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उदात्त-जीवन का अभिप्रेरकः माघकाव्य

माघ महोत्सव - 2021

उदात्त-जीवन का अभिप्रेरकः माघकाव्य

उदात्त-जीवन का अभिप्रेरकः माघकाव्य

(माघ जयन्ती के अवसर पर माघकाव्य का संदेश)

महाकवि माघ संस्कृत साहित्य के अग्रगण्य पण्डित कवि के रूप में सुप्रथित हैं। राजस्थान के भीनमाल नगर में माघ का जन्म हुआ। ‘शिशुपालवधम्’ नामक महाकाव्य पर माघ की कीर्तिपताका अवलम्बित है। महाभारत के कथानक से शिशुपाल के वध की घटना को आधार बनाकर बीस सर्गात्मक महाकाव्य की महाकवि माघ ने रचना की। उनका शब्द भण्डार इतना विपुल तथा व्यापक था कि आलोचकों के द्वारा उनकी इस शब्द सम्पत्ति के विषय में कहा गया – ‘नवसर्गगते माघे नवशब्दो न विद्यते।’ माघकाव्य के नौ सर्ग समाप्त होने पर कोई नवीन शब्द शेष नहीं रह जाता।

माघ के शिशुपालवध महाकाव्य पर जब दृष्टिपात करते हैं तो अद्भुत पाण्डित्य के साथ संस्कृति और लोक-चिन्तन कदमताल करते हुए प्राप्त होते हैं।

   सीमित तथा सार्थक वचनों का प्रयोग ही लोक के लिए हितकर है। इस सिद्धान्त को माघ ने श्रीकृष्ण के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया –

यावदर्थपदां वाचमेवादाय माधवः।

विरराम महीयांसः प्रकृत्या मितभाषिणः।। – शिशुपालवध – 2/13

श्रीकृष्ण इस प्रकार परिमित अर्थ वाले वचनों को कहकर चुप हो गये क्योंकि महान् लोग स्वभाव से ही अल्पभाषी होते हैं। अल्पभाषिता एक महान् गुण है। लोक में आधे से अधिक संताप कटु तथा निरर्थक वाग्व्यवहार से उत्पन्न होते हैं। लोक-जीवन की सुचारुता तथा महत्ता माघकाव्य का केन्द्रिय वैचारिक बिन्दु है। शिशुपाल श्रीकृष्ण का अनेकधा अपमान करता है परन्तु श्रीकृष्ण अपने प्रति किये गये अपमान से विचलित नहीं हैं परन्तु वह शिशुपाल लोक को पीड़ित कर रहा है, यह उनके परम दुःख का कारण है।

यत्तु दन्दह्यते लोकमदो दुःखाकरोति माम्। – शिशु. – 2/11

श्रीकृष्ण ने व्यक्ति की अपेक्षा समष्टि को महत्त्व प्रदान किया है। शिशुपाल जैसे आततायियों का वध करना इसलिए आवश्यक हो गया था कि वे लोक की शिरोवेदना के कारण हो गये थे। व्यक्तिगत वैमनस्य के कारण श्री कृष्ण ने शिशुपाल का वध नहीं किया। यह सूत्र सर्वथा विचारणीय है। क्योंकि वर्तमान में व्यक्ति का अहम् सर्वातिशायी हो गया है और समाज अथवा लोक का हित उसके लिए गौण हो रहा है।

          उपकारपरायण होना महान् व्यक्तित्व का आधायक गुण है। लोक के उपकार के लिए जो अनवरत सन्नद्ध रहता है – वही महान् है। यह सूत्र प्रदान करते हुए माघ ने व्यक्तिगत जीवन से ब्रह्माण्डगत जीवनपर्यन्त सार्थकता का प्रतिपादन किया है –

‘महतामितरेतरोपकृतिमच्चरितम्’ – शिशु. – 9/33

इस प्रक्रिया का वैधम्र्य भी कवि संकेत के माध्यम से अभिव्यक्त कर देता है। जो लोक का उपकार नहीं करता अथवा विपरीत आचरण करता है वह अधम कोटि का प्राणी है अथवा पापी है। उपकारपरायणता समाज की समृद्धि की प्रतीक है।

          यदि किसी व्यक्ति में उत्कृष्ट व्यक्तियों के समान सामथ्र्य नहीं भी है तो वह उन्नत जन का अनुगमन करे क्योंकि उन्नतजनों का अनुगमन करने में सम्पत्तियाँ सामने पड़ी हुई सी प्राप्त हो जाती हैं।

तदुन्नतानांमनुगमने खलु सम्पदोऽग्रतस्थाः। – शिशु. – 7/27

माघ सामाजिक शिष्टाचार के पक्षपाती कवि है। प्रायः हम देखते हैं कि पद अथवा प्रतिष्ठा प्राप्त होने के पश्चात् व्यक्ति मदान्ध हो जाता है। वह अभिमान के वशीभूत होकर उद्धत अथवा उद्दण्ड आचरण करने लगता है, कटुवाणी को अपना अधिकार समझने लगता है परन्तु माघ इस प्रस› में जीवन-सूत्र प्रदान करते हुए कहते हैं –

महतीमपि श्रियमवाप्य विस्मयः

सुजनो न विस्मरति।

सुजन अथवा उत्तम व्यक्ति महान् ऐश्वर्य को प्राप्त करके भी स्वजनों को नहीं भूलता है। ऐश्वर्य प्राप्ति अथवा बड़े पदों को प्राप्त करके प्रायः व्यक्ति अपने अतीत को भूल जाता है। संघर्ष के साथियों का विस्मरण कर देता है, परन्तु सुजन वही है जो पद तथा ऐश्वर्य के विस्तार के साथ व्यक्तित्व के विस्तार को भी प्राप्त करता है।

          प्रेम की परिभाषा माघकाव्य में अद्भुत रीति का आश्रय लेती है। आज के युग में प्रेम-दिवस अथवा प्रेम-सप्ताह मनाये जा रहे हैं परन्तु प्रेम क्या है? प्रेम की प्रकृति क्या है? इससे प्रायः सभी अनभिज्ञ हैं। माघ कहते हैं कि अत्यधिक प्रेम अनेक बार की परिचित वस्तु को भी नवीन-नवीन बना देता है।

‘अनेकशः संस्तुतमप्यनल्पा नवं नवं प्रीतिरहो करोति।’

प्रेम विरसता को उत्पन्न नहीं करता अपितु अत्यधिक परिचित व्यक्ति को भी क्षण प्रतिक्षण नवीन करता रहता है। इस नवीनता में ही आनन्द निवास करता है। प्रेम को आनन्द में पर्यवसित कर देना अथवा प्रेम को नूतनता के आविर्भाव में स्थापित कर देना – यह माघ की प्रातिस्विकता है।

          माघ उत्तेजना का निषेध करते हैं। बुद्धि की तीक्ष्णता तो अपेक्षित है परन्तु उससे मर्मभेदन करना कदापि अभीष्ट नहीं है। सत्पुरुष की बुद्धि तीक्ष्ण तो होती है किन्तु शस्त्रों की भाँति मर्मभेदिनी नहीं होती। तेजोयुक्त होने से वह शत्रुओं में भय को तो उत्पन्न करती है परन्तु वह भय भी उत्तेजनागर्भित नहीं होता अपितु शान्त होता है।

          यदि कोई अधम व्यक्ति अपशब्दों का प्रयोग करता है तो उसके इन दुष्ट आचरणों के प्रत्युत्तर में अमूल्य शक्ति को नष्ट नहीं करना चाहिए। शिशुपाल के द्वारा अपशब्द कहने पर भी श्रीकृष्ण उत्तर नहीं देते हैं क्योंकि शेर बादल की गर्जना सुनकर ही हुšार करता है गीदड़ की ध्वनि सुनकर नहीं। समान स्तर होने पर ही प्रतिक्रिया की जानी चाहिए अन्यथा वह शक्ति के ह्रास का ही कारण बनती है।

अनुहुङ्कुरुते घनध्वनिं न हि गोमायुरुतानि केसरी। – शिशु. -16/25

लोक में पिता-पुत्री के सम्बन्धों की मार्मिकता स्पष्टता से प्राप्त होती है। परन्तु माघ इसी मार्मिकता को पर्वत और नदियों में प्रतिबिम्बित करते हैं। जिस प्रकार गोद में खेलने वाली कन्या जब पति के घर जाने लगती है तब पिता वत्सलता से करुण रुदन करता है। उसी प्रकार रैवतक पर्वत से उत्पन्न तथा उसकी गोद से बहने वाली नदियाँ अपने पति (समुद्र) से मिलने के लिए समतल भूमि पर उतरने लगी हैं, तब पक्षियों के कलरव के बहाने मानो वह पर्वत नदी रूपी पुत्रियों के लिए रुदन कर रहा है।

अनुरोदितीव करुणेन पत्रिणां विरुतेन वत्सलतयैष निम्नगाः। -शिशु.- 4/47

कवि प्रकृति में भी मानवीय सम्बन्धों की प्रतिच्छवि गढ़ता है। प्रकृति का मानवीकरण हमें सम्वेदनाशील बनाता है। तथा प्रकृति तथा मानव सर्वथा पृथक्-पृथक् सत्तायें नहीं है अपितु परस्पर उपकारी हैं – यह संदेश भी काव्य में पदे-पदे प्राप्त होता है।

          माघ की सूक्तियों में प्रायः सत्प्रवृत्तियों के लिए निर्देश किया गया है –

अस्तसमयेऽपि सतामुचितं खलूच्चतरमेव पदम्। – शिशु. – 9/5

विनाश काल में भी सज्जनों का स्थान उच्चतर ही रहता है। माघ सज्जनों की कुलीनता को स्थापित करते हैं। विपरीत परिस्थितियों में अथवा कष्ट-काल में भी सज्जन उच्चतर पद से भ्रष्ट नहीं होते अपितु अपनी गरिमा का निर्वाह करते हुए वे उच्च से उच्चतर तथा उच्चतर से उच्चतम व्यक्तित्व की ओर अग्रसर रहते हैं। ऐसे अनेक सूत्र माघकाव्य की विशेषता के प्रतिपादक हैं। ये सूत्र मनुष्य को अधः पतन से भी सुरक्षित रहते हैं और ऊध्र्वगामी व्यक्तित्व की ओर भी अभिप्रेरित करते हैं।

डॉ. सरोज कौशल

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष संस्कृत-विभाग,

जयनारायण व्यास वि.वि., जोधपुर

bZesy&saroj.kaushal64@gmail.com

Comments (3)

  1. डॉ छैलसिंह राठौड़

    प्रो सरोज कौशल जी अध्यक्ष संस्कृतविभाग , निदेशक पण्डित मधुसूदन ओझा शोधप्रकोष्ठ जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर का महाकवि माघ उदात्त जीवन मानवीय मूल्यों को स्थापित करता है ।आपका आलेख ज्ञानवर्धक , उत्तम है ।
    डॉ छैलसिंह राठौड़ जोधपुर।

  2. seema songara

    श्रेष्ठ आचरण, सामाजिक शिष्टाचार तथा मानवीय मूल्य परक आलेख। मैडम आपका यह आलेख विद्यार्थी वर्ग के लिए लाभदायी और सभी के लिए प्रेरणास्रोत है।🙏🙏

  3. डॉ. ओम प्रकाश बैरवा (सहा. आचार्य-संस्कृत)

    अत्यधिक ज्ञानवर्धक,सारगर्भित एवं जीवनोपयोगी शोधपत्र।

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