शाब्दिक शक्तिविज्ञान
May 4, 2022 2022-05-05 15:29शाब्दिक शक्तिविज्ञान

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आजादी का अमृत महोत्सव
शाब्दिक शक्तिविज्ञान
सृष्टि के दृश्यादृश्य, चेतन अचेतन, चराचर आदि समस्त पदार्थो की गतिशीलता के सिद्धान्त का प्रतिपादन स्वयं जगत् संसार आदि शब्दों से सिद्ध होता है। गच्छति इति जगत्-, संसरति इति संसार:, भवति इति भुवनम् आदि शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ भी गतिशीलता की पुष्टि करता है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि इस सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ निरन्तर गतिशीलता के सिद्धान्त से जुडा है चाहे वह स्थावर हो या जङ्गम । यहाঁ शंका उठती है कि जो स्थावर है वह गतिशील कैसे हो सकता है \ इसको समझने के लिए हमें खगोल मण्डल के बारे में सूक्ष्म दृष्टि से विचार करना होगा, जहाঁ वर्तमान सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि समस्त ग्रह, उपग्रह नक्षत्र आदि चलायमान हैं। जब पृथ्वी चलायमान है तो पृथ्वी पर स्थित समस्त स्थावर पदार्थ पृथ्वी की गति से गतिशील हैं जैसे वायुयान में बैठे हम वायुयान के चलायमान होने पर भी अपनी सीट पर स्थिर हैं किन्तु फिर भी वायुयान की गतिशीलता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुঁच जाते है हैं। यही सिद्धान्त पृथ्वी आदि लोकों में स्थित समस्त स्थावर पदार्थो पर लागू होता है।
यह गतिशीलता ही सृष्टि का मूल कारण है जिसे हम ब्रह्म नाम से अभिहित करते हैं। क्योंकि बृंहति इति ब्रह्म अर्थात् जो वृद्धि को प्राप्त करता है वह ब्रह्मा है, जहाঁ गति हो, वृद्धि हो वहाঁ नाद होना स्वाभाविक ही है। यह स्वाभाविक नाद ही सृष्टि की सूक्ष्म-सत्ता का कारक है।
आधुनिक विज्ञान से जुडे लोग इसे प्रकल्पन अर्थात् वाइब्रेशन कहते हैं । इस स्पन्दन को ही कान्टम सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करते हुए पैकेट्स ऑफ एनर्जी मानते है।
आधुनिक विज्ञान के सृष्टि उत्पादक तत्त्व इलैक्ट्रोन और प्रोटोन की परिकल्पना को इसी से समझा जा सकता है इनमें प्रोट्रोन स्थिर है और इलैक्ट्रोन उसके चारों तरफ चक्कर लगाता है। यहाঁ सांख्य दर्शन के अनुसार ब्रह्म अक्षर पुरुष को प्रोटोन और क्रियाशील प्रकृति को इलैक्ट्रोन कहा जा सकता है।
शास्त्रकारों ने इस ब्रह्म के दो स्वरूपों का वर्णन करते हुए कहा है-
द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्।
शब्दब्रह्मणि निष्णात: परं ब्रह्माधिगच्छति।।
यहाँ वर्णित शब्दब्रह्म अपरा विद्या का प्रतिपादक है तथा दूसरा ब्रह्म-शब्द ब्रह्म के जान लेने पर ब्रह्म की प्राप्ति का विषय है। यह ब्रह्म ब्रह्माण्ड का अत्यन्त सूक्ष्मतम वह तत्त्व है जो केवल मुनियों की ऋतम्भरा प्रज्ञा द्वारा समाधि की अवस्था में ही आनन्दस्वरूप अनुभव किया जाता है-
विदितोऽसि भवान् साक्षात् पुरुष प्रकृते: पर:।
केवलानुभवानन्दस्वरूप: सर्वबुद्धिधृक् ।।-भागवत 03/10/3
इसके अनुभवस्वरूप होने से ही विविधशास्त्रों में ‘नेति नेति’ कहते हुए निर्गुण निराकर, सगुण साकार आदि सभी स्थिति का निषेध किया है फिर भी महर्षि पतञ्जलि ने परब्रह्म का संकेत करते हुए उसे पूर्णकलावतार भगवान् श्रीकृष्ण के नखचन्द्र की कान्ति के रूप में प्रतिपादित किया है –
यन्नखेन्दुरुचिर्ब्रह्म ध्येयं ब्रह्मादिभि: सुरै:।
गुणत्रयमतीतं तं वन्दे वृन्दावनेश्वरम्।। – पातञ्जल 77/60
यह वही परम ब्रह्म है जिसे ‘वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि‘ के रूप में योगियों ने पाया है । यहाঁ प्रयुक्त ‘शयानम्’ शब्द चिन्मयस्वरूप ब्रह्म की मूल अवस्था को प्रकट करता है जहाঁ शब्द की ‘परा’ शक्ति विद्यमान रहती है। यही ब्रह्म ‘एकोऽहं बहु स्याम्’ इत्यादि वेदोक्त वचन की पुष्टि करते हुए सृष्टि की कामना करता है।
‘स अकाम्यत, स अतप्यत, स अश्राम्यत, स ऐक्षत’ इन वाक्यों में मन की अलौकिकावस्था का व्यापार कामना कहलाता है तथा प्राणशक्ति की क्रियाशीलता तप है। श्रम अवस्था स्थूलशरीर की श्रान्ति, कान्ति को अभिव्यक्त करती है। इस प्रकार जगत् की सृष्टि का स्वरूप प्रत्यक्ष होता है। इस सम्पूर्ण क्रिया से चैतन्य की प्रथम अभिव्यक्ति आकाश है- ‘तस्माद्वा एतस्मात्मन: सकाशात् आकाश: सम्भूत: आकाशाद् वायु: वायोरग्नि:, अग्नेराप:, अद्भ्य पृथ्वी इति।’- तैत्तरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली ।
इस आत्मतत्त्व से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी का निर्माण होता है। इस प्रकार पञ्चमहाभूत की सूक्ष्म सत्ता का निर्माण होता है।
इसे न्यायशास्त्र के सिद्धान्त के आधार पर और भी स्पष्ट किया जा सकता है-
सर्वप्रथम अभिव्यक्त होने वाला आकाश है जिसे ‘शब्दगुणकमाकाशम्’ कहा गया है अर्थात् ब्रह्मस्थित नाद आकाशतत्त्व तक आते आते शब्द रूप ले लेता है। यह शब्द ही वाक् शक्ति के रूप में सृष्टि कारक है। आकाश से वायु की उत्पत्ति के साथ ही उसमें स्पर्श गुण भी आ जाता है अर्थात् शब्द वायु के सम्पर्क में आकर ही अन्य पदार्थ के सम्पर्क में आता है । वायु जब घनीभूत हो जाती है तो अग्निरूप में ठोस रूप में दिखाई पडती है। इस तरह क्रमश: इसमें गुणों की वृद्धि होती रहती है-
क्र.स. | पदार्थ | गुण |
1. | आकाश | शब्द |
2. | वायु | शब्द+स्पर्श |
3. | अग्नि | शब्द+स्पर्श+रूप |
4. | जल | शब्द+स्पर्श+रूप+रस |
5. | पृथ्वी | शब्द+स्पर्श+रूप+रस+गन्ध |
इस प्रकार चिन्मय प्राण शक्ति वाक् शक्ति के माध्यम से पञ्चमहाभूतों का निर्माण करती है। यही प्रक्रिया वेद के ‘अग्निषोमात्मकं जगत्’ के सिद्धान्त की पृष्ठभूमि है। वाक् अंश की प्रधानता होने पर सोम नाम पडता है और प्राण तत्त्व की प्रधानता में अग्नि नाम व्यवहृत होता है इस प्रकार प्राण की दो जातियाঁ होती है जो आग्रेय प्राण और सौम्य प्राण कहलाते हैं। इसीलिए ‘शब्द ब्रह्म’, ‘खं ब्रह्म’ जैसे वैदिक वाक्यों का सिद्धान्त रूप में प्रतिपादन हुआ है। यह ब्रह्म प्रकाशपुञ्ज है- ‘ब्रह्म नाम प्रकाशपुञ्जविशेष:, प्रकाशाणूनां बृंहणत्वात् स्फोट:। इस ब्रह्म के प्रकाश से ही तीनों लोक प्रकाशित हैं अन्यथा सर्वत्र अन्धकार की ही सत्ता रहती है-
इदमन्धन्तम: कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्।
यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते।।– काव्यादर्श ।.।
प्रकाशमान ब्रह्म की इस सत्ता को हमारे महाकवि कालिदास ने जगत् के माता-पिता के रूप में अत्यधिक समीप से पहचाना है-
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।। –रघुवंश 1/1
यहाँ संसार के माता-पिता के रूप में वाक् शक्ति पार्वती और उसके प्रभावरूप अर्थ को शिव माना गया है। ‘माङ् माने’ से माति इति माता अर्थात् प्रमाण स्वरूप माता पार्वती और ‘पाति’ इति पिता अर्थात् संसार की सत्ता के संरक्षक शिव का प्रतिपादन किया गया है। यह शिव अर्थात् अर्थ तथा पार्वती अर्थात् वाक् शक्ति के बिना कार्य नहीं कर सकता है। इस चिन्तन को भगवान् शंकराचार्य ने और अधिक स्पष्ट कर दिया है-
शिव: शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्त: प्रभवितुम्।
न चेदेवं देवो न खलु कुशल: स्पन्दितुमपि।।- सौन्दय लहरी
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि इकार स्वरूप शक्ति के अभाव में शिव ‘शव’ के समान है अर्थात् सुषुप्तावस्था की निष्कियतारूप। यहाँ भी ‘शव गतौ’ धातु से शव में भी आत्मस्थित स्पन्दन रहता है।
महाकवि कालिदास ने रघुवंश के साथ ही कुमारसंभव में भी अपने इसी मन्तव्य को एक बार पुन: प्रकट किया है-
तमर्थमिव भारत्या सुतया योक्तुमर्हसि।
अशोच्या हि पितु: कन्या सद्भर्तृप्रतिपादिता।।
यावन्त्येतानि भूतानि स्थावराणि चराणि च
मातरं कल्पयन्त्वेनामीशो हि जगत: पिता।।- कुमारसम्भव 6/80-79
हमारे शास्त्रकारों द्वारा इस वाक् शक्ति के चार स्वरूप निर्धारित किये गये हैं- परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। वाक् शक्ति के प्रथम स्वरूप ‘परा’ को आत्मा की मुख्यशक्ति माना गया है जिसका कोई स्वरूप निश्चित नहीं किया जा सकता। दूसरी ‘पश्यन्ती’ वह वाक् स्वरूप है जिसे प्रकाश रूप कहा गया है इसमें शब्द और अर्थ दोनों अविभाज्य युगपत् रूप में रहते हैं। इन दोनों का विभाग नहीं किया जा सकता। ‘मध्यमा’ स्वरूप में शब्द और अर्थ का विभाग तो हो जाता है। परन्तु शब्द मन ही मन में विवर्त रूप में रहते हैं जिसे वाक्यपदीय में स्पष्ट किया है-
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यत:। – वाक्यपदीय ।
ऐसी स्थिति में कण्ठ तालु का कोई व्यापार नहीं होता है अत: उन शब्दों को कोई सुन नहीं जा सकता। लोक में ऐसी स्थिति को आत्मगत अर्थात् मन ही मन में अथवा स्वयं से बात करना कह सकते हैं।
परमात्मा स्थिति में कण्ठ तालु का कोई व्यापार नहीं होता है अत: उन शब्दों को कोई सुन नहीं सकता। लोक की ऐसी स्थिति केा मन ही मन मे अथवा स्वयं से बात करना कह सकते हैं।
वैखरी को दो स्वरूप में समझ सकते है- एक उपांशु भाषण दूसरा उच्चै: स्वर भाषण। उपांशु भाषण कानाफूसी अर्थात् कान के पास धीरे बोलना । दूसरा उच्चै:स्वर, सभी द्वारा सुना जा सकने वाला वह वाक् नित्यधर्मा है जिसे स्वयं ब्रह्मा ने प्रकट किया है-
अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा।
आदौ वेदमयी दिव्या यत: सर्वा: प्रवृत्तय:।। महाभारत शान्तिपर्व
सम्पूर्ण प्रपञ्च में तीन मूल तत्त्व हैं –
ज्ञान क्रिया और अर्थ = मूल प्रकृति
↓ ↓ ↓ ↓
मन प्राण वाक् सृष्टि
पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी ने वाक् शब्द का निर्वचन दो प्रकार से किया है। प्रथम निर्वचन में अव उपसर्ग पूर्वक अञ्जु गतौ से क्विप् करने पर अवाक् शब्द बनाकर ‘वष्टि भागुरिरल्लोपम् अवाप्ययोरूपसर्गयो:’ के सिद्धान्त से अकार का लोप करते हैं जिससे वाक् शब्द शेष रहता हैं। अवाक् अर्थात् सबसे निम्न श्रेणी की वस्तु। यहाঁ मन प्राण और वाक् इन तीन पदार्थों में वाक् अवर पदार्थ है। अर्थात् मन और प्राण के साहचर्य से सृष्टि कर पाते हैं । भगवान् पाणिनि भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं-
आकाशवायुप्रभव: शरीरात् समुच्चरन् वक्त्रमुपैति नाद:।
स्थानान्तरेषु प्रविभज्यमानो वर्णत्वमागच्छति य: स शब्द ।।1।।
तमक्षरं ब्रह्म परं पवित्रं गुहाशयं सम्यगुशन्ति विप्रा:।
स श्रेयसा चाभ्युदयेन चैव सम्यक् प्रयुक्त: पुरुषं युनक्ति।।2।।- पाणिनीय शिक्षा
महर्षि पाणिनि के मत से आकाश और वायु के प्रभाव से उत्पन्न नाद शरीर से ऊर्ध्व गति करता हुआ मुख विवर में आता है और विभिन्न उच्चारण स्थानों से आहत होकर जो वर्ण का स्वरूप धारण कर लेता है वह ‘शब्द’ कहलाता है । यह शब्द ही परम पवित्र पर ब्रह्म है।
महर्षि वेदव्यास इस शब्द ब्रह्म से ही ब्रह्मा की उत्पत्ति का निर्देश करते हैं जो काय रूप दो भागों में विभक्त होता हुआ स्त्री पुरुष मिथुनता को प्राप्त करता है-
शब्दब्रह्मात्मनस्तस्य व्यक्ताव्यक्तात्मन: पर:।
ब्रह्मावभाति विततौ नाना शक्त्युपबृंहित:।।
कस्य रूपमभूद् द्वेधा यत्कार्यमभिचक्षते।
ताभ्यां रूपविभागाभ्यां मिथुनं समपद्यत।।- भागवत 3/12/52+48
इसे हम यदि अन्य रूप में ललित कलाओं के माध्यम स्पष्ट करें तो अधिक उपयुक्त होगा। ललित कलाओं में साहित्य, संगीत और कला। कला में चित्रकला, मूर्तिकला एवं वास्तु कला परिगणित है। इस प्रकार इन पाঁच ललित कलाओं के अन्तर्गत वास्तु में स्थूलता है तो मूर्ति में केवल आकार। चित्र में रूप तो संगीत में केवल नाद। परन्तु साहित्य अर्थात् काव्य वह कला है जहाঁ शब्द के साथ अर्थ का साहचर्य नितान्त अपेक्षित है। भले ही कतिपय काव्यशास्त्रकारों ने केवल शब्द को काव्य स्वरूप माना है पर वहाঁ भी चमत्कारातिशयरूप अर्थ सदा साथ रहता है। अन्यथा काव्य की सत्ता पर प्रश्न चिन्ह लग जायेगा। यहाঁ भी शब्द-शक्ति का ही माहात्म्य है। नाद में संयोगज और वियोगज ध्वनि की सत्ता होती है जबकि शब्द शब्दज ध्वनि से ही उत्पन्न होता है-
य: संयोगवियोगाभ्यां करणैरुपजन्यते।
स स्फोट: शब्दजा: शब्दा ध्वनयोऽन्यैरुदाहृता:।। – वाक्यपदीय 1/103
अत: यह सिद्ध होता है कि काव्यशास्त्री शब्द और अर्थ दोनों को ही प्रधान मानते हैं।

प्रोफेसर ताराशंकर शर्मा 'पाण्डेय'
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