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मुण्डकोपनिषद के तृतीय मुण्डक के छठे श्लोक के प्रथम उद्गाता ऋषि की दिव्य दृष्टि भी युग-युगान्तर के पार देखकर शायद अनुमान नहीं लगा पायी होगी कि इस श्लोक का एक अंश भी महान सम्राट अशोक द्वारा सारनाथ में स्थापित सिंह स्तम्भ के शिखर पर अंकित होकर उनके सत्ता संचालन का मार्गदर्शक सूत्र भी बन जायेगा। कोई मालवीय मदनमोहन या कोई मोहनदास गाँधी कभी मनमोहन श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र की भाँति इसी वाक्य को पराधीनता के नागपाश को काटने का शस्त्र भी बना लेगा, यह तो इतिहासों के कल्पना के बाहर की बात रही थी।
महाकवि जयशंकर प्रसाद जब कह रहे थे कि-
“विजयकेवललोहेकीनहीं, धर्मकीरहीधरापरधूम।
भिक्षुहोकररहतेसम्राट , दयादिखलातेघर–घरघूम।।“
तो वे उसी सत्य की महत्ता का उद्घोष कर रहे थे, जिसे वेद ईश्वर का ही प्रतिरूप मानते हैं। हमारे युग के नव दधीचि महात्मा गाँधी ने तो ‘सत्य’ के ‘आग्रह’ को ही वज्र बनाकर दिखा दिया। दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद के विरूद्ध सत्याग्रह नामक अमोघ अस्त्र का सफल प्रयोग करके उन्होंने विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली अंग्रेजी सत्ता को भी ललकार दिया।
भारतमाता पारतंत्र्य के जिस नागपाश में फँसी कराह रही थी, उसे विच्छिन्न करने हेतु सत्याग्रह रूपी गरुड़ को गाँधीजी ने अपनाया और अंग्रेजों का विशाल अजेय सैन्य बल हाथ मलता रह गया। यह उसी परम सत्य की महिमा थी, उसी सत्य का चमत्कार था, जिससे देवताओं के यात्रा पथ विस्तीर्ण होते हैं। सत्येनपन्थाविततोदेवयानः। इस मार्ग का पथिक उसे बताया गया है जो आप्तकाम अर्थात पूर्णकाम है और गाँधीजी भी निःशेष काम थे। स्वयं की समस्त कामनाओं के विजेता।