भारतीय परंपरा एवं शिक्षक
September 4, 2020 2020-09-04 21:14भारतीय परंपरा एवं शिक्षक

मनुष्य के जीवन में असत्य की जगह सत्य की, अंधकार के स्थान पर प्रकाश की और मृत्यु के स्थान पर अमृत की प्रतिष्ठा कराने वाली परंपरा ही भारतीय ज्ञान परंपरा है। भारत शब्द के द्वारा ही प्रकाश अथवा ज्ञान में रति या निरंतरता का बोध होता है। परम्परा उस प्रवाह का नाम है जिसमें निरंतरता, नित्य-नवीनता रहती है और जिसकी उपादेयता-प्रासंगिकता भी सतत बनी रहती है। भारत एवं भारतीय परम्परा के लोक-कल्याणकारी महाभाव के निर्माण, विकास और विस्तार का केंद्रीय साधन भारतीय शिक्षा है। शिक्षा के द्वारा ही परा,अपरा विद्यास्थान सहित नाना लोकोपयोगी शास्त्रों का अधिगम, संरक्षण और संवर्धन संभव होता है। शिक्षा के अन्तर्गत ज्ञानानुशासनों के अनुशास्ता को ही शिक्षक कहा जाता है। शिक्षक रूपी यह सत्ता ही आचार्य तथा गुरु के रूप में राष्ट्रनिर्माण में सर्वोपरि भूमिका का निर्वहन करती है। गुरु तथा आचार्य शैक्षणिक गरिमा के शिखरपुरुष हैं। इनका कार्य केवल छात्रों को पढ़ाना भर नहीं है अपितु उनका सर्वांगीण व्यक्तित्व-विकास भी इन्हीं का दायित्व है। अपने विद्यार्थियों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक स्तर का विकास करना प्रत्येक शिक्षक का कर्तव्य है। अखंड और समग्र व्यक्तित्व विकास के अभाव में सार्थक जीवन का निर्माण असंभव है अतः भारतीय परम्परा में शिक्षक द्वारा छात्रों का चरित्रनिर्माता भी होता है। महामुनि यास्क ने निरुक्त में आचार्य शब्द का निर्वचन करते हुए लिखा है कि जो आचरण सिखाएं वह आचार्य कहलाता है, जो शास्त्रों के रहस्य खोले तथा शिष्यों की बुद्धि का विकास करें वह आचार्य कहलाता है – आचारं ग्राह्यति इति आचार्य:। आचिनोति अर्थान् आचिनोति बुद्धिमिति वा।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि शिक्षा के द्वारा संभव होती है। शिक्षा विद्या ग्रहण करने का नाम है जो दो प्रकार होती है अपरा और परा। अपरा धर्म,अर्थ काम रूपी त्रिवर्ग से सम्बन्धित है तथा पराविद्या मोक्ष की साधिका होती है। परा और अपरा दोनों ही साधनाओं की पूर्ति शिक्षक के आश्रय में जाकर ही संपन्न होती है।
भारतीय परंपरा में शिष्य अपने गुरु को ब्रह्मा, विष्णु महेश का साक्षात स्वरूप मानते हैं। एक शिक्षक ही ब्रह्मा के रूप में अपने शिष्य के भीतर नवीन ज्ञान का सृजन करता है, वही विष्णु के रूप में अपनी ज्ञान परंपरा का संरक्षण और पोषण करता है तथा महेश के रूप में अपने शिष्य के समस्त अज्ञान तिमिर का संहार करता है। शिक्षक ही परमात्म-ज्ञान की निष्ठा और प्रतिष्ठा के कारण परब्रह्म के रूप में पूजनीय बनता है-

गुरुर्बह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
एक शिक्षक ही गुरु के रूप में प्रज्ञादृष्टि रूपी अंजन शलाका से अज्ञान अंधकार को दूर कर शिष्य के ज्ञान-चक्षुओं को प्रकाश से भरता है-
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
भारतीय परंपरा में चाहे शिक्षागुरु हो चाहे दीक्षागुरु दोनों ही शिष्य के समग्र व्यक्तित्व विकास का पूरा ध्यान रखते थे। गुरु वात्सल्यभाव से अपने विद्यार्थियों में योग्यता और कौशल का विकास करते थे। विद्यार्थी को विद्या बुद्धि और कौशल में स्वयं से आगे बढ़ाकर शिक्षक गौरवानुभव करते थे। विद्यार्थी भी अपने शिक्षक को पिता और परम देवता मानकर उनमें अखंड श्रद्धा- भक्ति रखते थे। गुरु-शिष्य के इन्हीं संबंधों के फलस्वरूप भारतीयपरंपरा एक से बढ़कर एक सच्चरित्र, मेधावी, विद्वान्, तेजस्वी, तपस्वी, यशस्वी गुरु एवं शिष्यों से उत्तरोत्तर निरंतर विभूषित होती रही। भारतीय परंपरा के अनुसार शिक्षक पूर्व रूप होता है तथा उसका शिक्षार्थी उत्तर रूप होता है। इन दोनों के मध्य विद्यारूपी संधि होती है। इस विद्यासंधि के कारण पूर्वरूप एवं उत्तररूप होते हुए हजारों साल से हमारी ज्ञानपरंपरा निरंतर प्रवहशील है। गुरु और शिष्य के मध्य सामंजस्य और सद्भाव ही उनके यश एवं ब्रह्मवर्चस् को बढ़ाने वाला होता है- सह नौ यश:। सह नौ ब्रह्मवर्चसम्। (तैत्त्तिरीयोपनिषद्)
व्यवहारिक जीवन में सदाचार एवं चारित्र्य भारतीय परंपरा की अनन्य विशिष्टता है। यही भारतीय जीवन पद्धति है जो अपने अग्रजन्मा लोगों के साथ अपने निजी और सार्वजनिक जीवन में पवित्रता और शुचिता पूर्ण चारित्रिक शिक्षा के लिए प्रेरित करती है-
एतद्देश प्रसूतस्य सकासादग्रजन्मन:।
स्वंस्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:।।
शिक्षक की गरिमा उसके आचार, विचार और व्यवहार में सन्निहित है। स्वाध्याय और प्रवचन ही भारतीय परंपरा के अनुसार किसी भी शिक्षक के सर्वोच्च जीवन मूल्य हैं। स्वाध्याय और प्रवचन के द्वारा ही ज्ञान परम्परा में निरंतरता रहती है और उसका विस्तार होता है। ऋत, सत्य, तप, दम, शम और मानवीय व्यवहारों का महत्व प्रतिपादित करते हुए हमारे ऋषियों राथीतर, पौरूशिष्ट और मौदगल्य ने विमर्श करते हुए जीवन में सत्य, तप के अनन्तर स्वाध्याय और प्रवचन को सर्वोपरि मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया, उसे ही वास्तविक तप के रूप में महत्व दिया। स्वाध्याय और प्रवचन ही शैक्षणिक या एक शिक्षक के जीवन का राजपथ है-
ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च। तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च। दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च। शमश्च स्वाध्यायप्रवचने च।…..मानुषंच स्वाध्यायप्रवचने च।…..सत्यमिति सत्यवचा राथीतर:। तपइति तपोनित्य: पौरुशिष्ट:। स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाकोमौदगल्य:।
( तैत्तिरीयोपनिषद्)
भारतीय ज्ञानपरम्परा में लौकिकअभ्युदय से भी बढ़कर निःश्रेयस् या पारमार्थिक कल्याण को महत्व दिया गया है क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञानसंपन्न व्यक्ति अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक कर्तव्य के प्रति अत्यंत विशिष्ट दृष्टिकोण रखता है। आत्मसंस्कार के बिना सफलता कभी भी अर्थपूर्ण नहीं हो सकती है। ज्ञान विज्ञान और दर्शनों के द्वारा आत्मा में विशिष्ट संस्कार को उत्पन्न करने का नाम ही शिक्षा है-
विद्यास्ति ज्ञान विज्ञानदर्शन: संस्क्रियात्मनि
(ब्रह्मसमन्वय)
भारतीय परंपरा के अनुसार सच्ची शिक्षा के बिना जीवन व्यर्थ हो जाता है। जीवन को अर्थपूर्ण बनाने के लिए ही विधाता ने शिक्षक का सृजन किया है। शिक्षक के द्वारा यथाजात असंस्कृत, अपूर्ण, अनुन्नत, अज्ञ, अप्रबुद्ध अविकसित, रुग्ण विद्यार्थी को अपने ज्ञान और तपोबल के द्वारा संस्कृत, पूर्ण, उन्नत, विद्ज्ञ, प्रबुद्ध, विकसित तथा नीरोग व्यक्तित्व के रूप में रूपांतरित किया जाता है। विद्यार्थी के जीवन का सर्वोपयोगी रूपान्तरण ही शिक्षक के जीवन का ध्येय होता है। भारतीय ऋषि परम्परा, गुरुपरम्परा, आचार्यपरम्परा ऐसे ही महान शिक्षकों भरी है जिन्होंने व्यक्तित्व निर्माण संस्थानों की भांति कार्य करते हुए भारत के भौतिक और आध्यात्मिक जगत में युगांतरकारी परिवर्तन किए। महर्षि वशिष्ठ, वेदव्यास, विश्वामित्र, भरद्वाज, पतञ्जलि, कपिल, गौतम, जैमिनी, कणाद, आचार्य कौटिल्य बृहस्पति, शुक्र, पाणिनि, वाग्भट, चरक, सुश्रुत, वराहमिहिर, आर्यभट आदि शिक्षकों ने न केवल राष्ट्र का निर्माण किया अपितु राष्ट्रीय चरित्रों का भी निर्माण करते हुए उन्हें समस्त चराचर जगत के सर्वतोमुखी कल्याण के लिए समर्पित किया। भारतीय परम्परा शिक्षकों को जंगमतीर्थ के रूप में पूजती है। केवल जीवननिर्वाह के लिए शिक्षक बनकर ज्ञान बेचनेवालों को यह परंपरा वणिक् मात्र कह धिक्काकरती है-
यस्यागम: केवलजीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति।
(मालविकाग्निमित्रम् 1.17)
महाकवि कालिदास की दृष्टि में श्रेष्ठ शिक्षक वही है जो अपने ज्ञान-अनुशासन का गंभीर अध्येता हो, जो विषय पर पूरा अधिकार रखता हो तथा उत्कृष्ट अध्यापन सामर्थ्य से युक्त होकर छात्रों को श्रेष्ठज्ञान का लाभ कराता हो-
श्लिष्टाक्रिया कश्चिदात्मसंस्था संक्रान्तिरस्य विशेषयुक्ता।
यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां धुरिप्रतिष्ठापयितव्य एव।।
( मालविकाग्निमित्रम्1.16)
भारतीय परम्परानुसार ऐसे गुरुजनों के अनुग्रह से शिष्यों के समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं-
गुरोरनुग्रहेणैव पुमान् पूर्ण: प्रशान्तये।
( श्रीमद्भागवत्०10.80.43)
प्रो. नीरज शर्मा
अध्यक्ष, संस्कृत विभाग
मोलासु विश्वविद्यालय, उदयपुर
सन्दर्भ:
तैत्तिरीयोपनिषद्
मनुस्मृति
निरुक्त
मालविकाग्निमित्रम्
श्रीमद्भागवत महापुराण
ब्रह्मसमन्वय(पं.मधुसूदन झा) कल्याण-शिक्षाङ्क से समुधृत
Search
Popular posts

Popular tags
Comment (1)
Dr Vaibhav Aloni
गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरा गुरु साक्षात परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः