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स्वतन्त्रता दिवस

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स्वतन्त्रता दिवस

      पन्द्रह अगस्त 1947 का पावन दिन भारत के भाग्य को नया आकार प्रदान करने वाला महत्त्वपूर्ण दिवस था। इस दिन भारत ने अंग्रेजों के आततायी शासन से मुक्ति प्राप्त की थी । यह स्वतन्त्रता केवल उनकी पराधीनता से ही मुक्ति का वरदान नहीं थी, अपितु जो भारत पहले अनेक रियासतों में बँटा हुआ था, उसको भी एक सूत्र में पिरोने का यह शुभारंभ दिवस था।  अनेक राजा जो परस्पर एक दूसरे से युद्ध करते रहते थे ,अपनी छोटी सी रियासत को कुछ बड़ी बनाने के लिए  जन-धन की हानि करते रहते थे, उस प्रवृत्ति का भी  स्वतन्त्रता दिवस पर अंत हो गया । यह स्वतन्त्रता दिवस समूचे भारत को एक करने की क्रांति लेकर उपस्थित हुआ था। भारत का दुर्भाग्य कहें या उस समय की नियति, भारत देश स्वतन्त्रता के साथ दो टुकड़ों में विभक्त हो गया – हिन्दुस्तान और पाकिस्तान । अब इस अमंगल को भूल जाने में ही हमारा मंगल है ।  वह हिंदुस्तान ही अब भारत है ।इसे इंडिया के नाम से भी जाना जाता है । हमें इस भारत पर गर्व है । यह हमारे प्राचीन गौरव का स्मरण कराता है । ऋषभदेव के चक्रवर्ती पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा।दुष्यंत पुत्र भरत के नाम पर भी इसका नाम भारत कहा जाता है ।

 भारत की यह स्वतन्त्रता हमें अनेक रूपों में प्राप्त हुई है। उसमें वैचारिक स्वतन्त्रता के साथ धार्मिक स्वतन्त्रता एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मुख्य है। स्वतन्त्र भारत का अपना एक संविधान बना जो संविधान सभा में 26 नवम्बर 1950 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी 1950  से सम्पूर्ण देश पर लागू हो गया । यह संविधान भी स्वतन्त्रता की परिणति है और लोकतंत्र की प्राप्ति भी इस स्वतंत्रता का ही परिणाम है जिसका संचालन संविधान के माध्यम से प्रारम्भ हुआ। प्रजा का प्रजा पर प्रजा के द्वारा शासन होना प्रजा की स्वतन्त्रता का बड़ा उदाहरण है। इस स्वतन्त्रता के पश्चात् देश में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय लागू किया गया।जन-जन को समुचित न्याय प्राप्त हो सके, इसके लिए न्यायालयों की स्थापना हुई । देश की समस्याओं पर विचार करने एवं देश के विकास हेतु उचित निर्णय लेने के लिए संसद की स्थापना हुई,जिसके  दो अंग हैं- लोकसभा और राज्यसभा। राज्यों में विधानसभाएँ स्थापित हुईं ।गांवों में प्रशासन पंचायतों के माध्यम से पहुँचा।स्वतन्त्रता को वंदन करते हुए विनायक दामोदर सावरकर ने गीति में लिखा है-

स्वतन्त्रते भगवति ! त्वामहं यशोयुतां वन्दे

जयोस्तु ते श्रीमहन्मंगले शिवास्पदे शुभदे।

स्वतन्त्रता के साथ समानता एवं पारस्परिक बन्धुता का उदात्त लक्ष्य बना । दलितों एवं निम्न वर्ग के लोगों को समानता का दर्जा दिया गया तथा उनके विकास हेतु योजनाएं बनीं । महिलाओं को भी पुरुषों के समान समझने एवं उन्हें हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के अवसर प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त हुआ ।

सबसे बड़ा लाभ देश की एकता का हुआ। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम का विशाल भारत विभिन्न राज्यों में विभक्त होकर भी केंद्र सरकार से जुड़ा होने के कारण एक है । देश में प्रशासन का विकेन्द्रीकरण भी है तो एकत्व भी।

गगन में उड़ता पंछी जिस आनन्द एवं ऊँचाई का अनुभव करता है उससे भी अधिक आनन्द एवं विकास का अनुभव हमें स्वतन्त्र भारत में हो रहा है । स्वतन्त्र भारत में हमें जो लाभ का अनुभव हो रहा है उसे एक श्लोक में इस प्रकार गूँथा जा सकता है –

न्यायं सामाजिकं प्राप्य, स्वतन्त्रतां समानतां।

बन्धुत्वं चापि संलभ्य, स्वातन्त्र्यं हि भजामहे।।

 स्वतन्त्र भारत में विकास के नए आयाम खुले हैं।नये उद्योग स्थापित हुए हैं। कृषि, दुग्ध आदि के उत्पादन में वृद्धि हुई है। व्यापार का विकास हुआ है।  देश में विभिन्न प्रकार के कार्य करने के अवसरों का भी विकास हुआ है।

स्वतन्त्रता की प्राप्ति कोई मामूली प्रयत्नों से नहीं हुई। सन् १८५७ की क्रांति से इसकी धारा प्रवाहित होती रही । झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई , नाना साहब, तांत्या टोपे आदि से आंदोलन का प्रारम्भ हुआ।इनके पश्चात् अनेक स्वतन्त्रता सेनानी जुड़ते रहे । महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक को अंग्रेज़ सरकार ने प्रथम स्वतन्त्रता  आंदोलनकारी का दर्जा दिया। उनके साथ पंजाब में लाला लाजपत राय और बंगाल में विपिन चंद्र पाल भी महान क्रांतिकारी हुए।दादा भाई नौरोजी, रामप्रसाद बिस्मिल, महात्मा गाँधी, सरदार बल्लभभाई पटेल, जवाहर-लाल नेहरु , चितरंजन दास,  चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, मंगल पाण्डे, के एम. मुंशी, सुखदेव आदि स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी अपनी भूमिका निभाकर भारत को अंग्रेजों की ग़ुलामी से मुक्त कराया।संस्कृत सहित विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही। बंकिम चन्द्र, दामोदर सावरकर, अर्जुन लाल सेठी, पण्डिता क्षमाराव आदि अनेक नाम उल्लेखनीय हैं ।

स्वतन्त्रता आन्दोलन में दो प्रकार के दल रहे – गरम दल और नरम दल । महात्मा गांधी नरम दल के नेता थे तो गरम दल में बाल गंगाधर तिलक, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह,  चंद्रशेखर आज़ाद जैसे कर्मठ वीर क्रांतिकारी थे।महात्मा गांधी अहिंसा एवं सत्य के आधार पर अंग्रेज़ी शासन का विरोध प्रकट करते थे तो वहीं भगत सिंह जैसे नेता अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तैयार रहते थे। उन्होंने अपने जीवन का बलिदान दिया भी ।

सभी प्रकार के प्रयत्नों का परिणाम रहा स्वतन्त्रता की प्राप्ति। नारायण शास्त्री कांकर के शब्दों में –

असंख्यवीरा निजमातृभूमेर्, विदेशिपाशं परिभंक्तुकाम:

अपूर्वशौर्यं परिदर्शयन्तो, यश:शरीरा अमरा अभूवन् ।।

अपूर्व शौर्य शालियों  के बलिदान को सदैव याद किया जाएगा तथा वे यश:शरीर में  चिरकाल अमर बने रहेंगे।

संस्कृत रत्नाकर पत्रिका के सम्पादक कविश्रेष्ठ भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने स्वतन्त्रता प्राप्ति पर प्रकाशित एक अंक में घनाक्षरी छन्द में भाव इस प्रकार निबद्ध किए –

पूर्वपरतन्त्रतामपास्यामोघमन्त्रतया।

सर्वत: स्वतन्त्रतया भारतविभा विभातु ।।

कलकत्ता से पण्डित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी के संपादन में प्रकाशित स्वतन्त्र नामक पत्र के प्रत्येक अंक में निम्नांकित पद्य प्रकाशित होता था जो स्वतन्त्रता की महत्ता का प्रतिपादन करता है –

पारतन्त्र्यात् परं दु:खं, स्वातन्त्र्यात् परं सुखम्

अप्रवासी गृही नित्यं स्वतन्त्र: सुखमेधते।।

यह देश पराधीनता की जंजीरों से मुक्त हुआ है, किंतु अंग्रेजों के द्वारा आहत की गई सांस्कृतिक चेतना के दुष्प्रभाव से अभी तक मुक्त नहीं हुआ है । उसकी मुक्ति भारतीय संस्कारों से ओतप्रोत शिक्षा प्रणाली से ही संभव है । स्वतन्त्रता दिवस हमें प्रति वर्ष हमारे उन पूर्वजों का स्मरण कराता है जिन्होंने अपना सब कुछ त्यागकर उसे देश की सेवा में बलि चढ़ा दिया, सम्पूर्ण जीवन देश हित में लगा दिया। हम आज उनकी बदौलत स्वतन्त्र हैं। हमें उनसे शिक्षा लेनी चाहिए कि हम अपने स्वार्थों को गौण कर देश हित को प्रधानता प्रदान करें।

स्वतन्त्रतासुखं श्रेष्ठं, देशहितं ततोधिकम्।

स्वार्थं संत्यज्य कुर्याम,देशसेवां, वयं जना:।।

स्वतंत्रता दिवस को 74 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। 75 वाँ वर्ष प्रारम्भ हो रहा है । इस अवसर पर हम यह संकल्प करें हम हमारे स्वार्थों से ऊपर उठकर देश की एवं देशवासियों की सेवा करेंगे । इसी से यह देश निरन्तर प्रगति पथ पर आगे बढ़ सकेगा।

प्रोफ़ेसर धर्म चन्द जैन

 

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