करते हुये वन में निवास किया। जैसे सूर्य के प्रताप से उल्लू भयसन्तप्त हो जाता है उसी प्रकार राणाप्रताप के भय से अकबर सन्तप्त होता था –
बाल्यात् प्रतापसिंहोऽयं भिल्लैः सार्धं वसन् प्रियम् ।
सङ्घशक्त्या परान् जेतुं यतते स्म स्वयं धिया ॥
भास्करस्य प्रतापेन दिवान्धः सर्वदा यथा ।
सन्तापितो भिया भाति प्रतापेन तथा नृपः ॥
श्रीमत्प्रतापराणायनम्, उदयकाण्ड, २. १५ –१६
ओगेटि परीक्षित शर्मा ने श्रीमत्प्रतापराणायनं में महाराणा प्रताप के कतिपय उन पक्षों को उकेरा है जो इतिहास में प्रसिद्ध हैं किन्तु प्रायः सभी संस्कृत कवियों ने उनको उतना विस्तार नही दिया । इस महाकाव्य में राणा प्रताप धीरोदात्त कोटि के नायक हैं –
धीरोदात्तैर्गुणैर्युक्तः राणाशत्रुभयङ्करः
धर्मभीरुः स्थितप्रज्ञः सङ्ग्रामे भीमविक्रमः ॥
अयं धीरः प्रसन्नात्मा त्यागी राष्ट्रहितेच्छुकः।
भुवौकसां समाराध्यः साक्षाद् रामविभुः स्वयम्॥ पृ. १००, श्लोक ५०८
ओगेटि शर्मा राणा प्रताप में राम के गुणों का साक्षात्कार करते हैं । राष्ट्र को दुष्टों से मुक्त कराने के लिये राम ने चौदह वर्षों तक वन में निवास किया, सेना को संगठित किया । उन्होंने न केवल मानवों, अपितु वानर और भालुओं की सहायता ली । राम के सहायक वन्यप्राणी थे, राणा प्रताप ने भी भील और आदिवासियो को संगठित कर मजबूत सेना तैयार की । राणा प्रताप महान् देशभक्त थे , प्रेम आत्मसमर्पण का ही दूसरा नाम है। प्रेमी अपने प्रिय के लिये सर्वदा उत्सर्ग करता है, वह उसका प्रतिदान या प्रत्युपकार नहीं चाहता । राम का जीवन देशप्रेम की इसी उदात्तता का निकषोपल है । राणा प्रताप भी राम की भाँति राष्ट्राराधन हेतु वन – वन भटके । राणा प्रताप के चरित्र में देशभक्ति की पराकाष्ठा सुशोभित होती थी । देश के भाग्योदय के लिये उन्होंने उन्नीस वर्षों तक ठण्डी, गर्मी और वर्षा को सहन करते हुये वन में निवास किया। जिस प्रकार राष्ट्र की रक्षा के लिये श्रीराम ने चौदह वर्षों तक वन में निवास किया, पाण्डवों ने तेरह वर्षों तक कष्ट सहन किया ? उसी प्रकार राणाप्रताप ने म्लेच्छों से देश की रक्षा के लिये स्त्री और पुत्रों के साथ वन में निवास किया । ( श्रीमत्प्रतापराणायनम्, उदयकाण्ड, २.१५-१६)
संस्कृतसाहित्य में महाराणा प्रताप स्वाभिमानी तथा सब को साथ लेकर चलने वाले राजा के रूप में वर्णित हैं । प्रताप सिंह सदा प्रसन्नचित्त रहने वाले थे, वे शक्तिशालियों में श्रेष्ठ थे, उन्नत भाल, कमल के समान लोचन, शरत्कालीन चन्द्रमा के समान गौर, विस्तीर्ण वक्षस्थल से युक्त, हाँथ में भाला धारण करने वाले थे । शत्रुनाशक, धरा के इन्द्र राणा प्रताप को देखकर आदर से किसका मस्तक नहीं झुक जाता था ? प्रतापविजय खण्डकाव्य में महाकवि श्रीशदत्त उनके स्वरूप का प्रभावशाली वर्णन करते हैं –
अभूत् पुरा भारतभाविभासकः स एकलिङ्गस्य सदङ्घ्र्युपासकः।
महाबली दुर्गचितौरशासकः प्रतापसिंहः परतापनाशकः ॥
विशालवक्षा अधिपाणिभासयन् महाकरालं करवालकालकम् ।
इवेन्द्रवज्रः स महीध्रमण्डलान् जघान लोकेषु शठान् हठान्वितान् ॥
प्रसन्नचेता बलिनां धुरन्धरः लसल्ललाटः परिणद्धकन्धरः ।
नवाब्जनेत्रः शरदिन्दुसुन्दरः स वेशतोऽभूद् भुवने पुरन्दरः ॥
गरीब उन्हें कल्पवृक्ष के समान देखते थे , वीर उन्हें इन्द्र समझ कर प्रणाम करते थे , शत्रु इन्हें अपना काल समझते थे तथा कुछ लोग उन्हें कलियुग में कल्कि भगवान् का अवतार मनते थे –
अकिञ्चनैः कल्पतरुप्रभीकृतः स्वयं विडौजा इति वीरवन्दितः ।
धृतोऽरिभिः काल इव स्वमानसे स कल्किकल्पः कलितः कलौ जनैः ॥ प्रतापविजय, ४०॥
स्वतन्त्रता के लिये प्रताप अपने स्त्री और पुत्रों के साथ वन – वन भटके , अनाथ स्त्रियों के शोक से वह चिन्तित रहते थे , गायों और ब्राह्मणों के गिर रहे आँसुओं को पोंछते थे, वह आर्य जाति के आभूषण थे ।
रणछोड़ भट्ट के राजप्रशस्ति तथा अमरकाव्यम् , सदाशिव के राजरत्नाकर और जीवंधर के अमरसार जैसे महाकाव्यों तथा काव्यों में राणा प्रताप का उल्लेख प्राप्त होता है। रणछोड़ भट्ट तथा सदाशिव दोनो ही मेवाड नरेश राजसिंह के सभा कवि थे । राजप्रशस्ति को महाराणा जयसिंह ने २५ शिलाओं में उत्कीर्ण कराकर राजसमन्द झील में लगवाया । राजरत्नाकर के अनुसार उदयसिंह के बाद राणा प्रताप सिहासन पर विराजमान हुये । मुगलों के अत्याचार से पीडित भारत वर्ष को देख कर प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी –
अत्स्यामि पत्रपुटके न पुनर्न हैमे।
वत्स्यामि वर्णभवने विजने न हर्म्ये ।
स्थास्याम्यहं भुवि तृणासनकेषु तेषु
न त्वच्छरत्नरचितेषु नृपासनेषु ॥ ५२।।
मैं राणाप्रताप जब तक भारतभूमि को मुगलों के आतंक से मुक्त नहीं करा लेता तब तक पत्तलों में भोजन करूँगा, स्वर्णपात्रों में नहीं , जंगल में निवास करूँगा, महलों में नहीं, घासफूस से बने आसन पर बैठॅूंगा ,सिंहासन पर नहीं। चाहे चन्द्रमा दिन में तपने लगे , सूर्य पश्चिम से उगने लगे, कल्पवृक्ष स्वयं सूख जाय किन्तु मेरी प्रतिज्ञा व्यर्थ नहीं होगी।
“वप्पाकुलेऽमलतमे” न गृहीतजन्मा
नाऽहम्प्रताप इति विश्रुतभीमकर्मा ।
वीराङ्गना न जननी मम नाऽस्मि शूरः
चेन्म्लेच्छमण्डलमहं निखिलं न हन्मि ॥ ५९॥
अगर मैने सम्पूर्ण मुगलों का विनाश नहीं किया तो मानो मैं कीर्तिशाली वप्पाकुल में नहीं जन्मा, मैं भीमकर्मा प्रतापसिंह नहीं कहलाऊँगा , मेरी जननी वीरांगना न मानी जाय और मैं शूरवीर न समझा जाऊँ ।
राजरत्नाकर महाकाव्य के प्रणेता सदाशिव जयपुर के राजा मानसिंह तथा महाराणा प्रताप के बीच हुयी शत्रुता का उल्लेख करते हुये हल्दीघाटी के युद्ध का विस्तृत वर्णन करते हैं । राणा प्रताप भोजन के समय सायं तथा प्रातः अन्नसत्र करते थे । मेवाड राजवंश का यह सनातन व्रत था । एकबार राजा मानसिंह गुजरात विजय करके लौट रहा था। मार्ग में वह उदयपुर में रुका । राणा प्रताप ने सेनासहित मान सिंह को भोजन के लिये आमन्त्रित किया किन्तु स्वयं मान सिंह के साथ भोजन नहीं किया । मानसिंह के साथ राणा प्रताप भोजन करने क्यों नही आये , इस कारण का उल्लेख प्रतापविजयकार ने ओजस्वी भाषा में दिया है –
पितामहस्ते यवनाय कन्यकां ददौ यतः किन्न कुलं कलङ्कितम्।
तथाऽपि सार्धं मयकैन भोजनं न मान ! एवं भज माननीयताम् ॥ ७२॥
वयं क्व वर्णाश्रमधर्ममर्मगाः सदा सदाचारविचारधारकाः।
स्वजातिहीनाः कुलधर्मतश्च्युताः क्व हन्त ! यूयं कृमितुल्यजन्तवः ॥ ७३॥
सह त्वया हन्त ! कृतेऽनुरञ्जने न किं विरुद्धं जगतीतले भवेत् ।
क्व दन्तिनः स्याच्छशकेन मित्रता क्व जम्बुकः सिंहसखः श्रुतस्त्वया ॥ ७४॥
हल्दीघाटी के युद्ध का प्रत्यक्षदृष्टवत् वर्णन करने में संस्कृत कवियों ने अपूर्व सफलता पाई है । राणाप्रताप के चेतक घोड़े का वर्णन करते हुये हिन्दी कवि श्यामनारायण पाण्डेय ने “रण बीच चौकड़ी भर भर कर चेतक बन गया निराला था “ जैसे गीत गाये । संस्कृत कवियों की दृष्टि में भी चेतक का महत्त्व कम नहीं है । वह महान् स्वामिभक्त , अपने स्वामी के संकेतों को जानने वाला तथा युद्धकौशल में पारङ्गत था । संस्कृत का कवि हल्दी घाटी के उस प्रत्येक रजःकण और उस प्रत्येक प्रस्तरखण्ड को नमन करता है, जिनका राणा प्रताप ने शत्रुओं के रक्त से अभिषेक किया है। युद्धारम्भसूचक दुर्धर दुन्दुभी के तुमुल नाद के साथ हल्दीघाटी में रौद्ररस मूर्तिमान् हो उठता है। राणा प्रताप को युद्ध के लिये सजा देख कर ऐसा लगने लगता है मानो प्रलय के लिये साक्षात् भव ही तत्पर होकर आ गये हैं । श्रीशदत्त की अनुप्रासानुप्राणित कविता इस प्रसंग को सहृदय के सम्मुख प्रत्यक्ष उपस्थापित कर देती है –
भुवं भृकुट्या भृशमाविभीषयन् भुजङ्गभीमोऽमितभूतिभूषितः।
विधातुकामः प्रलयं भयङ्करं
लयङ्करः किं भव एव भात्ययम् ॥
कभी राणा को देख कर कार्तिकेय का भ्रम होता है तो कभी वह वज्रधारी इन्द्र या गाण्डीवधारी अर्जुन प्रतीत होने लगते हैं । कवि यहाँ राणा प्रताप के अस्त्रों का वर्णन करता हुआ भयानक रस की सृष्टि करता है। राणाप्रताप के भाले का वर्णन करता हुआ वह कहता है –
अलक्षि विद्युत्फलकोपमः परैरतर्कि तर्कैकधनैर्यमोऽपरैः ।
अमानि कैश्चिच्च पलायनेऽपरैः सुदर्शनो दर्शनमात्रकातरैः ॥
प्रताप का भाला रणभूमि में शत्रुओं को बिजली की धार की तरह प्रतीत हो रहा था । कुछ ने उसे यमराज समझा तो डर कर भागने वालों को वह विष्णु के सुदर्शन चक्र की तरह लगा । युद्धभूमि में प्रवेश करते हुये राणा प्रताप की ललकार सहज रोमाञ्चित कर देती है । अपनी वंशपरम्परा , उनके द्वारा की गयी देशसेवा तथा राक्षसों के वध का स्मरण करता हुआ ललकारता है –
अद्यापि पश्यतु जगद्रघुवंशवीर्यं
ग्रन्थेषु मत्कृत इदं विलिखन्तु विज्ञाः।
एकोऽपि कोपिततमः कतमः परेण
दिल्लीश्वरेण समरं समरीरचद् यः ॥
संसार आज फिर रघुवंशियों के पराक्रम को देखे । विद्वज्जन मेरे इस युद्ध को इतिहास में लिखें कि एकबार कुपित किये गये किसी अकेले व्यक्ति ने दिल्लीश्वर से मोर्चा लिया था । एकलिङ्ग के जयघोष के साथ समर में मारकाट मचाता हुआ राणा प्रताप यवनों को कोमल पल्लव की तरह काटने लगता है । उसका अश्व चेतक स्वामी के भाले की टंकार को सुन कर उत्साह से हेषा रव करने लगता । वह इतने वेग से दौड़ रहा था कि उसके ग्रीवा के बाल लहरा रहे थे और उसके वेग के कारण पृथ्वी हिल रही थी । प्रताप सिंह को अपनी पीठ पर पाकर चेतक महाभयंकर हो गया था , वह सर्प की तरह फुफकारता हुआ बड़े बड़े गजराजों को रौंद रहा था। उसके टापों के प्रहार से धरती फट रही थी , उसकी गति क्षण भर के लिये चमकी बिजली की तरह तेज थी । उसे देखकर यवन पीडित हो रहे थे –
निशम्य राणा कृतकुन्ततङ्कृतिं स चेतकश्चारु चकार हुङ्कृतिम्।
उदग्रवेगोच्छलदच्छकेशरः चचाल युद्धेऽप्यचलां प्रचालयन् ॥
प्रमत्त आशीविषवत् समन्धयन् निबन्धयंश्चापि महामतङ्गजान् ।
प्रतापसिंहाश्रितपृष्ठभीषणः रणाङ्गणे रिङ्गणमातताम सः ॥
खुराग्रभागेन विदारयन् भुवं निशामयंश्चाप्रियभैरवं स्वम्।
क्षणप्रभोत्पातनिपातचञ्चलः न कं चकारार्ततरं स चेतकः ॥ १३०–१३२॥
युद्धभूमि में प्रताप निर्भय होकर अपने वीरों को ललकार कर प्रोत्साहित कर रहे थे –
त्वं छिन्धि भिन्धि परिदारय त्वम्।
त्वं खण्डय ज्वलय कर्तय पातय त्वम् ।
आदेशयन्ननु पदं विपदङ्कमूर्तिः
युद्धे प्रतापनृपतिर्द्रढिमोत्कटोऽभूत् ॥
युद्धभूमि में कहीं घोड़ा कट कर गिर रहा था , कहीं हाथियों के शुण्ड कट रहे थे और उसकी पीड़ा से हाथी चिग्घाड मार रहे थे । इस प्रकार राणा प्रताप शत्रुओं को पशुमार मार रहे थे ।
इसी बीच उनका अश्व चेतक घायल हो जाता है । मूलशंकर माणिकलाल याज्ञिक का प्रतापविजय नाटक नौ अंकों में निबद्ध विशाल नाटक है । यह नाटक भाषा और भावों से परिपूर्ण है ।कवि प्रतापविजय नाटक में यह सूचित करता है कि चेतक मानसिंह के गज पर आरूढ़ हो गया और राणा प्रताप ने भाले से मान सिंह पर प्रहार किया किन्तु उस हाथी के शुण्ड के अग्रभाग में रखे खड्ग से चेतक का पैर व्रणित हो गया । उसके लिये राणा प्रताप दुःखी हो रहे थे तभी उन्हें झाला मानसिंह की मृत्यु का समाचार मिलता है । चेतक पर विलाप करते हुये राणाप्रताप विह्वल हो जाते हैं । वह समग्र प्रकरण करुण रस की सृष्टि करता है। श्रीमत्प्रतापराणायनम् महाकाव्य में ओगेटि परीक्षित शर्मा राणा के विलाप को वियोगिनी छन्द में निबद्ध किया है-
अथ किं कथयाऽश्वतल्लज कथमेवं कृतवानसि स्वयम् ।
निवसन् मम सन्निधौ सखे अनधीतोऽसि मदीयभावनाम् ॥(पृ. –३४५– ३५०)
राणाप्रताप का चेतक के लिये विलाप उस पर उनके अनुराग को दिखाता है । राणा उसकी चाल, उसकी निपुणता , बुद्धिमत्ता आदि का स्मरण करते हुये विलाप करते हैं । वह उसे उच्चैःश्रवा से उत्पन्न बताते हैं।
राजस्थान में प्रणीत रूपक साहित्य में राणाप्रताप का उज्ज्वल और स्वाभिमानी चरित्र उभरा है । मेवाडमार्तण्ड, राज्याभिषेक, चित्तौड़सिंह , प्रतापसिहीय आदि रूपकों में राणा के विभिन्न गुणों का निदर्शन प्राप्त होता है। राणा प्रताप मानसिंह को स्पष्ट कहते हैं-
मानसिंह ! म्लेच्छानां दास्येन त्वमियान् कापुरुषः सञ्जातो यद्राजपुत्रः म्लेच्छैः पराजेष्यन्त इति विभेषि । निश्चितं जानीहि यत् सीसोदिया क्षत्रिया मोगलान् सम्मुख समरे समामन्त्रयितुं सर्वदा सज्जाः। (प्रतापसिंहीयम्, पृ. २३७)।
श्रीकान्त आर्य अपने गद्यकाव्य “प्रतापविजयः” में पन्द्रह निश्श्वासो में राणा प्रताप का विशद वर्णन करते हैं । प्रतापसिंह की प्रतिज्ञा का वर्णन करता हुआ कवि राणा प्रताप के मुख से कहता है –
सफलयिष्यामि वीरजननीस्तन्यपानम् । इतः प्रभृत्येव स्वर्णरजतादिभोजनपात्राणि परिहाय पर्णपात्रे भोजनं करिष्ये । कोमलानि वासांसि परित्यज्य स्वदेशीयतन्तुवायनिर्मितानि स्थूलवस्त्राणि परिधास्ये । स्वाद्वन्नानि परिहाय जीवनयापनमात्रोपयिगि अन्नमत्स्यामि ( पृ. ३८)।
श्रीकान्त आर्य का महाराणा प्रताप का गद्यविधा में विशद वर्णन करना उनका श्लाघ्य प्रयास माना जाना चाहिये । मेवाडप्रतापं नाटक में राणा प्रताप का चरित्र अंकित करने में हरिदास सिद्धान्तवागीश अत्यन्त सफल हुये हैं । इस नाटक का प्रथम मंचन सन् १९४५ में स्टार रङ्गमञ्च , कलकत्ता में हुआ । कवि ने भिल्लों के गान तथा मञ्च में ही चेतक के मरण की योजना करके कुछ नया करने का उपक्रम किया है । राणा प्रताप की देशभक्ति का चित्रण करने में भी कवि सफल हुआ है । मथुरा प्रसाद दीक्षित ने भी ”वीरप्रतापम्” नामक नाटक की रचना की है । इस नाटक में सिंहासनारूढ़ होते ही राणा प्रताप प्रतिज्ञा करते हैं-
यावन्मे धमनीमुखेषु रुधिरक्लेदोऽपि सन्तिष्ठते
मांसं वाऽस्थिनि तिष्ठति क्वचिदपि प्राणाः शरीरे स्थिताः ।
तावन्म्लेच्छपतेः कथञ्चिदपि न प्राप्स्याम्यहं निघ्नतां
स्वातन्त्र्यस्य पदं समस्तवसुधां नेतुं यतिष्ये भृशम् ॥ १.२६॥
ओगेटि परीक्षितशर्मा ने श्रीमत्प्रतापराणायन महाकाव्य में राणा प्रताप को राष्ट्रपुरुष कहकर सम्बोधित किया है तथा उनके अन्तिम सन्देश के रूप में उनके उपदेशों को स्थान दिया है । राणाप्रताप स्वतन्त्रता को ही सर्वोपरि मानते थे । वे भारत वर्ष की साँस्कृतिक विविधता से भी पूर्णतः परिचित हैं। उनके उपदेश-परक कतिपय पद्य यहाँ द्रष्टव्य हैं –
अनन्तकालाद्वहतीह संस्कृतिः धरातले राजितभारतावनौ ।
तां संस्कृतिं नाशयितुं पराः सदा धाटीभिरेवाऽत्र समागता भृशम् ॥
हे राजपुत्रा भुवि भारतं प्रियं स्वर्गश्रिया भूषितमेव सर्वदा ।
एषा धरा सर्ववसुन्धरा मुदा सस्यैरनन्तैः प्रतिभाति भूतले ॥
पीयूषतुल्यैः सलिलैः प्रपूरितैः नैकैस्तटाकैः सुरसैः सरोवरैः ।
उत्तुङ्गशैलाग्रशिखालिपर्वतैः कासारशोभालसितैश्च भूमिभिः॥
कुत्रापि नास्त्येव धरातले नृपाः चैतादृशी भूतलनाकदेवता।
आयान्ति मर्त्या इव देवताः प्रियाः मर्त्याश्च देवा इव भान्ति सर्वशः ॥
राष्ट्राय यद्यत् करणीयमस्ति मे दीक्षायुतेनाऽत्र कृतं मुदा मया ।
तुच्छं वपुः सर्वमिदं समर्पितं स्वातन्त्र्यसम्पादनकारणाय वै ॥
गात्रं मदीयं रणहेतिमण्डितं शक्त्या विहीनं गलितं विकम्पते ।
संवर्धते दैहिकरत्नपीडनं कर्तव्यमद्यैव समाप्तमत्र मे ॥
महाराणा प्रताप आजीवन राष्ट्र और संस्कृति के लिये संघर्ष करते रहे । राष्ट्रीय एकता के साथ साथ सामाजिक एकता भी उनके लिये सर्वोपरि थी । उनके जीवन में त्याग और औदार्य का प्राधान्य था ।उनका चरित्र सबको समवेत होकर कार्य करने तथा राष्ट्र के विकास के लिये प्रयत्नशील रहने की प्रेरणा देता है । राणा प्रताप ने दलित और उपेक्षित वर्गों को सम्मान दिया उन्हें आगे लाये और उनके सहयोग से राष्ट्र का विकास किया । मेवाड़ के सिंहद्वार पर आज भी एक तरफ शस्त्रधारी राजा तो दूसरी तरफ शस्त्रधारी भीलराज अंकित हैं । उन्होंने राष्ट्रीय एकता में सभी के योगदान महत्त्वपूर्ण माना तथा सब को सहभागिता प्रदान की । आज जब हम भौतिकता की वात्या में फँस गये हैं , हम पर साँस्कृतिक और वैचारिक आक्रमण हो रहे हैं, ऐसे में राणा प्रताप का चरित्र हमें राष्ट्र के विकास का मार्ग दिखाता है, हमें अपनी संस्कृति के संरक्षण की प्रेरणा देता है ।
प्रो. रमाकान्त पाण्डेय
साहित्य विभाग,
केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर,
त्रिवेणी नगर, जयपुर-302018
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