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शरद पूर्णिमा के महा ऋक्ष : महर्षि वाल्मीकि

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शरद पूर्णिमा के महा ऋक्ष : महर्षि वाल्मीकि

Sharad-Poornima

भारत की परम्परा में ऋषि एवं मुनि ये दो सत्ताएँ महत्ता के शिखर पर प्रतिष्ठित हुईं। कोई व्यक्ति ऋषि बनता है किसी अकालबाधित मन्त्र के दर्शन से। दर्शन साक्षात्कार होने से जीवन्त चेतना होती है। मुनि बनने के आत्मसाधना के सूक्ष्मतम स्तरों से गुजरना होता है। रामायण के कवि वाल्मीकि महर्षि और मुनि दोनों ही थे। वह भृगु वंश की परम्परा, भार्गव ऋषि परम्परा में जन्मे थे। उनका नाम ऋक्ष था। ऋषि ऋक्ष वाल्मीकि नाम से जाने जाते हैं। उनकी कविता उनका मन्त्रदर्शन है। ऋषि-कवि की कविता होने रामायण आर्ष काव्य है। वह आर्षकाव्य तो है ही, उसकी एक अतिरिक्त विशेषता उसका इतिहास होना है। महर्षि वाल्मीकि भारतीय समाज एवं संस्कृति के मूर्धन्य इतिहासकार हैं। उनके इस इतिहास( रामायण) में भारत के दिग्दिगन्तों का इतिहास एक सम्मेल में उपस्थित हुआ है। यह विभिन्न समाजों की निजी विशेषताओं एवं निजताओं के मध्य की ऐक्यधारा को अभिव्यक्ति देता है। एक प्रामाणिक ऐतिहासिक वृत्त को अप्रतिहत लेकर वाल्मीकि काव्य रचते हैं तो इतिहास के समानान्तर वह उसमें आज तक असृष्ट, सूक्ष्मतम संवेदनशीलता (करुणा) को सर्वत्र अनुस्यूत करके मनुष्य को और अधिक मनुष्य बनाने का महान उद्यम करते हैं। वाल्मीकि की चेतना हमें आक्रमक होने से रोकती है। वह जीवन के प्रत्येक कदम पर सोच विचार करने को प्रेरित करती है।

यह विचारशीलता राम के अपने जीवन में है, उनके आस-पास के पात्रों में है। जहाँ नहीं है, वहाँ अन्याय की अनुभूति वाल्मीकि करवाते हैं। परिवार, समाज, राष्ट्र के भव्य- दिव्य रूप के साथ साक्षात्कार के साथ साथ वह तिरस्कार योग्य अभव्य और अदिव्य रूपों से हमें बचाते हैं। व्यक्ति को अपने आपसे टकराना होता है और यह टकराहट उसे धर्मच्युत ( कर्त्तव्य भ्रष्ट) कर सकती है। वाल्मीकि के इतिहासपुरुष राम के साथ न केवल कोसल की समस्त जनता, आमात्य, निगम प्रमुख के होने का बल है, अपितु उनके साथ उनका अपना बड़ा सामर्थ्य है। वह उस शक्ति का उपयोग करके पिता को बंदी बनाकर राज्य ले सकते थे, किन्तु वह पिता के वचन की रक्षा को अपने समस्त सुखों, वैभव और सुविधा से बड़ा मानते हैं। राम की महत्त्व बुद्धि का केंद्र स्वयं की तुच्छ सुविधाएँ नहीं है।
वाल्मीकि की चेतना की जीवन्त मूर्त्ति रामायण है। रामायण में वह मनुष्य को अमनुष्य बनाने वाले मानदण्डों को विसर्जित, विखण्डित करते हैं:

सर्वे क्षयान्ता निचया: पतनान्ता: समुच्छ्रया: ।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥

यही हनुमान एक अन्य स्थान पर राम के मंत्रियों के मन्तव्य के विपरीत अपना मत रखते हैं  और एक नीति सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हैं कि बिना नियोग के किसी का सामर्थ्य नहीं जाना जा सकता है। विचार पूर्वक नियोजन करना चाहिए। हाँ, आकस्मिक निर्णय दोषवान् होता है।

ऋते नियोगात् सामर्थ्यमवबौद्धुं  न शक्यते।

सहसा विनियोगो हि दोषवान् प्रतिभाति मे।।

महाकवि भारवि इसी का अनुवाद  अपने महाकाव्य में ‘ सहसा विदधीत न क्रियाम्’ के रूप में करते हैं। वाल्मीकि ने राक्षस एवं अराक्षस शील( चरित्र) का स्वरूप विभीषण के मुँह से कहलवाते हैं:

न रमे दारुणेनाहं न चाधर्मेण वै रमे।

( मैं न तो दारुण/क्रूरता से प्रसन्न होता हूँ और न अधर्म से प्रसन्न होता हूँ)

विभीषण इन क्रूरताओं में तीन विनाशक दोषों को गिनाते हैं:

१. परस्वानां च हरणं ( दूसरों का हक चुराना)

२. परदाराभिमर्शनम् ( दूसरों की स्त्री से जबर्दस्ती)

३.सुहृदामतिशङ्का च ( दोस्तों, शुभ चिन्तकों पर अत्यन्त अविश्वास)

४. त्रयो दोषा: क्षयावहा: ( ये तीन दोष विनाश करने वाले हैं।)

 

इन दोषों की राक्षसी वृत्ति आज भी हमें घेरे हुए है। हम यदि क्रूरता करके खुश होते हैं या कर्तव्य ( परिवार, समाज, व्यवसाय के प्रति कर्तव्य) से जी चुराकर खुश होते हैं तो वह अपने आपको राक्षस बनाना है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति कितना मनुष्य रह जाता है और कितना अमनुष्य हो जाता है, कहना कठिन है। वाल्मीकि की कविता और उनका मन्त्र इसी की ओर विवेक जगाता है।

डॉ. प्रवीण पण्ड्या

( ख्यात संस्कृत कवि, आलोचक एवं अध्येता)

praveenpandya1979@gmail.com

9602081280

Comments (4)

  1. Dr surendra sharma

    बहुत ज्ञानवर्धक, अत्यंत महत्वपूर्ण

  2. Dr.manju lata sharma

    प्रिय मित्र प्रवीण ।सदैव की भाँति लीक से हटकर कुछ लिखने का आपका यह प्रयास भी सराहनीय है।सत्य है आज समाज मे मुखोटे लगाकर जीने वालों की कमी नहीं। हम जो कहें वही करें तो समाज अपने सत्य स्वरूप को प्राप्त कर सकेगा।बहुत साधुवाद।

  3. Dr.manju lata sharma

    बहुशोभनम

  4. V H Gohil

    उन प्रवीण कवि को प्रणाम है जो धर्म पंथ प्रर्दशक है। उसी प्रकार इन प्रवीण कवि को भी प्रणाम जिनका नाम प्रवीण है!🙏

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