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वाल्मीकि की आप्त-निष्ठा

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वाल्मीकि की आप्त-निष्ठा

आदिकवि वाल्मीकि काव्यानुभूति के परमाचार्य हैं। सतही हो या गम्भीर, कठोर हो या मृदुल, बहिर्मुख हो या संवेदनशील, सत्यान्वेशी हो या शिवोन्मुख हो अथवा सुन्‍दराभिलाषी, हर विधा के रसिकों को इनकी राम-कथा-सुधा संतृप्त करती है। यह सच ही कहा गया है कि उन्माद करा देने वाले शब्द-प्रयोग का शिक्षण वाल्मीकि ही कर सकते हैं- मधुमयभणितीनां मार्गदर्शी महर्षिः

               वाल्मीकि की अन्य कवियों से विलक्षणता यह है कि कविता में सिद्धहस्तता होने पर भी उनकी कथा का प्रवाह कहीं भी कलुषित नहीं है। राम-कथा को अपने काव्य का प्रतिपाद्य बनाने वाले अन्य कवि किसी ना किसी रूप में अपनी कल्पना शक्ति से अवश्‍य प्रभावित हैं, परन्तु वाल्मीकि के काव्य का आधार आप्तपुरुष अथवा प्रामाणिक पुरुष विषयक निष्ठा ही है। श्रीराम चरित वर्णन में वे नारद मुनि तथा पितामह ब्रह्मा के कथन एवं प्रेरणा तक ही सीमित रहते हैं। रामायण भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि काव्य है तथा परवर्ती सभी काव्‍यों के लिए आदर्शभूत स्रोत है। 28 वें व्यास महर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन बृहद्धर्मपुराण (1.30.47,51,55) में रामायण की प्रशंसा करते हैं-

पठ रामायणं व्यास काव्य-बीजं सनातनम्।

यत्र रामचरित्रं स्यात् तदहं तत्र शक्तिमान्।

रामायणं पठितं मे प्रसन्नोऽस्मि कृतस्त्वया।

करिष्यामि पुराणानि महाभारतमेव च।।

इसी प्रकार महर्षि वेदव्यास ने स्कन्दपुराण, अग्निपुराण, तथा महाभारत में रामायण का कथासार एवं माहात्म्य अत्यन्त सम्मान के साथ प्रस्तुत किया है। परवर्ती कवियों यथा-कालिदास, अश्‍वघोष, भवभूति, आनन्दवर्धन, आदि ने वाल्मीकि की उत्तमर्णता स्वीकार करते हुए उनका गौरव प्रदर्शित किया है। प्राचीन स्रोतों से वाल्मीकि नाम से तीन-चार महापुरुषों के का उल्लेख मिलता है। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य मे वैयाकरण वाल्मीकि‘ का उल्लेख प्राप्त होता है। इसी प्रकार महाभारत के उद्योग पर्व में सुपर्ण वाल्मीकि तथा स्‍कन्‍दपुराण में रत्नाकर-वाल्मीकि का परिचय प्राप्त होता है। रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि महाराज श्रीराम को अपनी सत्यनिष्ठता का परिचय देते हुए स्वयं को प्रचेता का दसवाँ पुत्र बताते हैं- प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन (वा.रामायण 7.96.19) । अध्यात्मरामायण, स्कन्दपुराण, उत्तररामचरितम् आदि में भी उन्हें प्राचेतस कहा गया है। प्रचेता वरुण का नाम है। भृगुकुलोत्पन्न च्यवन ऋषि का भी प्रचेता नाम है- (ब्रह्माण्डपुराण 2.32.104,3.1.92, तथा वायुपुराण 62.12) । महाभारत के वन पर्व के अनुसार भृगुपुत्र च्यवन अनेक वर्षों तक तपस्या में निमग्न रहे, जिससे उनका शरीर वल्मीक के आच्छादित हो गया। इससे महर्षि च्यवन वल्मीक नाम से प्रसिद्ध हुए। महर्षि वाल्‍मीकि वल्मीक (च्यवन) के पुत्र होने से वाल्मीकि कहलाए। वाल्मीकि रामायण में भार्गव नाम से भी इनका उल्लेख किया गया है-

संनिबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत् सहस्रकम्।

उपाख्यानशतं चैव भार्गवेण तपस्विना।। (वा.रामायण 7.94.26)

विष्णुपुराण (3.3.4-19) में पाराशर ऋषि 28 व्यासों का उल्लेख करते हैं। इनमें प्रथम व्यास स्वयं ब्रह्मा हैं। 24 वें व्यास भृगुवंशी ऋक्ष हुए जो वाल्मीकि कहलाए-

ऋक्षोऽभूद्भार्गवस्तस्माद्वाल्मीकिर्योऽभिधीयते।

तस्मादस्मत्पिता शक्तिव्यासस्तस्मादहं मुने।।

जातुकर्णोऽभवन्मत्‍त्‍: कृष्‍णद्वैपायनस्ततः।

अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासाः पुरातनाः।।

 (विष्णुपुराण 3.3.18-19)

इस प्रकार वाल्मीकि का एक अन्य नाम ऋक्ष भी है, और वे 24 वें व्यास हैं। च्यवन का पुत्र होने के कारण उन्हें च्यावन नाम से जाना जाता है। अतः यह स्पष्ट है कि वाल्मीकि ब्रह्मा के पुत्र, महर्षि भृगु के पौत्र तथा महर्षि च्यवन के पुत्र थे। संस्‍कृत में कवि के विषय में एक सुभाषित प्रसिद्ध है-

अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः।

यथा वै रोचते विश्वं तथेदं परिर्वते।।

कवि प्रजापति की तरह अपनी प्रतिभा एवं कल्पना शक्ति के बल पर अपनी इच्छानुसार विश्व का चित्रण करता है, तथापि वाल्मीकि अपने पूर्व मनीषियों के प्रति श्रद्धा को बिना किसी तरह का अपना भाव दिये निभाते हैं। तपस्वी वाल्मीकि तप और स्वाध्याय में निरत मुनिवर नारद से प्रश्न करते हैं-

को न्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्।

धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो द्ढवृतः।।

 (वा. रामायण 1.1.2)

वे पुनः नारद से कहते हैं- मुझे सदाचारी, समस्त प्राणियों का हित साधक, विद्वान्, सामर्थ्ययुक्त, सुन्दर, आत्मवान्, क्रोध पर विजय प्राप्त , कान्तिमान्, किसी की निन्दा न करने वाला तथा संग्राम में कुपित होने पर देवता भी जिससे डरते हैं, ऐसे मनुष्य के विषय में जानने की उत्सुकता है। आप ऐसे पुरुष को जानने में समर्थ हैं। वाल्मीकि के इस वचन को सुनकर त्रिलोकज्ञ नारद मुनि ने कहा-

बहवो दुर्लभाश्‍चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः।

मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्तः श्रूयतां नरः।।

इक्ष्‍वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः।। (वा.रामायण 1.1.7-8)

राम के विशिष्ट गुणों का वर्णन करते हुए नारद संक्षेप में रामचरित का व्याख्यान करते हैं। नारद द्वारा संक्षिप्त रामचरित सुनकर मध्याह्न कृत्य सम्पादनार्थ महर्षि वाल्मीकि अपने शिष्य भारद्वाज के साथ तमसा नदी के तट पर पहुँचते हैं। वहीं उन्होंने समीप में विचरण करते हुए क्रौञ्च पक्षी के सुन्दर जौड़े को देखा। उतने में किसी व्याध ने नर क्रौञ्च को बाण से बेंध दिया। दुःखी क्रौञ्ची के करुण क्रन्दन को सुनकर महर्षि वाल्मीकि का हृदय करुणार्द्र हो गया और उनके मुख से अनायास छन्दोबद्ध वाणी प्रकट हो गई-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्‍वतीः समाः।

यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।। (वा.रामायण 1.2.15)

यह पादबद्ध अनुष्टुप् छन्द है। इससे पूर्व वेद में ही छन्दः प्रयोग मिलता है। अनायास ही महर्षि के मुख से लय-ताल समन्वित पादबद्ध छन्दस्वती वाणी अवतीर्ण हुई, जिससे स्वयं महर्षि भी विस्मय में पड़ गए। आश्रम में पहुँचने के पश्‍चात् भी उनका ध्यान उस श्लोक की ओर ही लगा था। इतने में ही लोककर्ता, स्वयंप्रभु, महातेजस्वी, चतुभुर्ज ब्रह्माजी वाल्मीकि से मिलने उनके आश्रम पर आ गए। अभिवादन पूर्वक सपर्या कर वाल्मीकि ने पितामह ब्रह्माजी को वह श्लोक सुनाया। ब्रह्माजी ने हँसते हुए कहा- मेरी प्रेरणा से ही आपके मुख से यह छन्दस्वती सरस्वती प्रकट हुई है-

मच्छन्दादेव ते ब्रह्मन् प्रवृत्तेयं सरस्वती ।। (वा.रामायण 1.2.31)

अतः आप नारद के मुख से सुने हुए सम्पूर्ण राम चरित्र का चित्रण करो-

रामस्य चरितं कृत्‍स्‍नं कुरु त्वमृषिसत्तम।

धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः।।

वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम्।

रहस्यं च प्रकाशं च यद्वृत्तं तस्य धीमतः।

रामस्य सहसौमित्रे राक्षसानां च सर्वश:।

वैदेह्याश्‍चैव यद् वृत्तं प्रकाशं यदि वा रहः।।

तच्चाप्यविदितं सर्वं विदितं ते भविष्यति।। (वा.रामायण 1.2.32-35)

       ब्रह्माजी महर्षि वाल्मीकि से पुनः कहते हैं कि इस काव्य में अंकित तुम्हारी कोई भी बात झूठी नहीं होगी, अतः तुम परम पवित्र एवं मनोरम रामकथा को श्लोकबद्ध करके लिखो । जब तक पृथ्वी पर पर्वतों और नदियों की सत्ता रहेगी तब तक लोक में राम कथा का प्रचार रहेगा, और तब तक तुम मेरे लोकों में निवास करोगे। ऐसा कहकर ब्रह्माजी अन्‍तर्घान गए, इससे शिष्यों सहित वाल्मीकि को बड़ा विस्मय हुआ-

न ते वागनृता काव्ये काचिदत्र भविष्यति।।

कुरु रामकथां पुण्यां श्लोकबद्धां मनोरमाम्।

यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्‍च महीतले।।

तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।

यावद् रामस्य च कथा त्वत्कृता प्रचरिष्यति।।

तावदूर्ध्वमधश्‍च त्वं मल्लोकेषु निवत्स्यसि। (वा.रामायण 1.2.35.38)

नारदजी के मुख से प्रकट धर्मार्थकाममोक्षरूप फल से युक्त रामचरित्र को सुनकर पितामह ब्रह्मा की प्रेरणा से श्रीराम के सम्पूर्ण जीवनवृत्त का महर्षि वाल्मीकि ने अपने योगधर्म के बल से यथावत् साक्षात्कार किया –

तत्सर्वं धर्मवीर्येण यथावत सम्प्रपश्‍यति‘ (वा.रामायण 1.3.4)

महर्षि वाल्मीकि ने पूर्ण आप्त-निष्ठा से महात्मा नारद ने जैसा वर्णन किया था, तथा पितामह ब्रह्मा की प्रेरणा से योगधर्म के द्वारा दृष्ट यथार्थ रूप में घटी घटनाओं को ही महाकाव्य का स्वरूप दिया। इसमें कहीं भी काव्य को कवि कल्पना से कलुषित नहीं होने दिया, तथा अपने पूर्व मनीषियों के आदेश में पूर्ण श्रद्धा रखते हुए उसका यथार्थ रूप में पालन किया।

               श्रीराम के वन से लौटकर अयोध्या के राज सिंहासन पर आसीन होने के बाद वाल्मीकि ने चौबीस हजार श्लोक, पाँच सौ सर्ग तथा उत्तरकाण्ड सहित सात काण्डों में रामायण महाकाव्य का निर्माण किया और अपने आश्रम में रह रही सीता तथा श्रीराम के पुत्र कुश और लव को इसका अध्ययन कराया। अयोध्या की गलियों एवं राजमार्गों पर रामायण का गान करते हुए इन दिव्य बालकों पर श्रीराम की दृष्टि पड़ी। अपने घर बुलाकर अत्यन्त सम्मान के साथ दोनों भाईयों को रामायण गाने की आज्ञा दी तथा दोनों भाई मार्गविधान की रीति से रामायण का गान करने लगे।

       निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि सम्पूर्ण रामायण का आधार इसके प्रारम्भ के तीन सर्ग ही हैं। प्रथम सर्ग, जो मूल रामायण के रूप में प्रसिद्ध है, में एक सौ श्लोकों में नारद एवं वाल्मीकि का संवाद है। वस्तुतः रामायण का मूल आधार भी यही सर्ग है। द्वितीय सर्ग में तमसा के तट पर कौञ्च वध से संतप्त वाल्मीकि के शोक का श्लोक रूप में प्रकट होने तथा ब्रह्माजी द्वारा रामचरित्रमय काव्य के निर्माण का आदेश देने का वर्णन है। तृतीय सर्ग में ब्रह्माजी की प्रेरणा से महर्षि वाल्मीकि द्वारा योगधर्म द्वारा यथार्थ रूप से निरीक्षित रामायण में निबद्ध विषयों का संक्षेप में उल्लेख है।

               रामायण महाकाव्य गायत्री महामन्त्र के 24 अक्षर के आधार पर 24000 श्लाकों में निबद्ध है, जिसके प्रत्येक हजार के प्रथम वर्ण से गायत्री मन्त्र बनता है। स्वयं परमात्मा लोक की रक्षा हेतु दुष्टों के संहार के लिए मनुष्य रूप में अवतरित हुए तो स्वयं वेद उनके चरित्र वर्णन के लिए पवित्र अन्तःकरण वाले महान् तपस्वी महर्षि वाल्मीकि के मुख से पौरुषेय काव्य रामायण के रूप में अवतरित हुआ-

वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे।

वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना।।

डॉ सुभाष शर्मा

पूर्व विभागाध्यक्ष एवं अधिष्ठाता साहित्य

जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत

विश्वविद्यालय, जयपुर

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