महिला समानता: कतिपय विचारणीय बिन्दु
August 25, 2020 2020-08-25 22:08महिला समानता: कतिपय विचारणीय बिन्दु

महिला समानता एक आधुनिक अवधारणा है। आधुनिक इस अर्थ में कि, सत्रहवीं शताब्दी से पूर्व पूरे विश्व में स्त्रियों को सामाजिक एवं राजनैतिक दृृष्टि से दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता था। दूसरे अधिकार तो दूर की बात है, स्त्री को मतदान का अधिकार भी नहीं था। चाहे कोई भी देश हो या परिवेश, औरत की एक ही कहानी थी-दीनता और दुर्बलता की कहानी। फ्रांस की औद्योगिक क्रान्ति (1789 से 1799) के बाद पूरे वैश्विक पटल पर पुनर्जागरण की हवा चली और इस हवा ने मानो महिला को नींद से जगा दिया। भारत भी कोई अपवाद नहीं था। दो-तीन सहस्त्राब्दियों का भीषण और गहन अन्धकार यहाँ स्थिति और दारूण थी क्यांेकि देश, विदेशियों के आधिपत्य में था। जहाँ स्वशासन और सुशासन दोनों दिवास्वप्न हों, वहां स्त्री के सम्बन्ध में परम्परागत सोच को खण्डित करना और नयी, ताज़ी बयार का स्वागत करना, सरल न था।
पिछले दो सौ वर्षों में महिला की स्थिति में व्यापक सुधार हुआ हैं। अब वह बराबरी की बात कर रही हैं। यद्यपि अभी भी स्थिति पूर्ण सहज नहीं हैं, संघर्ष सतत बना हुआ ही है। बात को स्पष्ट करने के लिए केवल एक उदाहरण भी पर्याप्त हैं। 1789 से अमेरिका में प्रारम्भ हुई लोकतन्त्रीय व्यवस्था में अब तक 45 राष्ट्रपति निर्वाचित हो चुके हैं किन्तु एक भी महिला को इसका सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। जहाँ तक भारत का प्रश्न है, भले ही राजनैतिक परिदृृश्य में कुछ महिला चेहरे दिखलाई पड़ते हों, किन्तु सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र कुछ और ही कहानी कहते हैं।
वस्तुतः महिला समानता की इस अवधारणा को पहले समझना होगा। चंूकि यह संकल्पना पश्चिम की देन है इसलिए आज सभी जगह इस इसी रूप में समझा जाता है कि महिला और पुरूष दो भिन्न-भिन्न इकाइयाँ हैं, इनमें से कोई एक दूसरे से कम नहीं हैं, दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं और यदि कोई न्यूनता कहीं है तो उसे लड़कर प्राप्त किया जाना चाहिए। समझने की बात यह है कि ’दो’ के बीच सभी कुछ कभी बराबर नहीं होता। किसी तरफ कुछ घटेगा तो किसी तरफ कुछ बढे़गा-ऐसे में तनाव सदा बना रहेगा। दोनों में से कोई भी जीते, यह जीत एकतरफा ही होगा। संघर्ष कभी सौमन्स्य की ओर लेकर नहीं जाता।
इस समस्या का बहुत सुन्दर और स्थायी समाधान ’भारतीय दृृष्टि’ में है। जहां ’समानता’ पश्चिम की अवधारणा है वहीं ’पूरकता’ भारतीय दृृष्टिकोण है। पुरूष और स्त्री ’समान’ नहीं हैं वरन्् ’पूरक’ हैं। जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। जिन्हें कभी पृृथक्् नहीं किया जा सकता, दोनों मिलकर ही एक बनते हैं, वही स्थिति स्त्री और पुरूष की हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् कहता हैं- अथो अर्धो वा एष आत्मनः यत्पत्नी। (तै.उ. 6.1.85) अर्थात्् पत्नी (स्त्री) पति यानि पुरूष का आधा भाग है।
इस थोड़ा विस्तार से समझते हैं। यह सम्पूर्ण सृृष्टि द्वैत पर आधारित हैं इसीलिए इसका नाम ’दुनिया’ हैं। द्वैत की इस श्रृृंखला की शुरूआत स्त्री-पुरूष से होती है। प्रसिद्ध वैदिक विद्वान डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल बडे़ सुन्दर तरीके से इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं-’’स्त्री और पुरूष दोनों नदी के दो तटों की भांति सहयुक्त हैं। दोनों के बीच में जीवन की धारा प्रवाहित होती हैं। वैदिक साहित्य में स्त्री और पुरूष की उपमा पृृथ्वी और द्युलोक से दी गई हैं। जैसे शुक्ति के दो दलों के बीच मोती की स्थिति होती हैं द्यावा-पृृथ्वी एक ही संस्थान के परस्पर पूरक हैं। जब आकाशचारी मेध, वृृष्टि के द्वारा पृृथ्वी को गर्भ धारण कराते हैं तब वृक्ष-वनस्पतियों का जन्म होता है। यह स्थिति पति-पत्नी की है।’’
जहाँ दुनिया है वहाँ द्वैत है, वहाँ लाभ-हानि, जय-पराजय, अच्छा-बुरा, सुख-दुःख बना ही रहेगा। ऐसे में समानता को पूरकता की दृृष्टि से देखना होगा। इस सिद्धान्त को अद्वैत के स्तर पर समझना होगा। वस्तुतः आत्मा के स्तर पर कोई भेद नहीं है, कोई द्वैत नहीं है। यह सम की स्थिति है अर्थात् समानता की सही स्थिति है। दर्शन की भाषा में इसे ’पारमार्थिक सत्य’ कहते हैं। किन्तु समता से संसार नहीं बनता, उसके लिए तो ’विषमता’ चाहिए। यह ’व्यावहारिक सत्य’ है। इसीलिए स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध को समझाने के लिए ’रथ के दो पहियों’ की उपमा दी गयी। प्रतीति में दो पृथक् हैं किन्तु जीवन रूपी रथ के लिए दोनों का होना आवश्यक हैं। भले ही दोनों के गुण और विशेषताएं पृृथक् होती हों पर वस्तुतः दोनों अविच्छिन्न हैं।
महिला-समानता यथार्थ में तभी घटित होगी, जब इस तरह परस्पर सौहार्द्र, सामंजस्य, सम्मान, और स्नेह का भाव आविर्भूत होगा। तभी जीवन सहज, सरल और सम्पूर्ण होगा।
-डॉ0 रेणुका राठौड़
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