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विक्रम और शक संवत्सर के संबंध

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विक्रम और शक संवत्सर के संबंध


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आजादी का अमृत महोत्सव

विक्रम और शक संवत्सर के संबंध

संवत्सर का संबंध कालगणना से ही नहीं बल्कि सुदीर्घ आंचलिक कृत्यों की विविधता से है। भारत के उन भागों में, जहां वर्ष का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है, लोग इस दिन कई प्रकार के धार्मिक और सामाजिक कृत्य करते हैं। ब्रह्मपुराण में जगत्कर्ता ब्रह्मा ने चैत्र शुक्ल के प्रथम दिन सूर्योदय के समय संसार का निर्माण किया, इस नाते उसी दिन से कालगणना शुरू हुई। भविष्यपुराण में है कि यह तिथि ब्रह्मा द्वारा सर्वश्रेष्ठ तिथि घोषित की गई है। इस दिन वर्ष के स्वामी की पूजा होती है और तोरण व पताकाएं लगाई जाती हैं। नीम की पत्तियां खाई जाती हैं। विक्रम संवत का नाम और उसका फल जानने के लिए पुरोहितों से पंचांग सुना जाता है। आजकल भी ये कृत्य देश में किसी-न-किसी रूप में होते हैं।

डॉ. पांडुरंग वामन काणे अपनी पुस्तक ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में मानते हैं कि भारत में संवतों का प्रयोग लगभग 2000 वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है। संवत का लगातार प्रयोग हिंदू-सिथियनों द्वारा, जिन्होंने आधुनिक अफगानिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी भारत में लगभग ईसा पूर्व 100 से 100 ईसा बाद तक शासन किया, उनके वृत्तांतों में हुआ है। यह बात केवल भारत में ही नहीं पाई गई, प्रत्युत मिस्र, बेबिलोन, यूनान एवं रोम में संवत का लगातार प्रयोग बहुत आगे चलकर शुरू हुआ। एक पश्चात्कालीन रचना ‘ज्योतिर्विदाभरणम्’ (ईसा पूर्व 33) में कलियुग के 6 व्यक्तियों के नाम आए हैं, जिनके नाम से संवत चले – पांडवश्रेष्ठ युधिष्ठिर, विक्रम, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, नागार्जुन एवं कल्कि। प्राचीन देशों में संवत का लगातार प्रयोग नहीं था, केवल शासन-वर्ष ही प्रयुक्त होते थे। महान सम्राट अशोक के आदेश-लेखनों में केवल शासन-वर्ष ही प्रयुक्त हैं।

विक्रम संवत के उद्भव, प्रयोग तथा विस्तार के विषय में कुछ भी कहना कठिन है। यही बात शक-संवत के विषय में भी है। किन्हीं राजा विक्रमादित्य के विषय में, जो ईसा पूर्व 57 में थे, संदेह प्रकट किए गए हैं और उनसे इस संवत को जोड़ा गया है। इस संवत का आरम्भ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से है। कुछ आरंभिक शिलालेखों में विक्रम संवत ‘कृत’ नाम से है। कुछ शिलालेखों में मालव संवत उल्लिखित है, यथा — नरवर्मा का मंदसौर शिलालेख। आठवीं एवं नौवीं शती में विक्रम संवत का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है। चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ के वेडरावे शिलालेख से पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर चालुक्य विक्रम संवत चलाया, जिसका प्रथम वर्ष था 1076-77 ईस्वी।

संस्कृत में लिखे ज्योतिष ग्रंथ लगभग 500 ईस्वी के उपरान्त शक संवत का प्रयोग करते हैं। इस संवत का यह नाम क्यों पड़ा, इस पर अनेक मत हैं। इसे कुषाण राजा कनिष्क ने चलाया या किसी अन्य ने, इस पर कुछ भी नहीं कहा जा सका है। यह एक ऐसी समस्या है जो भारतीय इतिहास एवं काल-निर्णय की अत्यंत कठिन समस्याओं में परिगणित है। आचार्य वराहमिहिर ने इसे शक-काल तथा शकेन्द्र—काल या शक-भूपकाल कहा है। उत्पल (966 ईस्वी) ने कहा है कि जब विक्रमादित्य द्वारा शक राजा मारा गया तब शक संवत चला। इसके वर्ष चांद्र गणना के लिए चैत्र से एवं सौर गणना के लिए मेष में सूर्य संक्रांति से शुरू होते थे। सबसे प्राचीन शिलालेख, जिसमें स्पष्ट रूप से शक संवत का उल्लेख है, चालुक्य वल्लभेश्वर का है, जिसकी तिथि है 465 शक संवत (543 ईस्वी) है। कुछ लोगों ने कुषाण राजा कनिष्क को शक संवत का प्रतिष्ठापक माना है। मध्यवर्ती एवं वर्तमान में लिखे ग्रंथों में शक संवत का नाम शालिवाहन है। संवत के रूप में शालिवाहन रूप 13वीं या 14वीं शती के शिलालेखों में है। संभव है कि सातवीं शती में लिखे हर्षचरित में गाथासप्तशती के प्रणेता के रूप में वर्णित सातवाहन ही शालवाहन बना हो और वह ही शालिवाहन के रूप में आ गया।

कश्मीर में प्रयुक्त सप्तर्षि संवत एक अन्य संवत है, जो लौकिक संवत के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह संवत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ईसा पूर्व अप्रैल 3076 में आरंभ हुआ। वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में एक परंपरा का उल्लेख है कि सप्तर्षि एक नक्षत्र में सौ वर्षों तक रहते हैं और जब हस्तिनापुर में सम्राट युधिष्ठिर राज्य कर रहे थे तो सप्तर्षि मंडल मेष राशि में था। संस्कृत ग्रथों में वर्ष के लिए संवत्सर, वत्सर, अब्द, समा और वर्ष नाम हैं। नारदसंहिता के अनुसार काल के नौ प्रकार के मान हैं – ब्राह्म, दैव, मानुष, पित्र्य, सौर, सावन, चांद्र, नाक्षत्र एवं बार्हस्पत्य। सामान्य भौतिक कार्यों में इनमें केवल पांच ही प्रयुक्त होते हैं। समय को मापने के लिए काल गणना की अवधि निश्चित है। इस हिसाब से ‘कल्प’ सबसे बड़ी इकाई है। एक इकाई सवंत्सर है। संवत्सर के बाद अयन, ऋतु, मास, पक्ष, अहोरात्र, प्रहर, मुहूर्त और घटी आदि हैं। एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक की अवधि ‘चांद्र मास’ है और ऐसे 12 मासों में 354 दिनों का एक ‘चांद्र वर्ष’ होता है। ‘सौर मास’ उस अवधि का सूचक है, जो सूर्य द्वारा एक राशि को पार करने पर बनती है; इस प्रकार के 12 मासों से एक वर्ष बनता है तथा सौर वर्ष का प्रथम दिन और मास का प्रथम दिन मेष राशि का होता है। ‘सावन वर्ष’ 30 दिनों के 12 मासों का होता है। दिन की गणना सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक होती है, जो एक वार कहलाता है। ‘बार्हस्पत्य वर्ष’ एक राशि में बृहस्पति के भ्रमण से 361 दिन का वर्ष बनता है।

प्रत्येक संवत्सर का एक स्वतंत्र नाम होता है। इस बार के संवत का नाम ‘नल’ है। धार्मिक कार्यों के आरम्भ में संकल्प करते समय संवत्सर की संख्या और उसके नाम का उच्चारण होता है। संवत्सर 60 हैं, जो बीस-बीस के क्रम में समान रूप से ब्रह्म विंशति, विष्णु विंशति और शिव विंशति में बंटे हैं। जब 60 संवत पूरे होते हैं तो फिर से पहले नाम वाले संवत्सर का प्रारंभ हो जाता है।

शक संवत भारतीय संविधान द्वारा स्वीकृत राष्ट्रीय वर्ष है। नवंबर, 1952 में भारत सरकार ने डॉ. मेघनाथ साहा की अध्यक्षता में ‘पंचांग सुधार समिति’ (कलेण्डर रिफॉर्म कमेटी) बनाई थी, जिस पर सारे भारत के लिए पंचांग बनाने का भार सौंपा गया। इस समिति ने नवंबर, 1955 में अपना निष्कर्ष उपस्थित करते हुए कहा कि स्वतन्त्र भारत के प्रशासन द्वारा सबके लिए समान पंचांग की व्यवस्था की जानी चाहिए। लोक पंचांग के लिए समिति ने जो निष्कर्ष दिए, उनमें ये तीन महत्त्वपूर्ण हैं – राष्ट्रीय संवत के रूप में शक संवत का प्रयोग होना चाहिए। वर्ष का आरम्भ वासन्तिक विषुव के अगले दिन होना चाहिए। सामान्य वर्ष में 365 दिन हों किन्तु प्लुत (लीप) वर्ष में 366 दिन हों।

हिंदू परंपरा ही नहीं बल्कि जैन, बौद्ध और सिखों में भी तिथि, मास और वर्ष विक्रम संवत के सहारे माने जाते हैं। सारे उत्सव, पर्व और त्योहार इसी संवत्सर के हिसाब से आते-जाते हैं। इसके अनुरूप ही हमारा आहार-विहार और व्यवहार ढला हुआ है। यह संवत निवास करता है नए अन्न के दानों में, आम की लुभाती खुशबू में और वसंतदूत कोयल की कूंजती स्वर लहरी में। इस संवत के आरंभ में चारों ओर पकी फसल का दर्शन आत्मबल और उत्साह को जन्म देता है।

नव संवत्सर आते ही चैत्र की प्रतिपदा से महानवमी तक अन्न और जीवन देने वाली पृथ्वी का पूजन माता दुर्गा के रूप में होता है। अष्टमी-नवमी को महादेवी के कन्यारूप में चरण पखारकर नए अन्न को कन्या से झूंठा करवाने का अनूठा विधान है। विक्रम संवत्सर के चेहरे पर जो चमक है, वह अध्यात्म और पुरातन इतिहास की है। तभी तो जब नया संवत शुरू होता है तो चहुं ओर महकता धूप का सौरभ और सुनाई देती है मंत्रों की ध्वनि। व संवत ‘भोग’ नहीं ‘योग’ के लिए है। व्रत-जप-दान-संयम-नियम और निराहार रहकर परमात्मा श्रीराम के अयोध्या में उतरने की उत्कट प्रतीक्षा। नसंवत्सर की विशिष्टता है कि इसके शुरू होने पर ही धर्म के मूर्तिमान विग्रह श्रीराम धरती पर उतरते हैं। वास्तव में संवत्सर हमारे जीवन में आने-जाने वाला काल मात्र नहीं है बल्कि यह तो भारतीय जीवन और साहित्य में पूरी तरह से रचा-बसा है।

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@Kosalendradas

- शास्त्री कोसलेन्द्रदास

Comments (3)

  1. Prof.Vinod bihari sharma

    !!👌”वर्तते ननु सनातनं शिवम् सत्यं शास्त्रसौष्ठवम्”👍🙏!!

  2. प्रोफे.(डा.)विनोद बिहारी शर्मा

    “सत्यं ननु शिवं सनातनं शास्त्रसौन्दर्यम्”👍👌🙏!!!

  3. Kamlesh meena

    Right

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